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वैदेही की आत्मकथा - भाग 122

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 122 )

"वैदेही की आत्मकथा"  गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

 युद्ध शुरू हो गया .....लंका में युद्ध की भेरी बज उठी थी ।

"जय श्रीराम"........मेरी वानर सेना के लोग कह रहे थे ।

और  "जय राक्षसेंद्र" .....रावण की सेना के लोग कह रहे थे ।

मारो , काटो .......यही शब्द मेरे कानों में पड़नें शुरू हो गए थे ।

मायावी शक्ति लेकर बैठी थी आज त्रिजटा मेरे पास .....और  लंका के युद्ध भूमि की घटना मुझे  बताती जा रही थी ...............

हे रामप्रिया !    अंगद नें रावणपुत्र मेघनाद का रथ नष्ट कर दिया है ....मेघनाद का रथ नष्ट हो गया ........उसका सारथी मारा गया ।

तभी ............त्रिजटा रुक गयी थी  ये कहते हुये   ।

क्या हुआ   त्रिजटा ?        बोल......युद्ध भूमि में  क्या हो रहा है   ? 

मैने पूछा  ..........तू  रुक क्यों गयी  ? 

मेघनाद अंतर्ध्यान हो गया है..........मुझे डर लग रहा है .....कहीं   माया का प्रभाव न छोड़  दे........सच में मैने देखा   त्रिजटा घबडा गयी थी ......वो जानती होगी ना .......क्यों की ये भी तो  इसी कुल की है ......मैने  त्रिजटा को घबड़ाते हुए देखा ......तो मैं भी घबडा गयी ......।

त्रिजटा बता ! ..........मेरे श्रीराम और लक्ष्मण कहाँ हैं  ? 

वो भी परेशान हो रहे हैं  रामप्रिया !   धनुष में बाण  लगाकर  चारों ओर देख रहे हैं .......पर !  ......त्रिजटा  देखनें की कोशिश कर रही है  ।

रामप्रिया !      आकाश से बाणों की   वर्षा कर रहा है  मेघनाद ......स्वयं अंतर्ध्यान है ......और बाणों की  वर्षा ................

मेरा हृदय धड़क रहा था ......अज्ञात भय के कारण ...................

श्रीराम बचनें की कोशिश कर रहे हैं.......लक्ष्मण  भी ।   ........हजारों वानर मर गए हैं.....सुग्रीव  को भी बाण लगा  है .......मेरे पिता .विभीषण  नें   उनके बाण को निकाल कर उस स्थान पर कोई जड़ी  लगा दी है  ।

त्रिजटा बताये जा रही थी   ।

रामप्रिया !  अंतरिक्ष से "नागास्त्र"  छोड़ दिया है मेघनाद नें ।

त्रिजटा चिल्लाई  ।

देख !  देख !     त्रिजटा !    अब क्या हुआ  ?    मैं  उठ खड़ी हुयी थी  ।

वो नागास्त्र आरहा है  दोनों भाइयों के समीप ..........और   ?   

क्या और ?   बता  त्रिजटा  !

वो   अस्त्र "नाग" बन गया है .......और नाग    श्रीराम और लक्ष्मण के शरीर से लिपट गए हैं .........त्रिजटा    इतना बोली  ।

मैं  बैठ गयी .......धड़ाम से ..........मेरा शरीर  पसीनें से नहा गया था ।

आगे क्या हुआ त्रिजटा ?      मैंनें डरते हुए पूछा ।

रामप्रिया !   श्रीराम और लक्ष्मण मूर्छित हो गए हैं  ।

क्या  ! ! ! ! ! ! ............ये सुनते ही  मेरा शरीर काँपने लगा   ।

*****************************************************

राक्षसराज रावण की विजय हो गयी....राक्षसेन्द्र रावण युद्ध जीत गए ।

राम लक्ष्मण को मार दिया  मेघनाद नें  ।

अशोक वाटिका में    कुछ राक्षसियाँ थीं   .........वो कहनें लगीं .........मेघनाद नें इन्द्र को जीता है .........ये बेचारे कोमल तपस्वी  उसके आगे कहाँ टिकते .........मार दिया      मेघनाद नें   ।

मैं शून्य में तांक रही थी .........मेरे तो पुत्र का भी योग है ...फिर ये कैसे हो सकता है  ?       दैव बलवान है  ......उसके आगे किस की चली है .........मेरे मन में अनेक बातें आनें लगीं थीं    ।

तभी आकाश से  पुष्पक विमान आया......मेरे सामनें ही  आकर रुका ।

उसमें से प्रहस्त उतरा ........और  मुस्कुराते हुए  बोला ........

राक्षसेन्द्र नें कहा है ..........राम लक्ष्मण मारे गए हैं .........मेरे वीर पुत्र मेघनाद नें उन्हें मार दिया है ...........अगर सीता को विश्वास न हो  तो पुष्पक विमान में बैठे और स्वयं जाकर  त्रिजटा के साथ   युद्ध के भूमि की स्थिति  देख आये  ।

इतना कहकर चुप हो गया था  रावण का मन्त्री प्रहस्त  ।

मैं उठी ..............और त्रिजटा से कहा .......चलो  त्रिजटा !  स्वयं देखते हैं वहाँ की स्थिति क्या है   ?

पुष्पक विमान में बैठकर.......हम दोनों चले.......रात्रि का समय हो गया था.......चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था  श्रीराम की सेना में  ।

मैं नीचे देखती  हुई जा रही थी..........मेरा  हृदय  बहुत तेजी से धड़क रहा था ................

न   हीं ! ! ! !  ............मैं  ऊपर से ही चिल्लाई ...............

त्रिजटा नें  भी  देखा उस दृश्य को ...................

नाग पाश से  बन्धे हुए मूर्छित  थे   मेरे श्रीराम और लक्ष्मण .............

सब लोग  विलाप कर रहे हैं .................।

मै उसी समय पुष्पक विमान में आसन लगा कर बैठ गयी  ।

विमान अस्त व्यस्त होनें लगा ........ऐसा लगा अन्धड़ शुरू हो गया है ।

प्रचण्ड अन्धड़ में फंस गया है .......वो विमान ।

मुझे झकझोरा  त्रिजटा नें ..............क्या कर रही हैं आप ?     

मेरे मुँह से निकला  -  स्वामी  !  ये जानकी आरही है आपकी सेवा में ।

नही .........नही ....रामप्रिया !    श्रीराम लक्ष्मण  दोनों जीवित हैं  ।

क्या ?   मेरे आर्य श्रीराम जीवित हैं !...........मैने अपनी आँखें खोलीं  ।

हाँ ......हाँ  रामप्रिया !   देखो ........मुखमण्डल में कैसी प्रसन्नता है  श्रीराम और लक्ष्मण के ............

हम दोनों   फिर  बड़े ध्यान से   नीचे देखनें लगी   थीं   ।

पर  मुझे कुछ करना होगा..........मैं  फिर आसन बाँध कर बैठ गयी  ।

क्या कर रही हैं आप ?
      त्रिजटा को  उत्तर देना  अभी मुझे आवश्यक  नही लगा  ।

गरुण !   कहाँ हो तुम ?   मैने गरुण का आव्हान किया  ।

उसी समय गरुण  मेरे सामनें उपस्थित थे ........

आज्ञा करें  महालक्ष्मी !      गरुण नें  मुझे प्रणाम करते हुए कहा ।

मेरे  आर्य श्रीराम को बन्धन मुक्त करो ...............मैनें  महालक्ष्मी के  आवेश से     गरुण को आज्ञा दी   ।

गरुण  श्रीराम की ओर  उड़े ..........और  देखते ही देखते   नागों को  खाते चले गए .................कुछ ही देर में   मेरे श्रीराम नें  अपनें नेत्र खोल लिए थे ...........लक्ष्मण नें भी   ।

मैं  आनन्दित हो उठी ...........मैने ऊपर से प्रणाम किया ...........अपनें श्रीराम को ......और विमान पुष्पक    लौट चला था अशोक वाटिका की ओर .........।

जय श्रीराम .....जय श्रीराम ............नाच उठे थे  वानर  ।

रावण  फिर परेशान हो  रहा था .......मेघनाद  की समझ में नही आया  कि  इस नागपाश से  किसनें  मुक्त किया इन दोनों को  ........?

गरुण के सिवा  तो कोई काट नही सकता  !   

पर  हम ,    त्रिजटा और  मैं  बहुत खुश थे    अब   ।

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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