आज के विचार
( उद्धव का दिव्य प्रेमानुभव )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 88 !!
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मैं उद्धव ।
कितना बन ठन कर आया था मथुरा से.....अहंकार था मेरे मन में .....ज्ञान का अहंकार, देवगुरु का शिष्यत्व प्राप्त था मुझे ।
ज्ञान के बिना मनुष्य पशु है .......ज्ञान के बिना मुक्ति कहाँ !
अब हँसी आती है मुझे - प्रेम के सम्बन्ध में मैने कभी सोचा भी नही ।
हाँ सोचता भी कैसे ? अहंकार प्रेम पर सोचनें की इजाज़त कहाँ देता है !
"सर्वत्र ब्रह्म का दर्शन करो".......और यही है ज्ञान की चरम अवस्था ।
मैं देवगुरु का शिष्य होकर भी ज्ञान के चरम पर नही पहुँच पाया था .......
पर मेरे नाथ नें मुझ पर कृपा कर........यहाँ भेज दिया ...........ठीक किया ...........वो मेरा हित अनहित सब जानते हैं .............
अद्भुत है ये श्रीधाम ! और अद्भुत हैं यहाँ के लोग ..............मेरी सदगुरुदेव श्रीराधारानी हैं .........हाँ .....मैने कल से ही उन्हें अपनी गुरु मान लिया है ..........और देवगुरु भी मेरे इस निर्णय से प्रसन्न ही होंगें .........उन्हें भी कहाँ प्राप्त हुए होंगें ये चारु चरण ...........
श्रीराधारानी के पीछे पीछे चल रहे हैं उद्धव ...............उनके बन रहे चरण चिन्हों को बचाते हुए चल रहे हैं ।
मेरे ऊपर कृपा की है मेरी गुरुदेव श्रीराधारानी नें ...............मुझे सम्पूर्ण बृज भूमि के दर्शन करनें हैं अब.........
पर उद्धव ! एक दो दिन में ये सम्भव नही है ..............सम्पूर्ण बृज की लीलास्थली का दर्शन करना है तो कुछ मास यहीं वास करना पड़ेगा .........मेरी श्रीराधारानी नें पीछे मुड़कर मुझे कहा था ।
अब मुझे जल्दी नही है ........मुझे जो पाना था उसे मैने पा लिया ..........अब तो मुझे आनन्द से लीला स्थलीयों का दर्शन कर जीवन को प्रेम तत्व में समर्पित कर देना है ।
फिर ठीक है ...............श्रीराधारानी नें कहा ............और अपनें महल की सीढ़ियों में चढ़नें लगीं थीं ।
मुझे रोमांच हो रहा था उन महल की सीढ़ी चढ़ते हुए ।
"ये बरसाना है".......मेरी स्वामिनी बोलीं थीं ..............
ओह ! ये बरसाना है ! मैं उन सीढ़ियों पर ही लेटकर प्रणाम करनें लगा .............यहाँ के कण कण से "राधा राधा राधा" यही नाम गूँज रहा था ।
हे वज्रनाभ ! उद्धव जी बरसाना आगये थे .........अब उन्हें सम्पूर्ण बृज मण्डल भ्रमण करना था ..........जो जो लीलाएं , जहाँ जहाँ की हैं उनके प्राणधन नें उन स्थलियों के दर्शन करनें थे ........सो श्रीराधा जी और उनकी सखियाँ उद्धव को बरसाना ले आई थीं ।
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महल के ही अत्यन्त निकट एक बाग़ था........श्रीराधा बाग़ ।
ये बाग़ श्रीराधारानी की क्रीड़ास्थली थी ...........यमुना यहीं से बहती थीं ................बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष थे , लताएँ थीं .........वहाँ रँग विरंगें पक्षी भी थे .................
उस बाग़ के मध्य में एक सुन्दर सा भवन था ............मेरे ऊपर कितनी कृपा की थीं इन आल्हादिनी स्वामिनी नें ..........उसी भवन में मुझे ठहराया .............
"ये कृष्ण सखा हैं".
....श्रीराधारानी के माता पिता .......वो भी मुझ से मिलनें आगये थे बाग़ में ही......तब मेरा परिचय दिया था श्रीजी नें ।
मैनें उठकर उनके चरण छूनें चाहे .........पर कहाँ मुझे चरण छूनें देते ।
उन्होंने मुझे उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया था....श्री बृषभान जी नें ।
बिल्कुल कन्हाई जैसा है ना ? माँ कीर्ति रानी का कहना था ।
कब आएगा कन्हाई ? आएगा ना ? कीर्तिरानी भावुक हो गयीं थीं ।
बेचारे नन्दराय ! बेचारी यशोदा जीजी ! उनका दुःख अब हमसे देखा नही जाता ............दिन भर बस रोती रहती हैं ............माखन ही निकालती रहती है ..........कहती है मेरा कन्हाई आएगा ।
कीर्तिरानी ये सब कह रही थीं ........कि तभी श्रीराधारानी के सुबुकनें की आवाज पर सब शान्त हो गए थे ....................
धीरे से बोलीं कीर्तिरानी - कृष्ण सखा ! किसके दुःख को गाऊँ ! घर में हमारी लाली दिन भर रोती रहती है ..........उन्माद चढ़ा रहता है ......पर श्रीराधा रानी को सामनें देखते ही कीर्तिरानी चुप हो गयीं ।
थक गए होगे कृष्ण सखे ! ये भोजन है .......कुछ खा कर सो जाओ ।
ललिता सखी भोजन ले आई थीं........बृषभान जी नें भोजन करके विश्राम करनें को कहा.....उद्धव से विदा लेकर महल में चले गए थे ।
श्रीराधारानी के साथ अष्टसखियाँ भी थीं.........उन्होंनें भोजन कराया उद्धव को.........श्रीराधारानी देखती रहीं...........हाथ धुलाकर सखियाँ जानें लगीं ........तो श्रीराधारानी नें कहा ........उद्धव ! यही बरसाना है .........मैं जब नन्दगाँव नही जाती थी ......तो वो यहाँ आजाते थे ।
उधर देखो ! उस यमुना के घाट पर नित्य शाम को हम मिलते थे ........
वो देखो ! साँकरी खोर ......
.........मैने बहुत जिद्द की थी कि मैं माखन बेचनें जाऊँगी.......मेरे बाबा और मेरी मैया नही मानें.......उनका कहना था कि बरसानें के अधिपति बृषभान कि बेटी माखन बेचनें जायेगी !......पर मेरे भैया श्रीदामा नें मेरा बहुत साथ दिया .......उन्होंने ही मेरे मैया और बाबा को समझा कर मुझे माखन बेचनें जानें कि आज्ञा दे दी......मैं बहुत खुश थी ........मेरा प्रयोजन माखन बेचना थोड़े ही था ........मुझे तो नित्य श्याम सुन्दर के दर्शन करनें थे ..........पर ........ये कहते हुए श्रीराधारानी हँसी ....खूब हँसी .........साँकरी खोर ! इसी साँकरी खोर में प्रथम दिन ही मेरी मटकी फोड़ दी थी उसनें ...........मेरी सब सखियाँ बहुत दुःखी हो गयीं थीं ........बस मैं ही बहुत प्रसन्न थी ........मैं उस दिन बहुत आनन्दित रही ..........फिर तो - नित्य का ही ये नियम ही बन गया था .......श्याम सुन्दर को देखे बिना चैन कहाँ मिलता ।
उद्धव ! पहली बार जब मैने उन्हें देखा था ना ......उन्मादिनी तो मैं तभी हो गयी थी.......मैं शुरू से ही ऐसी पगली हूँ.......एक दिन कुञ्जों में हम दोनों बैठे थे .......मैं उनके बाहों में थी .........वो मुझे निहारते ही जा रहे थे.........पर पता नही मुझे क्या हुआ ! मैं चिल्ला पड़ी ....हे श्याम सुन्दर कहाँ गए ? मेरे बाँहों में वो थे .....पर मुझे लग रहा था कि वो मुझ से दूर चले गए........पर आज ?
श्रीराधारानी कहती हैं - आज मुझे लगता है .......वो मेरे पास हैं ....वो मेरी बाँहों में हैं .............
अब चलें स्वामिनी जू ! ललिता सखी नें श्रीराधा से कहा ।
उद्धव ! मेरा उन्माद इन मेरी प्यारी सखियों को कितना कष्ट देता होगा ............ये बहुत स्नेह मयी हैं ..........मेरे लिये वन वन में भटकती रहती हैं ..........मेरे साथ अँधेरी रात में भी कहीं भी चल देती हैं ..........रात रात भर सोती नही हैं ........मेरा ख्याल रखती हैं ........ओह ! मैं इन्हें क्या सुख दे पाऊँगी ........मैने इन्हें भी सदैव कष्ट ही दिया है ........मैने सब को कष्ट ही तो दिया है ..........तभी मुझे छोड़कर चले गए मेरे कृष्ण .....बहुत मानिनी हो गयी थी मैं ...........अपनें श्याम सुन्दर को भी मैने बहुत दुःखी किया .........मैं जिद्दी .........वो सरल ............कितना हा हा खाते थे ....मेरे पाँव तक दवाते थे वे .........ओह ! ठीक किया उन्होंने जो मुझ जैसी को छोड़कर चले गए ...........
इतना कहते हुये .......हा कृष्ण ! ये शब्द श्रीराधारानी के मुँह से निकला .....और वो मूर्छित ही हो गयीं ।
सखियों नें उन्हें सम्भाला.........और महल में ले गयीं थीं ।
श्रीराधारानी के चरण की धूल उद्धव नें अपनें माथे से लगा ........यमुना किनारे आकर बैठ गए थे .........रात्रि घनी हो रही है ।
चिन्तन करते हैं उद्धव - प्रेम का साकार रूप हैं श्रीराधारानी .....
उनके मुखारविन्द से जो भी प्रकट होता है .......वो प्रेम के सूत्र हैं - सिद्धान्त हैं ...........आहा ! प्रेम ! उद्धव रात्रि में बरसानें यमुना के किनारे बैठकर चिन्तन कर रहे हैं ...............
यहाँ के परमाणु में बहुत कुछ है .......प्रेम सहज है यहाँ के वातावरण में ।
संयोग में वियोग, और वियोग में संयोग ........ये अनुभूति प्रेम कि है ।
उद्धव चिन्तन करते हैं जो जो श्रीराधारानी अभी कहकर गयीं हैं ........
"जब श्याम मेरे बाँहों में थे तब लगता था कि ........वो कहीं चले न जाएँ .....आज वो चले गए तब लगता है ......यहीं कहीं हैं "
ये अभी अभी कहकर गयीं श्रीराधिका जी .............
प्रेम की स्थिति विलक्षण है........प्रेम को इतना सरल नही है समझना .....मैं उद्धव जितना सरल समझता हूँ .....उतना सरल है कहाँ ?
ज्ञान कठिन है .......प्रेम सरल है .........यही सोच थी मेरी ......
पर यहाँ आकर पता चला........कि प्रेम सबसे कठिन मार्ग है ।
अपनें आपको बर्बाद करके चलना पड़ता है इस मार्ग में........अपनें "मैं" को बिना मिटाये . ....इस मार्ग में पैर भी रखना मना है ......।
इस प्रेम गली में वही आसकता है........जो मान अपमान को खूंटे में लटकाकर चलता है ..............
यमुना बह रही हैं............यमुना नही .......उद्धव को ऐसा लगता है मानों कृष्ण ही स्वयं बह रहे हैं इस यमुना में तो ।
उद्धव पूरी रात बरसानें में यमुना के तट पर बैठे रहे ............प्रेम नें उन्हें छू लिया है .............और बदल दिया है ।
हे वज्रनाभ ! उद्धव छ महिनें तक वृन्दावन में ही रहे .........कभी बरसानें रहे ....कभी नन्दगाँव , कभी गोवर्धन ...........इस तरह से पूर्ण प्रेमी उद्धव बन गए थे .............प्रेम है ही ऐसा तत्व !
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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