85 आज के विचार
( सुनो ! प्रियतम की पाती )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - 85 !!
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हे राधे ! हे कृष्ण बल्लभा ! हे हरिप्रिये ! हे स्वामिनी !
ये आपके प्रियतम नें पाती भेजी है ............आप सबके लिये इसमें उनका सन्देश है ...........आप इसे पढ़िये -
ये कहकर वो पाती उद्धव श्रीराधारानी को देनें लगे .....पर श्रीराधारानी नें हाथ आगे नही बढ़ाया ........ललिता सखी को देनें लगे वो पाती ....पर नही .......ललिता , विशाखा , चित्रा, रँगदेवी सुदेवी किसी नें पाती हाथों में नही ली ।
उद्धव जी आश्चर्य से देख रहे हैं - आपनें अपनें प्रियतम की पाती नही पकड़ी ? ये आपके प्यारे नें लिखी है आपके लिये ।
श्रीराधारानी नें उद्धव की ओर देखा - उद्धव ! प्यारे की पाती को न तो हम इन आँखों से देख सकती हैं ....न अपनें छाती से लगा सकती हैं ।
पर क्यों ? उद्धव आश्चर्य से बोल उठे ।
आँखों से देख भर लेंगीं ना, तो इस पाती के सारे अक्षर बह जायेंगें ।
पाती को देखते ही हमें कृष्ण दिखाई देगा.......हमें लगेगा वही लिख रहा है......उसका लिखा हुआ है ये.......बस - हमारे अश्रु बह चलेंगें .......और पाती भी भींग जायेगी .....अक्षर बह जायेंगें ।
और अगर उद्धव ! हम इस पाती को अपनें हृदय से लगा लेंगीं ना !
तो क्या हो जाएगा ? उद्धव नें जानना चाहा ।
जल जायेगी पाती ........हमारे हृदय में आग लगी है ..........विरह की आग जल ही रही है..........पाती , छाती को जैसे ही छुएगी .......जल जायेगी......आग लग जायेगी ।
श्रीराधारानी नें जो स्थिति थी वो बता दी ।
उद्धव फिर सोच में पड़ गए थे ।
उद्धव ! हम सब बैठ जाती हैं ........पाती तुम ही पढ़कर सुनाओ ।
श्रीराधारानी नें कहा ..........और सभी सखियों को भी शान्ति से सुननें की आज्ञा दी .........फिर उद्धव को देखनें लगीं ।
हजारों सखियाँ उद्धव को देख रही हैं ...............सबके हाथ अपनें अपनें कपोलों में है ...........प्यारे नें क्या लिखा है ? यही प्रश्न सबके मन में है ......और अब ध्यान से सुननें लगीं थीं ।
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उद्धव नें पाती हाथ में ली..........
....और खड़े होकर सब सखियों को सुनानें लगे थे कृष्ण का सन्देश ।
" हे मेरी प्यारी गोपियों ! मैं तुम सबकी आत्मा हूँ ........फिर मेरा और तुम्हारा वियोग हो कैसे सकता है........आत्मा तो सब जगह है......फिर जो सब जगह है उसका वियोग सम्भव कैसे है ?
ये सच बात है कि......तुम सब मुझ में हो .....और मैं तुममें हूँ ।
हे गोपियों ! ज्ञान , कर्म, योग सबका फल मैं ही हूँ ..........मुझे ही पानें के लिये तपश्वी तप करता है ..............ज्ञानी स्व स्वरूप का चिन्तन करता है ..........योगी प्राणायाम इत्यादि के द्वारा मन को मुझ में ही लगाता है.........इसलिये हे मेरी प्यारी ! तुमनें सबकुछ पा लिया है ......अब कुछ भी पाना शेष नही है.......मैने तुम्हे वियोग दिया.....विरह दिया, इसका कारण यही है कि ..........मन से, तुम अपनें आपको मुझ से अलग न समझो......विरह में एकत्व का अनुभव होता है......उस एकत्व के अनुभव के लिये ही मैने तुम्हे ये विरह प्रदान किया है ।
विरह से तन्मयता आजाती है .............तन्मयता से एकत्व की भावना तेज़ होती चली जाती है .........फिर तो हे बृजांगनाओं ! तुम और मैं अलग कहाँ हुये ? हम सब एक ही तो हैं !
हे मेरी सर्वेश्वरी राधे ! आप तो सब जानती हो .............नित्य निकुञ्ज में ये लीलाएं चल ही रही हैं ........पर ये अवतार काल है .......आप लोगों के प्रेम को, मैं जगत में दिखाना चाहता था ........प्रेम कैसा होता है ये बताना चाहता था ...........इसलिये !
मेरी स्वामिनी ! आप सब जानती हैं .................
"हम मिलेंगें"...........ये कहना भी मुझे उचित नही लगता .......क्यों की हम मिले ही हुए हैं ..........हमारा वियोग सम्भव ही नही है .......ये तो बस एक - लीला है ..............हाँ मेरी प्रिये !
इतना ही लिखा था पाती में ......उद्धव सुनाकर पाती चुप हो गए ।
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सुबुकनें लगीं प्यारे की पाती सुनकर सब गोपियाँ .................
उद्धव ! तुम कहते हो तो बात ठीक होगी........तुम पाती को लानें वाले हो, ......हमारे कृष्ण हमें ज्ञान का सन्देश भेज रहे हैं......अच्छी बात है ।
पर उद्धव ! हमें अब पाती नही चाहिये .......
.....हमें पाती लिखनें वाला चाहिये ।
हमारी तो कुछ समझ में ही नही आई बात.........हम गंवार हैं उद्धव !
आत्मा क्या परमात्मा क्या , हम क्या जानें ?
हम तो, जब से होश सम्भाला है .......तब से कृष्ण ही को अपना सर्वस्व मान बैठी हैं ...............
वो सर्वात्मा है ? यही कहा ना उसनें ? कि वो सबकी आत्मा है ।
उद्धव ! हमें महारास के समय कन्हाई नें यहाँ छूआ था .........वो कौन था ? आत्मा ? या ?
उद्धव ! उस छुअन को हम भुला नही पा रही हैं .........
इस "सर्वात्मा" वाले सिद्धान्त से हमारे दुःख की निवृत्ती होनें वाली नही है ......। हमें तो वही चाहिये ..............
हम कैसे भूल जाएँ ..........उस मोहनी मुस्कान को ? हम कैसे भूल जाएँ आत्मा की बातें करते हुये उस बाँसुरी को ............जिसकी मधुर ध्वनि आज भी हमारे कानों में गूँजती रहती हैं ।
उसनें अपनें अधर हमारे इन अधरों पर रख दिए थे ........श्रीराधा कहती हैं ....कैसे हम भूल जाएँ.....
उसनें हमें बाँसुरी बना.........अपनें अधरों से लगाया था ...........
और मेरी ये दोनों बाँहें ..........उनके गले की हार बन गयी थी ।
कैसे आत्मा की बातें करते हुये हम वो सब भूल जाएँ ?
उद्धव ! तुम ज्ञानी हो ..........तुम्हारे कृष्ण ज्ञान के ईश्वर हैं ......पर हम तो भोली भाली गाँव की नारियाँ हैं ........न हमें आत्मा क्या है ये पता है .....न हमें उसकी सर्वव्यापकता का ही पता है .........हम तो बस उन श्याम सुन्दर को जानती हैं ........जो हमारे गले में गलवैयां दिए हमें प्यार करते थे........
उनका वो मुस्कुराना....उनका वो झूठ बोलना....उनका वो नटखट पना .....हमें सब याद आता है........हम नही भूल पा रहीं उद्धव ।
हमें योग करना सिखा रहे हैं तुम्हारे स्वामी,......हँसती हैं श्रीराधारानी ।
जिनके रोम रोम में श्याम बसे हैं .........वह "योग" कहाँ रखेगा ?
उद्धव ! तुम लोगों के पास "योग" है ......पर हमारे पास "वियोग" है ।
इतना कहकर फिर रोना शुरू कर दिया था गोपियों नें ।
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हे वज्रनाभ ! उद्धव को लग रहा था कि श्रीकृष्ण नें जो तत्वज्ञान लिखकर भेजा है पाती के रूप में .......उससे तो अवश्य श्रीराधारानी और अन्य गोपियों का प्रेम कुछ तो कम होगा ............
पर वज्रनाभ ! वो प्रेम क्या जो किसी के समझानें पर कम हो जाए ।
किसी के नही .......स्वयं प्रियतम भी समझाये कि ......."इस प्रेम को कुछ कम करो" ...........आहा ! प्रियतम के ऐसा कहनें पर तो प्रेम और बढ़ता है .......क्यों की यही है प्रेम की विचित्र रीत !
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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