वैदेही की आत्मकथा - भाग 153

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 153 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

अब क्या इच्छा है  प्रिये !   मेरे अधरों को चूमते हुये  मेरे "प्राण" बोले थे ।

मेरा हृदय धड़क रहा था.......मेरी साँसें  उन्मुक्त चल रही थीं .........

नाथ !   ये जो  आपके पुत्र होंगें ना....इनका जन्म अगर वन में हो तो ! .......नाथ !   रजोगुणी वातावरण की अपेक्षा  अगर ऋषि मुनियों के साथ  पूर्ण सात्विक वन में   इनका जन्म हो तो  ! 

मेरी बात सुनकर  गम्भीर हो गए थे मेरे श्रीराम ..............पर मैने उन्हें फिर अपनें बाहु पाश में भर लिया ..................

अपनी अर्धांगिनी की भावना  का  ध्यान तो रखना ही चाहिये ना ! 

मेरे केश के लटों से खेलनें लगे थे  फिर मेरे प्राणनाथ  ।

हम दोनों एक हो रहे थे ..........हम एक ही हैं ..........बस लीला बिहारी की लीला  को कौन जान सकता है ............अब  देह भी एक ही अनुभव करनें लगा था.....सारे द्वैत के भेद मिट गए  थे  ।

अब सीता , राम से भिन्न नही थी.......उस अभिन्नता में   मैं पुकार उठी  थी अपनें  श्रीराम को.....पर  श्रीराम को कौन पुकार रही थी...?  सीता तो मिट चुकी है आज,    अपनें प्राणनाथ  श्रीराम के बाहु पाश में   !         

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उस दिन  मध्यान्ह के बाद   आयी थी  उर्मिला ...............मेरा हाथ पकड़ कर बोली .......मैने अन्तःपुर में एक उद्यान का निर्माण किया है .......जीजी !  आपको चलना पड़ेगा  ।

तभी राजसभा  से  मेरे श्रीराम भी आगये .............मैं दौड़ी ,  उनके लिये  राजभोग   लगाना था ........उर्मिला नें भी आगे बढ़कर भोजन कराया .........मेरे श्रीराम  कुछ देर के लिये शयन करनें चले गए थे ।

जीजी !  मना मत करना......आपको और  आर्य को   मेरा उद्यान देखना ही पड़ेगा.....मैं भोजन कर रही थी ....तब बड़ी जिद्द करनें लगी उर्मिला ।

 अच्छा !  अच्छा !    ठीक है ...........पर  तू पहले आर्यपुत्र से तो आज्ञा ले ले  छोटी !   

क्या कह रही हैं  उर्मिला !       नींद थोड़े ही ली जाती है  दोपहर में .....बस  कुछ समय  लेट जाते हैं   ............बात सुनी तो मेरे आर्यपुत्र श्रीराम उठ गए थे  ।

ये कह रही है    कि एक उद्यान बनाया  है इसनें ..............आर्य !  ये चाहती है कि  हम  उस उद्यान को एक बार देख लें  ।

तो हो आओ ना  वैदेही !     मेरे श्रीराम नें मुस्कुराते हुए कहा ।

नही  ये चाहती है कि  आप भी  !   ........मैने उर्मिला की ओर देखते हुए कहा ..........है ना उर्मिला !     उसनें  'हाँ"  में सिर हिलाया  ।

तो चलो !      कुछ देर वहीं बैठते हैं .........उर्मिला नें कैसा उद्यान बनाया है  हम भी  तो देखें .........मेरे प्राणनाथ मेरा हाथ पकड़ कर चल दिए थे .........मैं  उन्हें देखती - उनके पीछे  चली ........ऐसा  आज तक कभी किया नही ।

मेरा मन नाच उठा था   ।

उर्मिला  भागी  पहले ......जो जो  उद्यान में था  उसे वहाँ से हटा दिया ।

और दुष्ट !  उर्मिला भी चली गयी.........मैं हँसी मन ही मन  ।

आहा !  कितना सुन्दर उद्यान था.......उस उद्यान में   कुञ्ज भी बने हुये थे .......उस कुञ्ज में  फूलों की  सेज भी थी........उद्यान में   सरोवर भी था ........उस सरोवर के मध्य में   फुब्बारे चल रहे थे ।

मैं नाच उठी थी ........नाथ !   कितना सुन्दर  उद्यान है ।

पर तुम्हारे जनकपुर जैसा नही है ........इतना कहकर  मेरी आँखों में देखा था ..........मेरे हाथ को  चूमा ।......वहाँ बैठें   ?  मुझे  इशारे में कहा  ।  सामनें  सरोवर था  उसमें  हंस  खेल रहे थे  ।

पास में ही  एक  कुञ्ज था ..........उस कुञ्ज  की दीवारों पर   चित्रकारी की गयी थी......फूलों के रँग से.............

उस कुञ्ज में मुझे लेकर गए  मेरे प्रीतम .................

फूलों  का  ढ़ेर रखा था वहाँ........हँसते हुये  उन फूलों को मेरे ऊपर  डालनें लगे थे........एक  गुलाब की पंखुड़ी  मेरे होठों से लग गयी  ........"इस पंखुड़ी से कोमल तो तुम्हारे अधर हैं   वैदेही"

मैं   अपनें "प्राण" के हृदय से लग गयी थी......वो मेरे केश से खेलनें लगे थे.....मेरे  केश को उलझा देते  फिर सुलझानें बैठ जाते .....

उर्मिला दुष्ट है ........उसनें  अबीर भी रख दिया था......उसनें गुलाब जल से भरी पिचकारी भी रख दी थी  ।

मेरे कपोल  में  अबीर   लगा दिया - मेरे प्रीतम नें  ।

छुईमुई की तरह सिकुड़ गयी थी .........मुझे अपनें हृदय से लगा लिया ..............हँसे  मेरे नाथ .........पिचकारी  से मुझे ........मैं मना करती रही ........पर  मेरे ऊपर पिचकारी का सारा रँग  डाल दिया ।

मैं तो लाज के मारे  उन्हीं के हृदय से लग गयी .......उन्हीं की भीगी पीताम्बरी में अपनें मुँह को छुपा लिया  ।

मोर नाचनें लगे थे .........कोयल  बोल उठी थी ............हंस और हंसिनी का जोड़ा  उन्मुक्त विहार करनें लगा था ।

तोता - मैना  चीख चीख कर हमारे इस "सुरत केलि" को  बता रहे थे ।

मेरे अधरों पर  उनके अधर जब पड़े ............वीणा झंकृत हो उठी ।

मेरी करधनी  बज उठी ...........मेरे पाँव के पायल   बोल उठे  ।

हम एक हो गए .......द्वैत समाप्त हो गया था........कौन वैदेही  और कौन राम ?     राम  वैदेही  थे    और  वैदेही  राम   ।

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आर्य !      मैं बहुत देर के  बाद बोली थी ...............

हाँ वैदेही  !         मेरे अरुण कपोल को  छूते हुये  बोले   ।

मैं  अपनें पुत्रों को वन में जन्म दूंगी ...........आर्य !   उस  सात्विक वातावरण में  !     जहाँ   ऋषि मुनि  रहते हैं ........जहाँ की ऊर्जा पूर्ण आध्यात्मिक है ........वहाँ  !   

कितनें दिव्य होंगें आपके पुत्र ........आर्य !         

इस बात का कोई उत्तर नही दिया था मेरे  श्रीराम नें .......हाँ  शून्य में तांकनें लग गए  थे.........नेत्र सजल हो उठे  थे  मेरी बातें सुनकर ।

फिर मुझे अपनें प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया  था   ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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