आज के विचार
( जयति जयति जय "प्रेम" )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 87 !!
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उद्धव ! विचार से ज्यादा महत्व, अनुभव का होता है ।
श्रीराधारानी के मुखारविन्द से ये वाक्य निकले थे ।
तुम्हारे सखा, स्वामी के सन्देश का यही अर्थ है ना कि - हम सभी वृन्दावन वासी उसे भूल जाएँ .............
पर उद्धव ! ये कहना जितना सरल है......ये उतना ही कठिन कार्य है ।
तुम कहते हो ........तुम ज्ञान देते हो.......शब्द ज्ञान , विचार तुम्हारे पास बहुत हैं........तर्क करनें की क्षमता भी तुम्हारे में बहुत है ......पर उद्धव ! प्रेम से तुम अपरिचित हो.......और जीवन में अगर प्रेम नही है तो ज्ञान कर्म या योग जो भी हो .........कुछ लाभ नही है ।
यमुना के किनारे बैठीं श्रीराधा उद्धव को प्रेम के कुछ मन्त्र दे रही थीं ।
उद्धव ! संसार में भटक रहे मनुष्य कर्म को ही श्रेष्ठ मानकर चलता है ........पर कर्म ही श्रेष्ठ नही है........कर्म यानि "चलना" ...किन्तु आप अगर बिना देखे ............बिना मार्ग को पहचानें चलोगे तो क्या लक्ष्य तक पहुँच पाओगे ? "देखना" ......यानि ज्ञान ..........चलना यानि कर्म .........उद्धव ! इन दोनों की जरूरत होती है जीवन में .......
श्रीराधारानी अद्भुत वात्सल्य से भरकर उद्धव को समझा रही थीं ।
देखना ....ज्ञान .....चलना ....कर्म .........हे स्वामिनी ! किन्तु इसमें प्रेम कहाँ हैं ? बात तो प्रेम की हो रही थी ना ? उद्धव नें पूछा ।
हँसी श्रीराधारानी......तुम भोले हो ....उद्धव ! तुम बहुत सीधे हो .....
मेरी बात तुम समझे नही.....".देखकर चलना".....ये ज्ञान और कर्म का मिश्रण है ........ये आवश्यक है .........पर उद्धव ! अगर चलनें में ......देखनें में ........आनन्द न आये तो ?
श्रीराधारानी की ये बात सुनकर उद्धव चौंक गयें थे ।
उद्धव ! मनुष्य ही नही ...........थल -गगन चर भी सब .......जो भी कर्म करते हैं ........ज्ञान साधते हैं .......उसके पीछे एक ही लक्ष्य होता है ...........कि हमें इस कर्म से आनन्द की प्राप्ति हो ........रस मिले ........ये रस .....ये आनन्द ही तो प्रेम है ।
तो उद्धव ! तुम्हे मानना पड़ेगा ......कि हर कर्म का फल, लक्ष्य - "रस" की प्राप्ति ही होती है .....यानि प्रेम की प्राप्ति ।
श्रीराधारानी उद्धव को आज गम्भीरता से समझा रही थीं ।
तुम कहते हो............कि हम भूल जाएँ श्याम सुन्दर को ..........ये सम्भव नही है उद्धव ! ये सम्भव ही नही हैं ।
तुम नें तो देखा होगा इस श्रीधाम वृन्दावन को ...............बताओ ! यहाँ रहनें वाला क्या कभी भी श्याम सुन्दर को भूल सकता है ?
यहाँ की वीथियों में .......बृज भूमि में.......तुम देखो उद्धव ! उनके चरण चिन्ह बने हुए हैं.....शंख, चक्र, गदा, कमल, वज्र , अंकुश .....इन सबके चिन्ह हैं.......जहाँ बैठो वहीं चिन्ह बनें हैं......कैसे भूलोगे उसे उद्धव !
पर आप लोग अपनें चिन्तन के विषय को बदल सकती हैं ..........जैसे- श्रीकृष्ण का चिन्तन करती हैं ना ......उसकी जगह किसी और का चिन्तन कीजिये ........उद्धव नें अपनी तरफ से ये बात कही ।
कैसे ? श्रीराधारानी नें अपनें कपोल में हाथ रखकर उद्धव से पूछा ।
बुद्धि को जगाइए.........और बुद्धि को समझानें दीजिये मन को .......कि कोई लाभ नही है......श्रीकृष्ण के लिये इस तरह रोनें से कोई लाभ नही है ..........बुद्धि की सहायता से आप इस कष्ट से दूर हो सकती हैं.......उद्धव नें अंतिम प्रयास किया समझानें का ।
फिर हँसीं श्रीराधारानी और साथ में समस्त गोपियाँ भी...........
"हमारे पास बुद्धि ही नही है" सबनें यही उत्तर दिया था ।
उद्धव का सिर चकराया .........ये क्या बात हुयी ..............
हाँ उद्धव ! हम सच कह रही हैं ..........हमारे पास बुद्धि नही है .........नही नही ......थी .....बुद्धि थी हमारे पास .......पर अब नही है ....
अब तुम पूछोगे कि बुद्धि थी तो गयी कहाँ ? तो उद्धव ! हमारी बुद्धि को तुम्हारे श्याम सुन्दर नें हर लिया ...............
वो बांसुरी बजाता था .........हर लिया बाँसुरी नें हमारी बुद्धि को ।
वो हमें छेड़ता था .....हमारी मटकी फोड़ता था .......माखन चुराकर हमारी बुद्धि हर ली तेरे श्याम सुन्दर नें ।
वो हमें आलिंगन करता था .............हमें छूता था .......यहाँ ! यहाँ ! यहाँ ! हमें छू छू कर ही उसनें हमारी बुद्धि हर ली ।
वो मुस्कुराता था ...........उसकी मुस्कुराहट से देव महादेव तक विचलित हो जाते थे ........तो हम क्या हैं ?
वो हम से एकान्त में बतियाता था........हँस हँसकर .........हमें छूते हुए .....आँखें मटकाते हुये.....बस इस तरह हमारी बुद्धि को हर ली उसनें ।
उद्धव ! हमारे पास बुद्धि नही है ...........हाँ हमारे पास हृदय है .....प्रेम से सिक्त हृदय ..........अपनें प्रियतम के लिये रोता हृदय .....अपनें प्यारे के लिये धड़कता हृदय ...........
उद्धव ! तुम्हे चाहिये ऐसा हृदय ?
श्रीराधा रानी के मुखारविन्द से ये सुनते ही ..........उद्धव का देह काँपनें लगा .............प्रेम के लक्षण प्रकट होनें लगे उद्धव में .........नेत्रों से अश्रु बहनें लगे .......रोमान्च हो गया .................
जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
जोर से चिल्लाये उद्धव ।
पर श्रीराधा रानी को ऐसा लगा कि ये पुकार ...."श्रीराधे" की पुकार उद्धव नें नही लगाई है .......मथुरा में बैठे श्रीकृष्ण ही लगा रहे हैं ।
बस फिर तो जो प्रेम का उन्माद चला वृन्दावन में ! उफ़ !
श्रीराधारानी मथुरा की और देखती हैं ...............सभी गोपियाँ मथुरा की ओर देखते हुए पुकारनें लगीं .........
हा नाथ ! हा कृष्ण ! हा प्यारे ! हा जीवन धन ! हा प्राण !
ये कहते हुए सब गोपियां क्रन्दन करनें लगीं .........श्रीराधारानी - हे श्याम सुन्दर ! हे मम प्राण ! - कहते हुये देह सुध भूलनें लगीं ।
कृष्ण , श्याम, गोपाल, गोविन्द, ............बचाओ ! बचाओ !
हजारों गोपियों नें एक स्वर से पुकारना शुरू किया ।
तुम नें जल प्रलय से वृन्दावन को बचाया था गोवर्धन धारण करके ........पर आज जो दशा , तुम्हारे वृन्दावन की हो गयी है.. .....इसके दोषी तुम ही हो .....तुमनें ही वृन्दावन को डुबोनें के लिए........ये सब लीलायें की हैं ........पर ऐसा मत करो ........बचाओ ! इस वृन्दावन को ........ये डूब रहा है विरह सागर में .......।
उद्धव को पहली बार बैचेनी होनें लगी........वो तड़फनें लगे .......
इनसे बड़ा कौन ज्ञानी होगा ? ये अहीर की कन्याएं यही सबसे बड़ी ज्ञानी हैं ...........क्यों की इन्होनें समझ लिया .......सत्य मेरा प्रियतम ही है ...........बाकी सब मिथ्या है, झूठ है ।
उद्धव उन्माद की स्थिति में जानें लगे थे ।
मेरे स्वामी नें मुझे यहाँ ज्ञान देंनें के लिये नही भेजा था .....उन्होंने मुझे प्रेम की शिक्षा लेनें के लिये यहाँ भेजा था...........
मेरी ये गुरु हैं श्रीराधिका जी........मुझे भी इनकी तरह तड़फ़ चाहिये .......बैचेनी चाहिये........अपनें सनातन सखा श्रीकृष्ण के बिना एक क्षण भी न रह सकूँ - ऐसी बैचेनी.......पर ये तो इन्हीं से मिलेगा......
इन्हीं के चरणों से ही प्राप्त होगा...............
इतना कहते हुए उद्धव श्रीराधारानी के चरणों में गिर गए ।
उनके ज्ञान का अहंकार मिट गया........निरहंकारिता के कारण उद्धव सहज हो गए ..........श्रीराधा के चरणों में गिरकर वो महा ज्ञानी उद्धव यही प्रार्थना कर रहे थे कि - मुझे प्रेम की दीक्षा दीजिये ।
ज्ञान की चादर गुदड़ी बन गयी थी .............ज्ञान की डुगडुगी थी ......प्रेम का ढोल बज रहा था ...........ज्ञान जगत के चार महावाक्य -अहं ब्रह्मास्मि, तत्वम् असि , प्रज्ञानं ब्रह्म, अयं आत्मा ब्रह्म .......
पर ये वेदान्त के महावाक्य......बृज रज में कहीं घुल मिल चुके थे ..
चरणों में गिरकर हिलकियों से रो रहे थे उद्धव .........उनका "विचार" गोपियों के "अनुभव" के आगे बह गया था ...........
हे वज्रनाभ ! जयति जयति जय प्रेम ...........
महर्षि शाण्डिल्य गदगद् भाव से इतना ही बोल सके ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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