"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 91

*आज के विचार*

*( उद्धव गीत )*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 91 !!*

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कितनी विचित्र घटना घट गयी थी ना  वज्रनाभ ! 

जो देवगुरु का शिष्य , महान बुद्धिमान,  ज्ञानी....ऐसा उद्धव .......आज  प्रेम के अथाह जल में डूब गया था........पूरे  छ महिनें  तक  बृज की लता पताओं  से लिपट लिपट कर रोते रहे .......श्रीराधारानी के चरण धूल को अपनें माथे में तिलक के रूप  में धारण करते रहे .............

"राधा राधा राधा"    कहते हुए  कभी गिरिराज पर्वत में........कभी  बरसानें के कुञ्जों में .........कभी वृन्दावन के  सघन वन में ..........वो नाचते .....वो गाते ........हाँ   प्रेम के गीत सहज प्रकट हो रहे थे उद्धव के मुख से.......हे वज्रनाभ !   उस दिन मैने  भी देखा और सुना  था ........

मैं अपनी कुटिया में बैठा  ध्यान  कर रहा था  कि ......मेरा ध्यान एकाएक टूट गया  मैने देखा  -........उद्धव   यमुना स्नान करते हुये   प्रेम -उन्माद की स्थिति में पहुँच गए थे.......मैने  स्वयं देखा ........नीलारँग   अब  उन्मादी बना रहा था  उद्धव को .......हर नीले रँग में  उन्हें  अपना श्रीकृष्ण ही   दिखाई दे रहा था........

 मैने  देखा  वज्रनाभ !     उद्धव  देह भान भूल चुके थे उस दिन .......

वो  गीत गा रहे थे....

....उनका कण्ठ अत्यधिक प्रेम के कारण रुंध गया था  ।

मैने भी उस दिन सुना  "उद्धव गीत" को ...........एक ज्ञानी को  पागल प्रेमी बना डाला,   इस वृन्दावन की  पागल भूमि नें .......उफ़ !   वो गीत !    वो  उद्धव द्वारा गाया गया  गीत ..........

महर्षि शाण्डिल्य नें   वज्रनाभ को  वह गीत  सुनाया ......जो उद्धव नें गाया था ...............

हे वज्रनाभ !   प्रेम जब बढ़ जाता है ........तब गीत प्रकट होते हैं  ।

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ओह !   मेरे युगल की लीला भूमि !

कितनी मनोहारिणी है ये  ।

साक्षात् मन्मथ-मन्मथ  की क्रीड़ा भूमि जो है  ,

दर्शन मात्र से मन प्राणों से , एकाकार हो जाती है ।

आकाश "उनकी" अंगकान्ति जैसी ही श्यामलता से आच्छादित है ,

और धरती  !   धरती  भी तो  रोमांच का अनुभव कर रही हैं .......

क्यों न करे  ? 

     बिना पादत्राण के  चले हैं  यहाँ  वे .......उन्हीं  कोमल चरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए ......धरती को रोमांच हो रहा है ।

बीच बीच में  मतवारे  मयूर कुहुक उठते हैं  !

सम्पूर्ण वृन्दावन मुखरित हो उठता है  उनके मादक रव से  ।

और उस समय हृदय हठात् पुकार उठता है -

जय हो प्यारे ! 

मैं धन्य हो गयी  .........हो गयी  ?     

क्या मैं पुरुष नही  ?    क्या मैं गोपी   ?   

प्रेम में   बिना गोपी बने  .........प्रेम पूर्ण होगा कैसे ?    

"पुरुष तो एक मात्र कृष्ण है".......ये  रहस्य भी यहीं उजागर होता है  ।

जय हो  मेरे प्यारे की  !  

मैं धन्य हो गयी  ...........

क्यों की मैं तुम्हारे लीला निकेत में हूँ   ।

पर  तुम दीखे नही  !     क्यों ?        

आखिर कब तक  छुपोगे  ?

  कब तक चलेगी ये आँखमिचौनी ?

  देखना !    मैं तुम्हे    ढूंढ कर ही  रहूँगी  ।

मेरे मन   अधीर मत हो .......वे यहीं कहीं होंगें   ।

आहा !    ये श्रीधाम वृन्दावन है .........

देखो देखो !  ये  श्रीधाम वृन्दावन है.........यहाँ प्रतिक्षण, नवीन नवीन  प्रेम  लीलाएं  अनुष्ठान के रूप में   की जाती हैं  ............

यहाँ हरियाली जो दीख रही है ना.....यही तो है   गौर श्याम का मिलन !

यह वृन्दावन की हरियाली.........हरा रँग .......उफ़ !   मानों पीला और काला रँग मिल गया हो........पीत रँग  श्रीराधा रानी का ......और काला रँग  श्रीकृष्ण का.......तो दोनों रँग को मिला दो.......हो जाता है   हरा !       ये  हरियाली  "युगल" के मिलन का प्रमाण  है  ।

यहाँ की वायु में भी   उन "नील पीत" दुकुलों की  सुवास....

  उफ़  !      मदहोश कर देती है    ।

और ये वृक्ष ?   ओह  !   ये वृक्ष तो सबसे बड़े  "रसरहस्य मर्मज्ञ"  हैं ...

पर  अपनें में ही   उन "रासरहस्यों" को  छुपाये .....ऋषि मुनियों की भाँती  मौन खड़े रहते हैं  ये  ..........

यहाँ की पग पग भूमि पर  अनेक लीलाओं  के रहस्यमय पीठ हैं  ।

यहाँ का प्रत्येक कण  प्रेम से सिंचित है   ।

और यहाँ की कुंजें  !       

मैं  यहाँ की गोपी  बनूँ !..........पर  नही .......मेरे इतनें सौभाग्य कहाँ ?

मैं यहाँ का  गौ बनूँ  !..........नही .........मेरे इतनें भाग्य कहाँ   ?

मैं यहाँ का पर्वत बनूँ !..........नही .......मेरे  में इतना सामर्थ्य कहाँ  ?  

(  रो गए उद्धव  ये गाते गाते  )

मैं  लता बनूँ ...या..... बृज की रज का कण बनूँ.......

कण  क्यों ?     

क्यों की  ये महाभागा गोपियाँ ,   मेरी सदगुरु श्रीराधिका जू ,   जब  चलेंगीं  तब उनके  चरण  मेरे ऊपर पड़ेंगे........मैं धन्य धन्य हो जाऊँगा......

इसलिये  क्या  मैं रज कण बन सकता हूँ ?

.......क्या  मुझ पर ऐसी कृपा होगी   ?

धरती में  गिर पड़ते हैं उद्धव.......और   उनके अश्रु से  वृन्दावन की  भूमि  भींग जाती है........मैं बृज रज बनूँ   !   मैं बृज रज बनूँ  !    

उफ़  !   क्या अभिलाषा है  !     प्रियतम के  कुञ्ज का  धूल बनूँ   ।

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हे वज्रनाभ !      उद्धव  रज बनना चाहते हैं...........वृन्दावन की धूल बनना चाहते हैं ..........अपनें प्यारे की धरती  का   धूल ..........

प्रेमियों की इच्छाएं भी  विचित्र विचित्र होती हैं   .................

उद्धव का ये गाया गया गीत   प्रेम की गहराई को छूता है   ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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