"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 84

84 आज  के  विचार

( सावधान !  प्रेम संक्रामक है....)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 84 !! 



प्रेम  एक  संक्रामक रोग है ......जी !    किसी प्रेमी के साथ बैठ जाओ ......प्रेम तुम्हे भी  पकड़ लेगा........कुछ दिन संग करके देखो.......चाँद तारे फूल कलियाँ  ये भी बातें करनें लग जायेगीं......जी !    प्रेम संक्रामक है .....छूत की  बीमारी है ये   ।

उद्धव   कितना सोचकर आये थे .....क्या क्या सोचकर आये थे ...कि -

ज्ञान दूँगा ...जोग सिखाऊंगा....मूंड लूँगा....पर क्या पता था  कि  गोपियाँ हीं  इस महाज्ञानी को मूंड  कर अपना चेला बना लेंगी  ।

जी !    मैं फिर कहूँ  -  सावधान !   प्रेम संक्रामक है   ।

जैसे आप क्रोधी व्यक्ति के साथ रहें ........उसके परमाणु आपको भी पकड़ लेंगें.......आप को क्रोधी बनते देर न लगेगी  ।

ऐसे ही   कामी व्यक्ति के संग में रहिये.....आप भी धीरे धीरे वासना से भरते चले जायेंगें........

यही बात लागू होती है  प्रेम पर भी.......प्रेमी का संग  और भी ज्यादा  संक्रामक है..........

देखो ना !    उद्धव  अपनें आँसू पोंछनें लगे थे.......उन्हें रोमांच होनें लगा था.......उनके पैर डगमगानें लगे थे ..........

हे गोपियों !   मुझे डर लग रहा है.......उद्धव नें कहा  ।

क्यों  ?   एक दूसरे का मुँह देखनें लगीं थीं गोपियाँ  ......क्यों उद्धव ?  

मेरे भाव में परिवर्तन क्यों आरहा है  ?   

मुझे ऐसा क्यों लग रहा है  कि ........मेरा सारा ज्ञान बहता जा रहा है  ।

श्रीराधारानी नें उद्धव की ओर देखा .......और  सहज  बोलीं -

उद्धव !      ज्ञान  किसी वस्तु में परिवर्तन नही ला सकता......ज्ञान का काम ही है .........जो जैसा है उसे वैसा ही दिखा देना ...... लोहे को लोहा दिखाना  - ये ज्ञान हुआ .....सोनें को सोना ही दिखाना या देखना,  ज्ञान हुआ.......ज्ञान ,  जो जैसा है उसको वैसा ही दिखा देता है.....पर  प्रेम में ऐसा नही है .......प्रेम में एक चमत्कार होता है ........ये चमत्कार ज्ञान में नही है ........प्रेम एक बहुत बड़ा  परिवर्तन ला  देती है .....लोहे को सोना बना देती है .......पत्थर को  भगवान बना देती है ......चन्द्रमा  बतियानें लग जाता है ......तारे  सब संगी साथी हो जाते हैं.....हवा गुनगुनानें लगती है ....फूल मुस्कुरानें लगते हैं ......सम्पूर्ण प्रकृति  झूम उठती है  ।

श्रीराधारानी  के मुखारविन्द से ये सुनकर उद्धव गदगद् हो गए  ।

पर स्वामिनी !   ये तो सब मन का खेल है......मन से आप मान लेती हो तो .. ......

उद्धव  अपनी बात पूरी कर भी नही पाये थे कि  श्रीराधारानी नें टोक दिया.....अच्छा !   ये मन का खेल है ! .....तो  तुम जो  कहते हो  "मैं ब्रह्म हूँ" .....इसका चिन्तन करते रहो ........वो क्या  मन का खेल नही है  ?  

श्रीराधारानी की बात का इस तरह  उद्धव नें उत्तर दिया था  -

तो फिर लगाओ ना  !      उस मन को  ब्रह्म में ...........

फिर लगाओ ना !  उस मन को ध्यान में ..........

फिर लगाओ ना !   उस मन को  योग में............   

श्रीराधारानी हँसी -  मन हो तो लगावें .......यहाँ तो मन ही नही है  ।

उद्धव नें सोचा भी नही था कि,   ऐसा उत्तर भी मिलेगा ...........

फिर कुछ देर के लिए चुप हो गए उद्धव ......मन ही मन सोचनें लगे -

ये जिस स्थिति की बात कर रही हैं .........वो तो "अमना" स्थिति है ......

उच्च स्थिति है........वेदान्त  यही कहता है .....जो ये कह रही हैं ......जब शरीर ही मिथ्या है.......तो  मन सत्य कैसे हो सकता है ?  मन भी  तो मिथ्या ही है.....सूक्ष्म शरीर भी तो मिथ्या है.......

फिर इस मन को ही सत्य मानकर चलना  ये भी तो अज्ञानता ही है .....

विचित्र स्थिति है  इन श्रीराधारानी की......उद्धव जी  समझनें की कोशिश करते हैं ....पर समझ नही पाते   ।

इन्होनें  अपनें मन को ही  कृष्ण बना दिया.....इनका मन ही कृष्ण बन चुका है....पागलों की तरह हँसे उद्धव....मन ही कृष्णाकार बन गया ।

वो निराकार है......उसका कोई आकार तो है नही.......

बड़े दवे स्वर में  उद्धव बोले थे   ।

क्या तेरा निराकार ब्रह्म  साकार नही हो सकता ?  श्रीराधारानी नें पूछा ।

उद्धव  बोले -  वो निर्गुण निराकार ही हैं..............

तो फिर वो सर्वशक्तिमान नही है  ?     श्रीराधारानी नें फिर पूछा था ।

उद्धव सकपका गए .....कुछ सोचकर बोले - नही,   सर्वशक्तिमान तो  है ।

हँसी श्रीराधारानी ........जब सर्वशक्तिमान है ..........तो निराकार से साकार क्यों नही हो सकता ?

उद्धव  ये सुनकर चुप हो गए ...........निरुत्तर ही हो गए थे  ।

आपको  कितना वियोग है ना  ?     आप कितना रोती रहती हैं ना  ?

उद्धव नें अब  सहानुभूति दिखाई  श्रीराधा रानी के प्रति  ।

वियोग किसे नही है  ?     क्या  तुम्हे वियोग नही है  ?    क्या   इस जगत के समस्त जीवों को  अपनें सच्चे यार का  वियोग नही है ?    

पर  आश्चर्य होता है मुझे  उद्धव !      ऐसा वियोग होनें के बाद भी ........हम रोते नही हैं .......हम तड़फते नही हैं .....कैसे  भोजन हमारे गले से नीचे उतरता है  ?   कैसे हम  खर्राटे भरकर सो सकते हैं ?  

उद्धव !   जो  सच में  इस बात को समझ लेता है  कि........हमारा सच्चा  वियोग तो   भगवान से है .........कब के बिछुड़े हैं  हम......जन्मों जन्मों के .......फिर भी  कोई तड़फ़ नही  ?      

श्रीराधारानी उद्धव को ही देखकर कह रही हैं...........उद्धव !   जो  इस वियोग को जान लेता है .......और  तड़फ़ शुरू हो जाती  है .........बस समझो  मिलन- संयोग  का समय आगया.........हमारा वियोग सच में वियोग नही है .......संयोग है........हम रोती हैं ......बिलखती हैं ......ये आनन्द है ........अश्रु बहानें का आनन्द  ।

उद्धव !  

     ललिता सखी  आगे आई  और उद्धव को छू दिया  ।

बस  -    उद्धव को रोमांच होनें लगा ...........प्रेम की  तरंगें  उद्धव के देह में व्याप्त होनें लगीं ..........उन तरंगों नें मन , बुद्धि , चित्त और अहं को भी छू लिया ...........सिर चकरानें लगा उद्धव का .............

आपनें ठीक नही किया  प्रभु !     इन गोपियों का अपराध क्या था  ?

ओह !  उद्धव  विचार करते हैं ..........ये मुझे क्या हो गया .........मुझे मेरे श्रीकृष्ण अपराधी क्यों लग रहे हैं  ?      ये गोपियाँ  मुझे अपनी लगनें लगी हैं .......अन्धेरा सा छानें लगा  था उद्धव के  आँखों के सामने ।

शेष चरित्र कल -

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