आज के विचार
( श्रीराधारानी द्वारा उद्धव को "प्रेम" का उपदेश )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 90 !!
**************************
"नही उद्धव ! उन्हें मत कहना यहाँ आनें के लिए"
चौंक कर , मुड़कर उद्धव और ललिता सखी नें देखा .......तो सामनें से बृषभान दुलारी श्रीराधारानी आरही थीं ।
वही कह रही थीं......नही उद्धव ! आना होता तो वे आजाते ......
यहाँ आनें से शायद उन्हें कष्ट होगा ...... हमनें प्रेम किया है श्याम सुन्दर से........फिर हम ये कैसे चाह सकती हैं कि ......उनको कोई कष्ट हो ........वो जिस में सुखी हैं ....जहाँ सुखी हैं ..........बस वो सुखी रहें ........न आएं यहाँ ............कोई बात नही .......हम तो नारी जात हैं......दुःख - कष्ट उठाना हमें आस्तित्व नें ही सिखाकर भेजा है ।
और हमारा क्या है उद्धव ! नारी जात, उसपर भी जंगल - वनों में रहनें वाली .......उसपर भी धर्म शास्त्र को तिलांजलि देकर इस प्रेम पन्थ में चलनें वाली.......दुःख तो हमें मिलेगा ही...........पर अपनें दुःख की हमें किंचित् भी परवाह नही है .........चिन्ता तो हमें हर समय श्याम सुन्दर की ही खाये जाती है .......इतना कहकर अश्रु बहानें लगीं थीं खड़ी खड़ी श्रीराधारानी ।
आगे बढ़कर श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम किया उद्धव नें .............
ललिता सखी नें सम्भाल कर एक पर्वत शिला पर अपनी चूनरी बिछा दी थीं .......श्रीराधारानी उस पर विराज गयीं ।
उद्धव आँखें बन्दकर , श्रीराधा के चरणों में बैठ गए थे ।
उद्धव ! प्रेममय परमात्मा का इस प्रेममयी सृष्टि में नित्य बिहार चल ही रहा है ..........वो मुझ में ही हैं ......और मैं उनमें ।
जैसे तुम ज्ञानी लोग "ब्रह्म ब्रह्म" करते , कहते रहते हो ना ..........पर उद्धव ! मैं तुमसे ही पूछती हूँ ......"ब्रह्म" का बाप कौन है ?
सजल नेत्रों से उद्धव नें श्रीराधारानी के मुखारविन्द की ओर देखा ।
मैं बताती हूँ आज..........अरुण मुखारविन्द हो गया था श्रीराधा का ।
"प्रेम है ब्रह्म का बाप".........प्रेम है ब्रह्म को पैदा करनें वाला ............
श्रीराधा के मुखारविंद से ये सुनकर उद्धव स्तब्ध से हो गए थे ।
क्यों उद्धव ! क्या ये सच बात नही है कि - ब्रह्म, प्रेम से ही उत्पन्न होता है.! ........ब्रह्म रूपी कार्य का कारण प्रेम ही तो है ।
परमभक्त प्रल्हाद नें खम्भे में से ब्रह्म को प्रकट किया था .....नही ?
अगर किया था तो प्रल्हाद के हृदय में उमड़ रहे प्रेम के अलावा और क्या कारण था ? बताओ उद्धव ?
इस सम्पूर्ण जगत में अगर किसी की सबसे ज्यादा महिमा है तो - वह है प्रेम .....प्रेम .....प्रेम.........इतना कहकर फिर हिलकियों से रोनें लगीं थी श्रीराधारानी ।
**************************************************
हाथ जोड़कर प्रार्थना करनें लगे थे उद्धव ।
हे स्वामिनी ! हे हरिप्रिये ! आप ऐसे उद्विग्न न हों .........
मैं एक बात आप से सच सच कह रहा हूँ ..............मैने कई बार एकान्त में श्रीकृष्ण को आपका नाम लेकर रोते हुए देखा है ...........आप को मैं सच कह रहा हूँ ......श्रीकृष्ण भी आपके वियोग में रोते रहते हैं .......
मेरा सौभाग्य है स्वामिनी ! कि श्रीकृष्णचन्द्र जू नें मुझे अपना सखा स्वीकार किया.........जिसके कारण मैं उनका अंतरंग हो गया था ।
तब मैने कई बार अनुभव किया है.........एक दिन तो .....सन्ध्या की वेला थी ........छत पर आसन बिछाकर बैठे थे श्रीकृष्ण .......एकांत में .......मैं बिना किसी आहट के उनके पास चला गया था.......तब मैने जो स्थिति उनकी देखी ........मैं उसे बता नही सकता .........हे मेरी स्वामिनी श्रीजी ! अश्रु धार बह चले थे श्याम सुन्दर के ......सुबुकते हुए आपका नाम लेरहे थे वे बारम्बार ।
मुझे देखा तो आँसू सब पोंछ लिये ........पर उस दिन वो मुझ से कुछ बोले नही ...........कुछ नही बोले ।
उद्धव बता रहे हैं श्रीराधारानी को .............
हे श्रीजी ! एक दिन रात्रि के समय मैं उन्हीं के कक्ष में सो गया था ....... मेरे सखा नें ही मुझे जिद्द करके सुला लिया था अपनें पास ।
उस रात्रि को भी मैने जो देखा .............वो सोच से परे था ।
उनका रुदन चल रहा था रात्रि में........मेरी नींद खुल गयी थी ......मैने देखा ......आँसू बह बह कर उनके वस्त्रों को गीला कर रहे थे ।
मैं कुछ समझ नही पाया कि ये क्या हो रहा है........मैं उठ गया.....
पर अब जो मैने देखा ..............लेटे हैं श्रीकृष्ण .........और उनके रोम रोम से "राधा राधा राधा" की ध्वनि आरही थी ।
बस रुक जाओ उद्धव ! आगे कुछ मत बोलना ।
श्रीराधारानी नें इशारे से उद्धव को रोक दिया ।
उद्धव - चकित और भय मिश्रीत भाव से देखते हैं.......मेरा ये सब कहना आपको अच्छा नही लगा ? उद्धव पूछते भी हैं श्रीराधारानी से ।
नही .....बिलकुल अच्छा नही लगा........उद्धव ! तुम अगर ये कहते कि .......कृष्ण तो तुमको भूल चुके हैं........वो तनिक भी याद नही करते .......दूर दूर तक तुम्हारा नाम भी उन्हें याद नही है.......
श्रीराधारानी विलक्षण बात कहती हैं यहाँ ............"राधा को वे भूल गए हैं... .....और मथुरा में सुखपूर्वक हैं".........ये बात अगर तुम कहते ना ...तो सच कहती हूँ उद्धव ! मैं बहुत प्रसन्न होती ........मुझे अच्छा लगता .........मुझे बहुत अच्छा लगता ..........पर ये तुमनें क्या कह दिया ? वो मुझ राधा को याद करके रोते हैं ? ओह ! उद्धव ! ये बात सही है ......तो फिर हमारा जीना व्यर्थ है ...........हमारा श्याम सुन्दर दुःखी है ? वो हमें याद करके रोता है ?
उद्धव ! हमारा हृदय फटा जा रहा है ये सुनकर .............ये सुनते हुए हमारे प्राण क्यों नही निकल रहे .........मेरा प्राणधन, मुझ निष्ठुरा राधा का नाम लेकर रोता है ? ओह !
उद्धव नें सोचा था कि ये बात कह दूँगा तो शायद श्रीराधारानी को अच्छा लगेगा.......पर यहाँ तो उलटा हो गया ।
ये कैसा विलक्षण प्रेम है ! ओह ! उद्धव ललिता सखी की ओर देखते हैं ........ललिता सखी श्रीराधा रानी को पँखा कर रही हैं ।
उद्धव से जल मंगवाया ललिता नें ....जल पिलाया श्रीराधारानी को.......अब कुछ होश आया था ।
************************************************
क्या सोचकर कहा था तुमनें उद्धव !
क्या सोचा था कि ..........तुम्हारे मुँह से श्याम सुन्दर के दुःख का वर्णन सुनकर राधा प्रसन्न होगी ? कृष्ण दुःखी है और यहाँ राधा खुश रहे ......ये क्या सोच लिया था तुमनें उद्धव !
श्रीराधारानी उद्धव को समझानें लगीं थीं ।
प्रेम को अभी तक तुम समझ ही नही पा रहे हो उद्धव !
अगर तुमनें प्रेम को जरा भी समझा होता ना ..........तो तुम इस तरह की बातें नही करते ................
प्रेम विलक्षण है उद्धव ! प्रेम में प्रियतम के सुख की कामना ही मुख्य है......वो सुखी है तो हम भी सुखी हैं.....यही प्रेम का सिद्धान्त है ।
उद्धव ! हम चाहें कैसे भी रहें .......पर हमारा प्रिय प्रसन्न रहे ।
हमारे आँखों में आँसू चलेंगें .......पर उनके अधरों पे मुस्कान होनी चाहिये । ये प्रेम है ।
पर उद्धव ! तुमनें जो बात अभी कही ना .........ऐसी बातें प्रेमियों के सामनें न करना.......मैं तो कठोर हृदय की स्वामिनी हूँ ........इतना सुनकर भी मेरे प्राण नही निकलते .........पर अन्य किसी प्रेमी के आगे ये सब मत कहना.........कहीं वो प्रेमीन प्राण ही न त्याग दे ।
सच्चे प्रेमियों को अपनें प्रियतम के सुख में स्वयं का सुख दिखाई देता है .....और जिसे प्रियतम के सुख में सुख दीखे......सच्चा प्रेमी वही है ।
पर उद्धव ! तुम्हारी बातें अभी भी हमारे हृदय में घूम रही हैं ..........
क्या सच में कृष्ण मेरे लिये रोते हैं ? क्या सच में कृष्ण रात रात भर नही सोते ? ......आह ! ललिते ! उद्धव ये क्या सुना रहा है ........मेरे कारण मेरे श्याम सुन्दर दुःखी हैं !........वो सोते भी नही हैं ।
मैं क्या करूँ अब ? ललिता ! तू तो मेरी सखी है .......बता ना ! मेरे प्राण नाथ दुःखी हैं ......मेरे कारण !
ये कहते हुए श्रीराधारानी फिर मूर्छित हो गयीं थीं ।
उद्धव की आँखें फ़टी की फ़टी रह गयीं.........
ओह ! कैसा दिव्य प्रेम ! प्रेम का रहस्य बता दिया श्रीराधारानी नें ।
मैने तो ये सब इसलिये कहा था कि......श्रीराधारानी को अच्छा लगेगा ये सुनकर कि......दुःखी श्रीराधा ही नही ....कृष्ण भी हैं ।
पर यहाँ तो ? उद्धव और गहरे डूबते जा रहे हैं इस प्रेम सागर में ।
अपनें सुख की कामना का पूर्ण त्याग.......प्रियतम के सुख में ही सुखी रहनें की वान्छा........श्रीराधारानी को अगर मैं कहता कृष्ण मथुरा में सुखी हैं........तो इनको आनन्द होता ?
ओह ! ये प्रेम का पन्थ तो समझ के परे है ।
हे वज्रनाभ ! उद्धव को पता भी नही चल रहा.......पर वो प्रेम सिन्धु में डूबते जा रहे हैं......गहरे गहरे और गहरे ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
0 Comments