86 आज के विचार
( अथातो "प्रेम" जिज्ञासा )
"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 86 !!
अफ़सोस कि सर्वांग सुन्दर श्याम हमारे द्वार पर खड़े हैं.......
सदियों से खड़े हैं .........खटखटा भी रहे हैं ........पर हमारा ध्यान उस ओर जाता कहाँ है ? चाँदी, सोना और ईंट पत्थरों से बनें मकान, इन्हीं पर तो हमारा ध्यान टिका है........
"वो हमें प्रेम करते हैं".......उद्धव "प्रेम" शब्द पर विचार करनें लगते हैं ।
ये क्या है प्रेम ? फिर अतिबुद्धिमान उद्धव स्वयं ही समाधान करते हैं .......रस ही है प्रेम !
श्रीराधारानी कह रही हैं......"प्रेम नही है तो कुछ नही है" ।
ज्ञान के चिन्तन से हमें "रस" मिलता है ......क्या वो रस प्रेम नही है ?
अगर वेदान्त के अभ्यास में हमें "आनन्द" न आये ..........तो क्या कोई भी ज्ञानी उस अभ्यास में जाएगा ?
क्या "आनन्द" ही प्रेम है ? उद्धव सहज जिज्ञासा कर रहे हैं ।
आहा ! क्या तड़फ़ है इन गोपियों की ..........धन्य हैं ये गोपियाँ ।
"अनदेखे, अनजानें साजन के लिये ऐसी तड़फ़ हो जाए तो क्या वो अज्ञात साजन हमारे सामनें नही आएगा ?
मैं भी पागल ही हूँ........कैसे एक पक्ष से ही विचार करता रहा ......निराकार है वो , निर्गुण है वो .........कैसी कूपमण्डूक सोच थी मेरी .........अरे ! वो ब्रह्म है ......वो ईश्वर है ...........निराकार अगर साकार नही हो सकता ..........तो वह ब्रह्म ही कैसे हुआ ? वो ईश्वर ही कैसे हुआ ? और वैसे भी तंरगे तो सर्वत्र व्याप्त हैं हीं ना वही तरंगें जब एकत्रित हो जाएँ, उसे ही तो साकार कहते हैं ..............
उद्धव विचार की गहराई में उतरते हैं -
मैने कभी "प्रेम" पर विचार ही नही किया .......न मेरे मन में कभी कोई जिज्ञासा ही उठी थी..........हाँ प्रेम मेरे मन में भी था .........मैं बचपन से ही बहुत प्रेम करता था अपनें श्रीकृष्ण को........श्री कृष्ण और मैं भाई लगते हैं ..........मेरे पिता देवभाग और वसुदेव जी दोनों भाई हैं ......तो श्रीकृष्ण मेरे भाई भी हुए .......।
श्रीराधारानी ठीक कहती हैं - उद्धव ! इस जगत में, इस ब्रह्माण्ड में प्रेम न करनें वाला कोई नही है ।
मैं कितना भी कहूँ .......ज्ञानी शिरोमणि देव गुरु बृहस्पति का परमशिष्य उद्धव.......पर सच्चाई ये है कि - श्रीकृष्ण गोकुल में हैं सुनता था मैं ......बस बचपन में ही "कृष्ण कृष्ण कृष्ण" करके भाव विभोर हो जाना ......फिर तो मेरा मन भी नही लगा मथुरा में ....कंस का भी अत्याचार था ...........मेरे पिता देवभाग नें मुझे देवगुरु बृहस्पति के पास भेज दिया .......मेरा सौभाग्य की देवगुरु का मैं शिष्य बना ..........वेद वेदान्त ....ज्ञान विज्ञान ........क्या नही पढ़ा मैने .........मेरे गुरु भी एक पृथ्वी के शिष्य को पाकर प्रसन्न थे........"ज्ञान के बिना मुक्ति नही" !
यही बात उन्होंने मुझे बारबार समझाई थी.............
मैं आगया विद्या पूरी करके.........मेरे श्रीकृष्ण भी मथुरा पहुँच गए थे......उद्धव विचार कर रहे हैं .........उनकी उतरी धोती ही पहनता था मैं ...........उनकी प्रसादी पीताम्बरी ........उनकी प्रसादी माला ........क्या यही प्रेम है ?
छुप छुप के मैं भी उनका जूठन खाता था ..............ये क्या है ?
यही प्रेम है ..........पर इन श्रीराधारानी के हृदय में जितनी उद्विग्नता है अपनें प्राणनाथ से मिलनें की ..........वो मेरे में नही है ।
कुछ समझ में नही आता .........इस अव्यक्त रस भाव सिन्धु को क्या नाम दूँ ? क्या यही प्रेम है !
ये प्रेम का सागर कितना अद्भुत और कितना गहरा है .........दिव्य !
डर मुझे भी लग रहा है .........हाँ मैं अभी तक किनारे में ही खड़ा हूँ .....बस देख रहा हूँ..........मुझे पता है मैं भी अगर इस प्रेम सागर में डूब गया तो निकल नही पाउँगा ..........पर मुझे डूबना है ........अब मुझे डूबना है .......डूब के देखना है ।
उद्धव सुगभीरता से विचार करते हैं .........आत्मा के अनुकूल प्रेम ही तो है .........नही नही ...आत्मा स्वयं प्रेम रूप है ............इस संसार में अगर कुछ पवित्रतम है .....तो वह प्रेम ही है ..........सब कुछ अनित्य है ....प्रेम ही नित्य है ............उद्धव आनन्दित हो जाते हैं ।
पर श्रीराधारानी कुछ कहना चाहती हैं .......उद्धव सुन रहे हैं ।
*****************************************************
अच्छा हुआ कंस का वध कर दिया हमारे श्याम सुन्दर नें ।
तुम यदुवंशी लोग परेशान से ...कहाँ कहाँ छुपते फिर रहे थे ना ?
पता है उद्धव ! हमारे प्राण प्यारे श्याम सुन्दर जब मथुरा जा रहे थे ना ........तब उन्होंने हमसे कहा था - मैं कंस के आतंक को समाप्त करके शीघ्र आऊँगा ........श्रीराधारानी नें कहा ।
तब उद्धव ! हमनें उनसे कहा था .....प्यारे ! झूठ मत बोलो .......तुम यहाँ कहाँ आ पाओगे .....वहाँ तो महल है ......यहाँ तो वन है ....
वहाँ तो छप्पन भोग होंगें......यहाँ तो माखन और बेझर की रोटी है ।
राज्य को चलाओगे कि यहाँ आकर गौ चराओगे ?
उद्धव ! ये बात हमनें कही थी अपने प्रिय से ............
पर उनका उत्तर था .........मेरी प्यारी ! मेरे मन में राज्य की कोई लालसा नही है ......न महल सुख की ...........मुझे तो यहीं अच्छा लगता है .......यहीं वृन्दावन में........मैं आऊँगा .......जल्दी आऊँगा ।
उद्धव ! तुम कह सकते हो ............कि वो तो तुम लोगों से कहा होगा .....ऐसे ही सांत्वना देनें के लिये ..............तो उद्धव ! उसनें तो अपनें माता पिता से भी ऐसे ही कहा है ..........पूछो नन्द बाबा से ?
उद्धव नें इतना अवश्य पूछा - आप कहना क्या चाहती हैं ?
क्या उनके मथुरा में स्थाई बैठनें से आपको कोई आपत्ति है ?
नही नही उद्धव ! नही ...............श्रीराधारानी बोलीं .....
वो मथुरा के महल में रहते होंगें ..........दास दासियाँ होंगीं .......उनके चरण दवानें वाले होंगें ...........उद्धव ! वो खुश हैं ना ?
अगर वो खुश हैं .........तो वो वहीं रहें ....यहाँ न आएं ।
श्रीराधारानी नें कहा.........तो उनके स्वर में स्वर मिलाती हुयी सब गोपियाँ कहनें लगीं........हाँ वो वहीं रहें ....यहाँ न आएं ।
यहाँ हमनें मात्र उन्हें दुःख ही दिया है .........वहाँ सुखी होंगें ।
हमें अच्छा लग रहा है उद्धव ! वहाँ उनकी पूजा होती होगी ? उनकी आराधिकाएं भी होंगीं वहाँ ? श्रीराधारानी नें पूछा ।
क्या यहाँ पर भी उनकी पूजा आप लोग करती थीं ?
उद्धव नें पूछा ।
हँसी सब गोपियाँ .........हम ? हम क्या जानें पूजा कैसे होती है ?
धूप ,दीप , नैवेद्य ये सब तो हम जानती नही ........हाँ ......स्नेह से उनकी पूजा करती थीं .........प्रेम से उन्हें देखती थीं ...........फिर प्यार से उन्हें छूती थीं .........नैवेद्य - भोग के नाम पर हम अपनें अधर रस उन्हें पिलाती थीं......उनको आलिंगन करती .........उन्हें अपनें वक्ष के सिंहासन में विराजमान करती ..........हाँ हमारे कठोर कुच उनके कोमल अंगो में न चुभें इस बात से डरती भी थीं ।
उद्धव ! हमें तो ब्रह्मानन्द से भी ज्यादा सुख मिला उनके यहाँ रहनें से ....पर हमें लगता है उन्हें कष्ट ही हुआ.......हमनें उन्हें कष्ट ही दिया.....
हे उद्धव ! अब उन्हें यहाँ आनें के लिये मना कर देना .......वो नही आएं यहाँ .............ये कहते हुए सारी गोपियाँ दहाड़ मारमार कर रोनें लगीं .......श्रीराधारानी के तो अश्रु गिरते ही रहते हैं ...........
उद्धव नें अब ये अंतिम विचार किया .........क्यों की इसके बाद उद्धव अब विचार भी नही कर पाएंगे ........क्यों की बुद्धि नें अब काम करना बन्द कर दिया है........अब मात्र हृदय का शासन है .....हृदय जो कहेगा अब वो होगा ।
ओह ! तो प्रेम ये है ............"प्रियतम के सुख में सुखी रहना" ।
प्रेम के मूल सिद्धान्त को उद्धव नें खोज निकाला था ।
"स्वसुख वान्छा का पूर्ण त्याग"
उद्धव को पता नही क्या हुआ ........अश्रु गिरनें लगे थे उद्धव के ।
प्रेम के सिद्धान्त को विचारों के माध्यम से तो समझ लिया था उद्धव नें ......
पर प्रेम, विचार करनें से पूर्ण समझ में नही आता .......इसके लिये तो उतरना पड़ता है .......इस प्रेम सागर में डूबना पड़ता है ..........
तो अब उद्धव प्रेम के इस सिन्धु में डूबनें के लिये भी तैयार हैं ।
शेष चरित्र कल -
0 Comments