"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 89

आज  के  विचार

( बरसानें के ब्रह्माचल पर्वत से...)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 89 !! 

***************************

आहा !  मैं आल्हादिनी के पावन धाम में खड़ा हूँ ..........

हाँ  मुझे कहते हुए गर्व हो रहा है  कि ....मैं प्रेम नगरी बरसानें में हूँ  ।

उद्धव  बरसानें के पर्वत में खड़े....झूम रहे थे....उनके साथ  ललिता सखी भी थीं.....यही लेकर  निकलीं थीं  आज उद्धव को बृज दर्शन करानें ।

***************************

ब्रह्माचल पर्वत पर ही स्थित है  श्री बरसाना धाम.......हे  वज्रनाभ !  

तीर्थों का  दर्शन ,  तीर्थों में वास ......ये  पुण्य का फल होता है ........पर  "प्रेम नगरी"  का  दर्शन और वास  ये हमारे पुण्यों का फल नही होता ....ये तो  तभी  सम्भव है ......जब  आल्हादिनी की कृपा हो ..........

और वज्रनाभ !    उन आल्हादिनी की कृपा भी  तब प्राप्त होती है .......जब त्रिपुर भगवती प्रसन्न हों ..........हे वज्रनाभ ! पूर्व में  मैं तुम्हे  बता चुका हूँ कि ....ललिताम्बा  त्रिपुर सुन्दरी भगवती हैं .......और  यही त्रिपुर भगवती  इन आल्हादिनी  श्रीराधारानी की सेवा में नित्य निरन्तर लगी रहती हैं .ललिता सखी इनका नाम है.......इसलिये  आल्हादिनी की कृपा चाहिये  तो उनकी जो ये सहचरी हैं ......इनको प्रसन्न करो .......ये रहस्य है  वज्रनाभ !  

महर्षि !   मुझे  उस रहस्य को जानना है .....मुझे भी आल्हादिनी की कृपा प्राप्त करके ......निकुञ्ज भावापन्न होना है .....और   उन "प्रेम लोक"... कुञ्ज, निकुञ्ज , नित्य निकुञ्ज, निभृत निकुञ्ज ...........इनका दर्शन करना है .........मुझे पता है  महर्षि !  पुरुष के अहंकार  का इन "प्रेम लोक" में प्रवेश नही है......वहाँ तो  प्रेम से  सिक्त  सखी भाव का ही प्रवेश है .......ये अत्यन्त रहस्यपूर्ण है ...........मुझे जानना है  .......वज्रनाभ नें  जिज्ञासा रखी  महर्षि शाण्डिल्य के सामनें   ।

हे वज्रनाभ !    प्रसंग आनें दो ...........प्रेम देवता  स्वयं ही  उस रहस्य से पर्दा  उठाएंगे........इतना  कहकर    फिर  उद्धव प्रसंग को ही आगे बढ़ाया   महर्षि शाण्डिल्य नें    ।

**************************************************

देव गुरु की  कृपा से  मैं  स्वर्ग में भी घूमा हूँ ......और  सत्य लोक में भी गया हूँ ......

पर मैं  सच कह रहा हूँ   ललिते !    जो सुख , जो सुन्दरता यहाँ है  वह किसी भी लोक में नही है.........

उद्धव  ब्रह्माचल पर्वत पर खड़े हैं.....और  चारों ओर देख रहे हैं  ।

ललिता सखी  बता रही हैं  -  उद्धव !      वो है नन्दगाँव ............

वहाँ  से बाँसुरी बजाते थे  श्याम सुन्दर ..........और  श्रीराधारानी यहाँ से  सुनकर दौड़ पड़ती थीं ................

उद्धव !    क्या बतावें  हम..........एक दिन   बाँसुरी बजा रहे थे  श्याम सुन्दर ........तभी  इधर बरसानें से  हवा चली ..........बाँसुरी बजाते हुये  श्याम को उस हवा नें छू लिया था .......हवा  ऐसे ही नही बही थी ........हमारी स्वामिनी श्रीराधा सुकुमारी  के अंग को छूकर गयी थी ........प्यारी के  अंग की सुगन्ध  श्याम को जब मिली .....वो मूर्छित हो गए थे......उद्धव !  हमारी लाडिली  और हम  सब  जब वहाँ गयीं  तो  चकित हो गयीं  .........श्याम सुन्दर मूर्छित थे .......उनके रोम रोम से  "राधा राधा राधा" प्रकट हो रहा था.........लाडिली  दुःखी हो गयीं  अपनें प्राण प्यारे की यह दशा देखकर.........वो मेरी ओर देखनें लगीं थीं.......मैं क्या करती .......पर उद्धव ! मेरे मन में  एक विचार आया  तत्क्षण ..........मैने  लाडिली  की  चूनर  ली,   और श्याम सुन्दर को  पँखा करनें लगी......

 बस ......उसी क्षण श्याम सुन्दर उठ गए थे.......वो  अपनें सामनें  अपनी प्रिया को पाकर बहुत प्रसन्न थे ..........दोनों गले मिले   .........आहा !       कितना अद्भुत प्रेम !      ललिता सखी नें  अपनी आँखें बन्द कर ली थीं .......पर उनके  आँखों की कोर से अश्रु बह ही  रहे थे  ।

आहा !   शीतल हवा  बरसानें की !

........मेरे देह को जब छू रही थी .......तब मुझे  रोमांच होता था ........

"उद्धव" का अर्थ क्या होता है ?    उन गौरांगी ललिता सखी नें पूछा ।

पता नही  मेरे नाम का अर्थ क्यों जानना चाहती थीं  ललिता सखी ........

अब पूछा था मुझ से .......तो उत्तर देना ही पड़ा.........

"उद"  कहते हैं .....विशेष को .......विशिष्ठ को ........और हे ललिते !  "धव" कहते हैं    पति को.........यानि ?  ललिता नें पूछा ।

विशेष यानि ईश्वर .....विशिष्ठ यानि परमात्मा .........परमात्मा जिसका पति हो .............उसे उद्धव कहते हैं .........उद्धव  नें  ये क्या अर्थ कर दिया था अपनें नाम का ...........स्वयं उद्धव भी  समझ नही पाये ।

हँसी  ललिता सखी.......उनकी वो खिलखिलाती हँसी  ।

यानि उद्धव !  तुम भी सखी हो ...........हँसते हुये ही बोलीं थी ललिता  ।

" विशेष पुरुष" जिसका पति हो........उसका नाम  उद्धव है ।

अब गम्भीर हो गयी थीं ललिता सखी .............

उद्धव !   बिना अपनें  हृदय में  उतरे.....उन परम पुरुष की प्राप्ति होती नही है । 

बुद्धि से   तर्क, विचार,    यही सब प्रकट होते हैं......पर  प्रेम रूपी परमात्मा का साक्षात्कार तो  हृदय के भाव से ही होता है.......शान्ति, विश्राम, आनन्द   हृदय से ही फूटते हैं........

आहा !  कितना  सुन्दर  दर्शन,   भाव भक्ति और प्रेम का ........उद्धव आनन्दित हो रहे हैं    ।

उद्धव !       वो है  गिरिराज गोवर्धन .........दर्शन करो  !  

उद्धव दर्शन करते हैं..........इसको धारण किया था  श्याम सुन्दर नें  ।

सात दिन तक     धारण किया   ।

सब  दुःखी हो रहे थे........ऊपर से देवराज नें  कर दी थी वर्षा  घनघोर......और  इधर  छोड़ा सा श्याम सुन्दर  अपनी ऊँगली में  गिरिराज को धारण किया हुआ  ।

मैया यशोदा तो मूर्छित ही हो गयीं थीं .........

ग्वाल बाल भी   परेशान दिखाई दिए थे उस समय ........पर  ये  युगलवर  दोनों ही बड़े प्रसन्न थे.........एक दूसरे को अपलक देखे  जा रहे थे .......हँसी  ललिता सखी ये कहते हुए फिर   ।

पर  सात दिन  जब बीत गए ना......वर्षा बन्द होगयी  ........तब    हमारी  श्रीराधा रानी नें बड़े प्रेम से श्याम सुन्दर  को  अपनें हृदय से लगाते हुए कहा था.......कोई बड़ा काम नही किया है  तुमनें प्यारे !       एक गिरिराज पर्वत को ही तो   उठाया है ........पर मैने ?     

श्रीराधारानी नें  अपनी प्रेम की  ठसक में कहा था  -

हे श्याम  !     मैने तो  तुम्हे और तुम्हारे गिरिराज पर्वत सहित ...........अपनें नयनों के कोर में उठाया ..........

अब तुम्हीं बताओ -  कनिष्टिका ऊँगली  में पर्वत को उठाना बड़ी बात  या  उठानें वाले के  सहित पर्वत भी,   आँखों की कोर पर उठाना ?

ललिता सखी ये बताते हुए  भावावेश में थी   ।

उद्धव आनन्दित हुये .........ललिता सखी को  बारबार कहा .......कि   मेरी अब एक ही  इच्छा  है  .........हे ललिते !     कि  कहीं न जाऊँ ..........बस यही  जीवन पर्यन्त  बृजवास करूँ  ।

पर  मुझे जाना पड़ेगा मथुरा........मैं जाऊँगा  ...उद्धव नें कहा  ।

क्यों ?  क्यों जाओगेँ  उद्धव !       

ललिते !  इसलिये जाऊँगा    कि मैं "उन्हें"  यहाँ  ला सकूँ  .......और इस बृज  का दुःख दूर कर सकूँ .......मैं श्याम सुन्दर को यहाँ वापस लाऊँगा ......मेरा वचन है   आपसे  ।

"नही उद्धव !  नही .......उन्हें मत कहना यहाँ आनें के लिये"

उद्धव और ललितासखी नें पीछे मुड़कर देखा था ............

सामनें से आरही थीं   श्रीराधा रानी ...........वहीं कह रही थीं  .....

"नही उद्धव !    उन्हें मत कहना यहाँ आने के लिये"

शेष चरित्र कल -

Harisharan

Post a Comment

0 Comments