( शाश्वत की कहानियाँ )
!! श्रीरामानुजाचार्य चरित्र - भाग 7 !!
फलसङ्गादिना कर्म कुर्वाणाः कृपणाः संसारिणो भवेयुः ..
( श्री रामानुज गीता भाष्य )
( साधकों ! मुझ से कल किसी नें पूछा था ..........सबीज मन्त्र और निर्बीज मन्त्र क्या होता है ?
शाश्वत नें इसके सम्बन्ध में बहुत अच्छी बात लिखी है .........
" आज कल जो मन्त्र दीक्षा दी जाती है ......उसे मै कैसे दीक्षा कह दूँ !
पढ़कर, सुनकर, आपनें मन्त्र किसी को दे दिया .........वह मन्त्र निर्बीज है .....उस मन्त्र के जाप से कोई लाभ आपको नही मिलेगा ।
शाश्वत लिखता है ..........आपको जो मन्त्र दिया गया है ......उसमें प्राण हैं या नही ? वो मन्त्र सबीज है या निर्बीज ?
याद रहे .............सबीज मन्त्र ही आपको लाभ देगा .....निर्बीज मन्त्र से आपको कुछ भी लाभ नही होगा ।
मन्त्र में शक्ति तभी आती है .....मन्त्र सबीज तभी होता है ........जब वह मन्त्र या तो आपको परम्परा से प्राप्त हो ..............जैसे आपको जो मन्त्र दे रहे हैं .........उनके गुरु जी नें उस मन्त्र को लाखों बार जपा हो .....और उनके गुरु जी नें भी ........गुरु के गुरु नें भी .........इस तरह से मन्त्र आपके कान में गया ......तब उस मन्त्र का आपको लाभ मिलेगा ।
वह मन्त्र ही सबीज कहलायेगा ...............।
या आपनें मन्त्र गुरु परम्परा से प्राप्त नही किया .............पर आप उस मन्त्र को दूसरों को दे रहे हैं .....तो इस बात को मत भूलिए .......वो मन्त्र निर्बीज है .......उसमें कोई शक्ति नही है ।
आप अगर फिर पूछेंगे कि क्या उस निर्बीज मन्त्र में भी शक्ति आ सकती है .....?
हाँ आसकती है ........बिलकुल आसकती है ...........भले ही आपको परम्परा से मन्त्र नही मिला .........पर आप उसे सबीज बना सकते हैं ......मन्त्र का अनुष्ठान करके .............मन्त्र को अगर आप सवा करोड़ बार जाप करते हैं ......तब मन्त्र सबीज होता है ।
पर गुरु परम्परा से प्राप्त अगर मन्त्र है ......तब वह सबीज ही होता है ....पहली बार उनका उच्चारण करते ही या कान से सुनते ही उसका लाभ शुरू हो जाता है ।
इसलिये गुरूपरम्परा से प्राप्त ही मन्त्र लिया जाना चाहिये .....ताकि हमारी ऊर्जा मन्त्र को सबीज करनें में ही व्यय न हो जाए ......।
मात्र बीज का ही महत्व नही होता ........महत्व तो बीज जिसमें डाला जा रहा है .....उस खेत का भी होता है .............कहीं खेत ऊसर तो नही है ........कहीं खेत बंजर तो नही है ........अनेक जन्मों के पाप से हमारे हृदय का खेत बंजर तो नही हो गया ?
और खेत भी अच्छा है .........बीज भी अच्छी है ........पर उसकी देख रेख अगर ठीक ढंग से न हो........तो बीज सड़ भी जाता है .....।
ऐसे ही मन्त्र को जाग्रत करनें के लिए ....उसका सही परिणाम पानें के लिये .....मन्त्र सबीज हो .....निर्बीज न हो......और हमारा हृदय उपजाऊ हो यानि शुद्ध हो.....इतना ही नही......देख रेख साधना के द्वारा हम करते रहें.....सही सन्तुलन....सही देख रेख ...।
साधकों ! कोई कोई मन्त्र इतना प्राणवान होता है .........और कान के माध्यम से जब हृदय में पहुँचता है .........अगर हृदय भी शुद्ध हो ....पवित्र हो ...........तब तो वह मन्त्र ही आपके हृदय में जाकर भगवतदर्शन भी करा सकता है ...............।
ये तो मेरे भी अनुभव की बात है.......शाश्वत इसी बात को कह रहा है ।
श्री रामानुजाचार्य जी के जीवन में एक घटना घटी ............इस घटना नें ही रामानुजाचार्य को "महाकरुणावान" घोषित किया ..........।
पढ़िये -
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कल से आगे का प्रसंग -
सन्यास ले लिया श्री रामानुजाचार्य जी नें ।
पर सन्यास लेनें के बाद .......श्री रंगम की ओर चल पड़े थे ।
श्री यामुनाचार्य जी के ही एक शिष्य थे..जिनका नाम था "गोष्ठीपूर्ण" जी ।
कांचीपूर्ण जी से सन्यास लिया....ये भी यामुनाचार्य जी के ही शिष्य थे ।
पर मन्त्र दीक्षा के लिए कांचीपूर्ण जी नें रामानुज से कहा .......आप श्री रंगम जाएँ.....वहाँ बड़े ही सिद्ध आचार्य हैं. गोष्ठीपूर्ण जी ।.....उनसे आप जाकर मन्त्र दीक्षा लीजिये.......पर वो देंगें नही.....वो देते नही हैं ..........पर ........प्रार्थना करना ........
कांचीपूर्ण जी नें रामानुज को यह कहकर भेज दिया था श्री रंगम में ।
हे भगवन् ! मुझे मन्त्र दीक्षा दीजिये !
धूप तेज़ थी ...........कावेरी नदी के तट पर रामानुजाचार्य जी को मिल गए थे गोष्ठीपूर्ण जी.........बस आनन्दित होकर, लेटकर उस तपती हुयी बालुका में.....दण्डवत किया था रामानुजाचार्य जी नें.......और तब तक नही उठे जब तक स्वयं गोष्ठी पूर्ण जी नें नही उठाया ।
हे भगवन् ! मुझे मन्त्र दीक्षा दीजिये .......प्रार्थना कर रहे थे रामानुज ।
गोष्ठीपूर्ण जी नें कहा .......वत्स ! अभी तो मै दर्शन करनें के लिए जा रहा हूँ भगवान श्री रंगनाथ के........तुम कल मिलो .......।
इतना कहकर वो चले गए ............
पर कहाँ मिलूं भगवन् ?
रामानुजाचार्य जी नें पूछा ।
यहीं , यहीं मिल लेना .......मै दिन में तीन बार कावेरी में स्नान करनें के लिए आता हूँ .....गोष्ठीपूर्ण जी नें इतना ही कहा और चले गए ।
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भगवन् ! आज मना मत कीजिये .............मुझे टालते टालते आज 18 दिन हो गए हैं ........नित्य मुझे आप यही कहते हैं .....कल मिलना .....परसों मिलना .......हे भगवन् ! मेरे अंदर की प्यास को और न बढाइये .........मुझे मन्त्र दीजिये ...........मुझे मन्त्र देकर कृतार्थ कीजिये नाथ ! रामानुज चरणों में गिर गए थे ...........और आज जिद्द ही करनें लगे ।
पर वत्स ! रामानुज ! ये मन्त्र तो बड़ा सिद्ध है ......क्या तुम सम्भाल पाओगे इसे ?
गोष्ठीपूर्ण जी रामानुज को समझा रहे थे ।
देखो ! शेरनी का दूध सुवर्ण के पात्र में ही दुहा जाता है ।
मेरे पास जो मन्त्र है ..............वो श्री लक्ष्मी नारायण भगवान की परम्परा से प्राप्त मन्त्र है .........क्या तुम्हारा पात्र उत्तम है ?
गोष्ठीपूर्ण जी कावेरी के किनारे रामानुज को उपदेश कर रहे थे ।
मन्त्र किसी को बताओगे तो नही ?
थोड़ी देर विचार करके गोष्ठीपूर्ण जी नें रामानुज से पूछा ।
रामानुज कुछ बोलते .........उससे पहले ही गोष्ठीपूर्ण जी नें कहा .....मन्त्र को जितना गुप्त रखोगे ..........मन्त्र उतना ही फल देगा ।
रामानुज शान्त भाव से सुनते रहे ।
किसी को मत बताना ...........अगर बताया ना रामानुज ! तो तुम्हे नर्क में जाना पड़ेगा ........अपराध होगा ये ।
रामानुज सुनते रहे ...............फिर बाद में यही बोले ..............भगवन् ! अब और मत तरसाइये ...........बस मुझे मन्त्र दीक्षा दे दें ।
ठीक है ........कल नरसिंह चतुर्दसी है .................कल मै तुम्हे मन्त्र दीक्षा दूँगा.......सुबह ही आजाना .........गोष्ठीपूर्ण जी ने कहा ।
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दीक्षा की सारी तैयारियां हो चुकी थीं ...............
रामानुज बैठे हैं .........रामानुज के सामनें सिद्ध आचार्य गोष्ठीपूर्ण जी बैठे हैं ।
पीला रेशमी वस्त्र ओढ़ाया अपनें शिष्य रामानुज को...गोष्ठीपूर्ण जी नें ।
और रामानुज के कान में...........मन्त्र देनें लगे ।
जब मन्त्र दे रहे थे रामानुज के कान में गोष्ठीपूर्ण जी ..........तब सभी आचार्य परिकर घण्टे और शंख बजानें लगे थे ............ताकि इन मन्त्र को कोई अनधिकारी न सुन ले ..........।
ओह ! पर ये क्या !
जैसे ही कान के माध्यम से मन्त्र हृदय में गया ...........तभी तंरगे आकार लेनें लगीं ...............और नीला आकार ...............चार भुजा .....उन चार भुजा में चक्र शंख गदा कमल .................।
मन्त्र के हृदय में जाते ही .............रामानुज के सामनें भगवान नारायण प्रकट हो गए ...............
ओह ! ये क्या हो गया !
रामानुज आनन्दित हो गए थे .................कुछ समय उसी अवस्था में ही बैठे रहे .................
गुरुदेव गोष्ठीपूर्ण जी चले गए थे मन्दिर में ।
तभी रामानुज उठे .........दिव्य तेज़ से भरा हुआ था उनका मुखमण्डल ......उठे ......और तेज़ चाल से मन्दिर के शिखर पर चढ़नें लगे .............लोग देख रहे हैं .......ये क्या !
रामानुज को क्या हुआ .......ये मन्दिर के शिखर पर क्यों चढ़ रहे हैं ।
एक दो लोगों नें आवाज भी दी.......रामानुज ! आप कहाँ जा रहे हो !
पर रामानुज दूसरे ही भाव लोक में विचर रहे थे ..........
चढ़ गए श्री रंगनाथ मन्दिर के शिखर पर रामानुज ......
और जो मन्त्र अभी गुरुदेव नें कान में फूँका था .........उसी मन्त्र को शिखर में खड़े होकर चिल्लाकर कहा ..................
......ताकि सब सुन लें ...........
"ॐ नमो नारायणाय"
बहत्तर लोगों नें सुना उस मन्त्र को ...............और जिन बहत्तर लोगों नें सुना ......वो सब परम सिद्ध हो गए ।
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रामानुज ! ए रामानुज !
क्रोध से भरे हुए थे गुरुदेव गोष्ठीपूर्ण जी ।
मैने तुझ से कहा था ना ........इस मन्त्र को गुप्त रखना ..........किसी को बताना मत ........नही तो अपराध होगा .......नर्क मिलेगा .........मैने कहा था ना ! फिर भी तुमनें ये सब किया ..........सनातन धर्म वैष्णव मत की मर्यादा तोड़ दी ! क्यों किया तुमनें ऐसा ?
क्रोध आना स्वाभाविक था गोष्ठीपूर्ण जी को ।
हाँ......मैने जानबूझ कर ये सब किया .............हाँ गुरुदेव ! मैने अपराध कियाहै ......पर मुझे अपराध का पछतावा नही है ...........मुझे नर्क मिलेगा ? हाँ मिले ..........मै नर्क में जाकर हजारों लाखों वर्षों तक भी रहनें को तैयार हूँ ......पर मैने जो किया उसका मुझे पछतावा नही है ।
स्पष्टता से रामानुज नें अपनें गुरुदेव से कहा था ।
पर क्यों किया ऐसा तुमनें रामानुज ?
गोष्ठीपूर्ण जी नें फिर जानना चाहा .......तुम बुद्धिमान हो .........विवेकवान हो ...........मेरे गुरुदेव आलवन्दार यामुनाचार्य जी तुम्हे अपना उत्तराधिकारी घोषित करना चाहते थे .....पर श्री रंगनाथ प्रभु की जैसी इच्छा ! पर आज मुझे ही देनी पडी तुम्हे मन्त्र दीक्षा ........पर तुमनें ?
रामानुज गम्भीर हो गए .....और अपनें गुरुदेव के चरणों में साष्टांग प्रणाम करते हुए बोले .........हे गुरुदेव ! आपनें मेरे कान में मन्त्र दिया ...........मुझे पता नही था ........आपके द्वारा दिए गए मन्त्र का ऐसा प्रभाव होगा ! .......भगवान नारायण मेरे सामनें प्रत्यक्ष हो गए ।
मै भगवान नारायण के रूप सिन्धु में डूब ही गया था ........आनन्द का कोई ठिकाना नही था मेरे हृदय में ..........कि तभी मेरे मन में विचार आया ...........इस मन्त्र में इतनी शक्ति है ......जो भगवतदर्शन करा सकती है ......और अखण्ड आनन्द की प्राप्ति इससे हो जाती है ......तो ये बेचारे संसारी लोग क्यों इस मन्त्र से दूर रहें ! .......ये सब कितनें दुःखी हैं ..........और इस मन्त्र में इतना सुख है ...........सुख का सागर है ये मन्त्र तो ...............तब मुझे लगा ......सब लोग इस लाभ को लें ......सब लोग इस आनन्द को प्राप्त करें ......सब लोग अपनें मूल आनन्द नारायण भगवान की उपासना में लगें..........।
हे गुरुदेव ! मेरे मन में ये बात भी आई थी कि आपनें मना किया है .....कि इस मन्त्र को गुप्त रखना .........नही तो अपराध होगा ।
मेरे मन में आया ये ..........कि अपराध होगा तो मै भोग लूंगा .......नर्क ही तो मिलेगा ना मुझे ...........मै नर्क भी भोग लूंगा ......पर इन बेचारों का तो उद्धार हो जाएगा ना ! ...............मुझे जो आनन्द मिला वो आनन्द इन्हें भी मिल जाए ......इनके लिए मै कुछ भी कर सकता हूँ ।
इतना कहते हुए रो पड़े रामानुज !
देखिये ना ! गुरुदेव ! कितनें आनन्दित हैं ये लोग ............मन्त्र इन्होनें सुन लिया है .......तो इनके जीवन में जितनें दुःख थे सब खतम हो गए ......इनके प्रारब्ध कट गए ..............मुझे और क्या चाहिए ?
इतना जैसे ही सुना गोष्ठीपूर्ण जी नें .............उनके नेत्रों से भी अविरल अश्रु बहनें लगे थे.............रामानुज ! तुम धन्य हो !
तुम्हारे अंदर जो करुणा है ......वो अनुपम है ......अद्भुत है ।
बस यही करुणा खोज रहे थे ........मेरे गुरुदेव यामुनाचार्य जी ......।
आज मै भी धन्य हो गया हूँ .....तुम जैसे शिष्य को पाकर ।
इतना कहकर गोष्ठीपूर्ण जी नें अपनें शिष्य रामानुज को हृदय से लगा लिया था ।
शेष प्रसंग कल ..........
Harisharan
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