आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 173 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
नित्य की तरह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, स्नानादि और सन्ध्या वन्दन पूर्ण करके मेरे दोनों बालक गुरुआश्रम जा चुके थे ।
मैने उन्हें देखा ..........वो अभी भी तनाव में थे ...........उन्हें अभी तक इस बात का दुःख था कि ........"माँ का हृदय हमनें दुखाया है"।
मैं उन्हें जाते हुए देखती रही.......जब चले गए तब कुटिया में आकर फिर भोजन बनानें लग गयी थी ।
पर कुछ समय बाद ही मेरे बालकों की आवाज आयी .......मैं चौंकी .....इतनी जल्दी कैसे आगये ये बालक .............वो दूर से ही मुझे पुकारते हुये आरहे थे ।
माँ ! माँ ! माँ !
क्या बात है ? क्यों इतनें उत्साहित हो ?
मैनें लव से ही पूछा .......फिर कुश की ओर देखा ।
माँ ! हम कल अयोध्या जा रहे हैं । लव नें मुझे कहा ।
क्या ! पर क्यों ? किसनें कहा तुमसे ?
मैने बहुत सारे प्रश्न कर दिए थे ।
माँ ! हमारे गुरुदेव नें हमें आज्ञा दी है ......कि हम अयोध्या जाएँ ।
कुश बता ही रहा था कि ........महर्षि मुझे कुटिया के बाहर ही खड़े दिखाई दिए ......मैं उठी.......आइये महर्षि ! मैने उनको कुटिया में आसन दिया ............।
महर्षि ! ये बालक क्या कह रहे हैं ........ये अयोध्या जा रहे हैं ?
हाँ पुत्री वैदेही ! ये अयोध्या जा रहे हैं । महर्षि नें कहा ।
पर क्यों ? क्यों जा रहे हैं ?
आकाश की शून्यता में दृष्टि टिका दी थी महर्षि नें .........
पुत्री सीता ! मैनें जो रूपरेखा तैयार की थी.........तुम्हे वापस अयोध्या की साम्राज्ञी बनानें की.........और तुम्हारे बालकों को युवराज .....वो समय अब आगया है.....।
मैने रामायण महाकाव्य लिखा .....जानती हो पुत्री सीता ! ये रामायण महाकाव्य मैने तुम्हारी पवित्रता सिद्ध करनें के लिये ही लिखा है ।
और मैं तुम्हे जब जब देखता.....तब मुझे जनकपुर की वो प्यारी जानकी याद आती..........मुझे याद आता जब हम और तुम्हारे पिता विदेह जनकपुर में बैठकर आत्मज्ञान की चर्चा करते .......तब तुम वहाँ घूमती रहतीं........मैं तुम्हे देखता था .....तब मैं कहता भी था - ये कन्या महालक्ष्मी के गुणों से युक्त है ...।
तब विदेह अपनी गोद में ले लेते थे तुम्हे .......ये मेरी लाड़ली पुत्री ....मेरी प्राण "वैदेही" है ।
पर तुम्हे जब मैने ऐसी स्थिति में देखा पुत्री ! .... रो गए थे महर्षि ।
तब से मैने सोच लिया था कि तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है ........बहुत बड़ा अन्याय हुआ है ..........पर कैसे सिद्ध करूँ मैं कि मेरी पुत्री पवित्र है .......मनुज, देव गन्धर्व ऋषि सब देखें .......कि मेरी पुत्री पवित्र है .....पवित्र ही नही ........पवित्रतम है .......।
कुछ देर रुके थे इतना बोलकर .........फिर शान्त भाव से आगे बोले -
मैने रामायण महाकाव्य में अपनी ऊर्जा लगानी शुरू की...........और मैने विचार कर लिया था कि ...........इस रामायण काव्य को तुम्हारे ही पुत्र गायेंगें .........और राजाराम के सन्मुख गायेंगें .....और ऐसे अवसर पर गायेंगें जब सम्पूर्ण अयोध्या की प्रजा भी हो ........ऋषि मुनि भी हों ......देवता सिद्ध गन्धर्व भी हों ।
पुत्री ! मैं जिस दिन की प्रतीक्षा कर रहा था........आज वही दिन आगया है........"अश्वमेध यज्ञ" कर रहे हैं राजाराम .......यज्ञ की पूर्णाहुति होरही है.......और यही समय उचित है .....क्यों की विश्व् का श्रेष्ठ पुरुष इस समय अयोध्या में होगा ......समस्त ऋषि मुनि अयोध्या में ही होंगें ........देवता गन्धर्व इन सबकी भी उपस्थिति अयोध्या में होगी ।
पुत्री ! इन क्षत्रिय बालकों को संगीत की शिक्षा मैने इसीलिए दी थी ताकि ये गायें "रामायण महाकाव्य" को .......सबको सुनाएँ ..इसमें मैने सम्पूर्ण तुम्हारे ही चरित्र को उकेरा है ...और तुम्हारे साथ कितना बड़ा अन्याय हुआ ये सब मैने लिखा है ........सब सुनेंगें ........क्यों की तुम्हारे ये पुत्र बहुत सुन्दर गाते हैं ।
गुरुदेव ! हम इस धनुष को लेकर जाएंगे साथ में .........भैया कुश ! तलवार भी ले चलें ? लव नें पूछा ।
नही .........अस्त्र शस्त्र नही ले जाओगे तुम लोग........महर्षि नें दो टूक कह दिया था ...........।
गुरु मना कर दें.....तो श्रद्धालु शिष्य फिर प्रतिप्रश्न करता भी कहाँ है !
कुश लव सिर झुकाकर खड़े रहे .........।
वत्स ! एक बार और सुनो - तुम्हे कल ब्रह्ममुहूर्त में ही अयोध्या के लिये प्रस्थान करना है .........महर्षि नें आदेश दिया ।
इनके साथ कौन जाएगा ? मेरा वात्सल्य पूछ रहा था ।
कोई नही ............ये दोनों अकेले जायेंगे ......महर्षि नें कहा ।
और कोई शस्त्र नही ........मात्र एक एक वीणा .....और जल पान करनें के लिये कमण्डलु ............फल फूल मार्ग में वृक्षों से तुम्हे प्राप्त होते रहेंगे .........और अयोध्या में जाकर तुम्हे आनन्द से .....रामायण का गान करना है ...........याद रहे वत्स ! तुम्हे अपनें काव्य से अयोध्या का हृदय जीतना है .........ये कहते हुये महर्षि का मुखमण्डल सूर्य के समान तेज़पूर्ण हो गया था ।
वत्स ! अयोध्या में तुम्हे कोई भी ....कुछ भी उपहार दे .....उसे स्वीकार नही करना .......और राजाराम के सामनें तुम्हे अपनें गायन की श्रेष्ठतम प्रस्तुति देनी है .......यही तुम्हारा लक्ष्य है ।
लव के मस्तक में हाथ रखते हुये महर्षि नें कहा........राजाराम की सेना को जैसे तुम दोनों नें शस्त्रों से जीत लिया था .....ऐसे ही वत्स ! तुम्हे इस बार अपनी कला से.....अपनें गायन् से.....उनका हृदय जीतना है ।
"काव्य से रस की सृष्टि होती है .....काव्य हृदय को झकझोरता है "
इतना कहकर महर्षि चले गए थे ।
........ब्रह्ममुहूर्त में जाना है कल इन्हें अयोध्या .........कभी इन्होंनें नगर देखा ही नही है ......मेरी ममता उमड़ रही थी ।
मैं देखती रही अपनें बालकों को ........अपनें पिता के पास जा रहे हैं ये ।
पुत्र ! अयोध्या में किसी का अपमान मत करना ........पुत्र ! अयोध्या में सब तुम्हारे सम्मानित हैं ........और श्रीराजाराम को साष्टांग प्रणाम करना............मैं इतना ही बोल पाई थी ।
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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