83 आज के विचार
( उद्धव द्वारा "गोपीप्रेम" का गान... )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 83 !!
आहा ! पवित्र हो गए थे श्रीराधा चरणों में वन्दन करनें से उद्धव ।
प्रेम का साकार रूप ही तो विराजमान था....
उस यमुना के पावन तट पर ।
श्रीराधारानी के चरणों में गिर गए थे....नेत्रों से अश्रु बह रहे थे उद्धव के ।
भक्ति ? भक्ति तो सब करते हैं........कौन है ऐसा मुनि, ऋषि महात्मा जो भक्ति न करता हो.......उद्धव जी विचार कर रहे हैं ।
पर बाहरी वस्तु का निषेध करके अंतर्मुखी बनाना यही कार्य है ज्ञान का .........जैसे - आँखों से संसार दीख रहा है ......तो हटाओ संसार को ......और आँखें बन्दकर के अपनें भीतर प्रवेश करो ......वहीं बैठा है तुम्हारा प्यारा .......कहाँ बाहर खोज रहे हो .....अपनें भीतर खोजो ।
ये तरीका है ऋषि, तपश्वी, मनश्वी के चिन्तन का .............और यही ईश्वरप्राप्ति का मार्ग है .....सदियों से शास्त्र हमें यही बताते आये हैं .......
मुनि ज्ञानी ऋषि ये लोग भक्ति तो करते हैं ........पर इनकी भक्ति बाहर से भीतर ले जाती है ....यानि बहिर्मुखता से अंतर्मुखी बनाती है .......इसलिये इनकी भक्ति को "शान्त रस" कहा जाता है ।
पर ये गोपियाँ ..... .........लम्बी साँस लेते हैं उद्धव.......
जैसे चन्द्रमा में शीतलता है .....तो वह समस्त को शीतलता ही देता है ........अग्नि में दाहकता है ........तो जो उसके पास जाएगा ......वह उसे गर्मी ही देगा ........उद्धव इस तरह से विचार कर रहे हैं .......इन गोपियों के अंदर भक्ति-प्रेम लवालव भर गया है .........अब वो उछलता है ......तो बाहर की ओर ही छलकेगा ........अद्भुत ! उद्धव जी विचार करके ही आनन्दित हो रहे हैं ।
मुनियों नें अपनें हृदय में ध्यान करके "उसको" पा लिया ....और शान्त हो गए .......पर इन गोपियों की बात तो निराली है भई !
इन्होनें मात्र अपनें हृदय में नही रखा अपनें श्याम सुन्दर को ........उसे बाहर लायीं .......फिर सजाया भी .......संवारा भी ............मोर पंख लगा दिया .....पीताम्बरी पहना दी ........बाँसुरी हाथ में दे दी ...........फिर दूर खड़ी होकर निहारनें लगीं ............उद्धव विचार करते हैं - जिन नेत्रों के दृश्य का ऋषि मुनि ज्ञानियों नें तिरस्कार किया .........उन्हीं नेत्रों का दृश्य ब्रह्म को बनाकर खड़ा कर दिया इन गोपियों के प्रेम नें ........ओह !
उद्धव जी आनन्दित होते हैं - संसार मिथ्या है .....संसार झूठ है .......सबनें कहा ........और सब त्यागी बन गए ...........पर गोपियों नें संसार को झूठा नही कहा ......बल्कि इसी संसार को ही रास मण्डल बनाकर नाचनें पर मजबूर कर दिया उस ब्रह्म को ........फिर तो सर्वत्र वही वही छा गया....वही नाचनें लगा......उसी की बाँसुरी सुनाई देंनें लगी । आँखें बन्द करनें की जरूरत ही नही है इन गोपियों को .......इन्होनें संसार में ही उसे प्रकटा दिया.......खुली आँखों से ही दिखाई देनें लग गया ।
उद्धव विचार करते हैं .........सत्य और अनृत का भेद ही समाप्त ।
जड़ चेतन का भेद ही मिटा दिया इन बृजगोपियों नें .......सर्वत्र इनका कन्हाई ही नाच रहा है.........बाहर छलक रहा है इनका प्रेम ! उद्धव बोलना चाहते हैं .......पर अब बोल नही पाते ।
हे महाभागा ! हे राधिके ! हे कृष्ण प्रिये ! हे स्वामिनी !
मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ .................
श्रीराधारानी का ध्यान अभी इधर नही है ...........
सच्चा त्याग तो आपनें किया है ............महात्मा लोग क्या त्याग करेंगें आपके समान .........बड़े बड़े महर्षि , मुनि ज्ञानी भी आपके त्याग के सामनें नतमस्तक हैं..........उद्धव जी नें श्रीराधारानी से कहा ।
पर हमनें ऐसा क्या त्यागा उद्धव ! मानों श्रीराधा रानी ही पूछ रही हैं ।
ब्रह्मचारी का जप तप करना कोई बड़ी बात नही है ........ब्रह्मचारी है तो करेगा क्या ? कोई बाबा जी है .....पत्नी है नही ....बाल बच्चे हैं नही .......तो करेगा क्या वो......भजन करे तो क्या बड़ी बात है ?
पर उद्धव जी कहते हैं - बड़ी बात तो आप लोगों की है ......बाल बच्चे भी हैं आप गोपियों के ....पति, सास, ससुर सब हैं ..............इसके बाद भी आप लोग अपना मन पूर्ण रूप से कृष्ण में लगाई हुयी हो .....ये बहुत बड़ी बात है ..........।
तपश्वी का तप करना बड़ी बात नही है ......अरे ! तपश्वी है .....उसका काम ही है तप करना ........महात्माओं का भजन करना बड़ी बात नही हैं अरे ! भई ! महात्मा हैं ..........भजन करनें के लिये ही तो महात्मा हुए हैं ..........फिर महात्मा भजन करे तो बड़ी बात क्या हुयी ?
बड़ी बात तो गृहस्थों की है........गृहस्थ में रहते हुये भी अगर हम भजन करें ......भगवत्प्रेम में डूब जाएँ ......बाल बच्चों के होते हुए भी हमारा मन सनातन प्रिय श्रीकृष्ण में लगा रहे ......पति, परिवार धन, सबके होते हुए भी........सनातन सखा कृष्ण के लिए अकेले में रोनें का मन करे .......तब समझना ये बहुत बड़ी बात है ।
उद्धव का विचार और गहरा होता गया ..................
शास्त्रों में कहीं लिखा है क्या - कि पति को छोड़कर पत्नी सन्यास ले ले ? .........पति का त्याग करके पत्नी भजन करे ?
हाँ पतियों के लिये सन्यास का वर्णन अवश्य है शास्त्रों में .............
पर यहाँ तो शास्त्र भी उल्टे पुल्टे कर दिए इन प्रेम दीवानियों नें ......
पति को ही त्याग कर भजन करनें बैठ गयीं ...........बच्चों को ही छोड़ दिया ............ये बहुत ऊँची स्थीति हैं .............जिनको जन्माया .....जिनको नौ महिंने तक पेट में रखा ......फिर बाहर पालन पोषण भी किया .......पर बात जब सनातन सखा की आयी ......तब सब कुछ छोड़ दिया .......ऐसे छोडा, जैसे कोई मतलब ही न हो .........
उद्धव विचार करते हैं ..........मैने अच्छे अच्छे ऋषियों को देखा है .....मैने अच्छे अच्छे मुनियों के जीवन और उनकी साधना तप सब देखा है ........पर इन गोपियों को देखता हूँ ..........तो वो ऋषि मुनि इनकी पैर की धूल भी नही लगते ।
स्मरण , ध्यान का भी एक समय होता है.......पर ये कैसी विलक्षण स्थिति है......कि हर समय ....24 घण्टे......बस "प्रिय" की यादें .....बस उसका सुमिरन.......और फिर कुछ पानें के लिये भी नही !
उद्धव जी चकित हो रहे हैं स्वयं गोपी प्रेम पर विचार करते हुये ......
सब कुछ त्यागा अपनें प्रियतम के लिये............सब कुछ तो महात्मा लोग भी नही त्याग पाते ..........पति को त्यागा , अपनें बच्चों को त्यागा ......उद्धव जी कहते हैं - इन गोपियों नें ....अपनें देह को भी त्यागा ।
हे महर्षि शाण्डिल्य ! देह कहाँ त्यागा है इन्होनें ?
श्रीराधारानी नें देह त्यागा ? वज्रनाभ नें प्रश्न किया ।
महर्षि शाण्डिल्य बोले ...........उद्धव कहते हैं श्रीराधारानी नें एक बार अपनें इस देह को भी त्याग दिया था ...........
ओह ! चौंक गए वज्रनाभ ! आप क्या कह रहे हैं महर्षि !
हाँ वज्रनाभ ! ये सत्य है .......ये कहते हुए उठे महर्षि शाण्डिल्य ।
आज पहली बार श्रीराधाचरित्र सुनाते हुये उठे थे................
वक्ता जब उठा तो श्रोता भी उठकर उनके पीछे पीछे चल दिया ।
कालिन्दी के किनारे आये ........आचमन किया ....प्रणाम किया ।
"कालिन्दी ही श्रीराधा रानी को वापस लेकर आईँ थीं" महर्षि बोले ।
महर्षि ! मैं समझा नही ......वज्रनाभ नें पूछा ।
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उद्धव के सामनें घटी घटना है ........तभी उद्धव कह रहे हैं - देह तक त्यागनें वाली हो आप लोग .......ऐसा त्याग कौन कर सकता है ?
उस दिन श्रीराधारानी चेतना शून्य हो गयीं थीं .......उनका शरीर शीतल हो गया था......प्राण निकल गए , अपनें "प्राणधन" के वियोग में श्रीराधा रानी के प्राण ही निकल गए .....ललिता सखी रोनें लगीं .......रँग देवि सुदेवी मूर्छित ही हो गयीं थीं .....पूरा वृन्दावन रो गया था ।
पर श्रीराधारानी कृष्ण के वियोग में पहुँची सूर्यनारायण के मण्डल में..........वज्रनाभ ! मैं तुम्हे बता ही चुका हूँ ..........कि सूर्य के अवतार हैं वृषभान जी ......जो श्रीराधारानी के पिता बने ।
तो स्वाभाविक था कि अपनें पिता के पास ही जातीं श्रीराधारानी ......वो गयीं .............पर वहाँ जाकर भी वो रोती ही रहती थीं ।
कालिन्दी यमुना भी पहुँच गयीं सूर्य के पास......क्यों की ये भी सूर्यपुत्री ही हैं.....तब कालिन्दी और पिता सूर्यदेव नें समझाया.....बहुत समझाया ....पर श्रीराधा रानी का विरह शान्त नही हुआ ......अब तो सूर्यनारायण नें विचार किया कि क्या करें ?
तभी अपनी पुत्री श्रीराधा का हाथ पकड़ कर ले गए वैकुण्ठ .......
सूर्यदेव को लगा कि ......भगवान नारायण का दर्शन करके राधा को शान्ति मिलेगी ........क्यों की नारायण ही कृष्ण हैं ........ऐसा मन में सोच, ले गए वैकुण्ठ ........पर ये क्या !
श्रीराधारानी नें नारायण भगवान की ओर देखा भी नही .............जब सूर्यदेव नें ज्यादा ही कहा .......तब श्रीराधारानी का उत्तर था .....श्याम सुन्दर के बिना ये आँखें अब किसी को नही देखेंगीं .............
उदास सूर्यदेव अपनें मण्डल में आगये .........तब एकान्त में कालिन्दी नें समझाया था श्रीराधारानी को ..........हे राधिके ! मेरी बात आप मानिये .........चलिये वृन्दावन ! वहीँ हैं श्याम सुन्दर ..........और हमें जब तक उनके इस अवतार काल की लीला पूरी नही हो जाती , प्रतीक्षा करनी ही चाहिये ........।
बस कालिन्दी की ये बात श्रीराधारानी को अच्छी लगी ......और वो वापस वृन्दावन में आगयीं ।
सखियों में आनन्द छा गया.............
उद्धव जी तो आनन्द के मारे उछल पड़े थे...........
हे वज्रनाभ ! इसीलिये उद्धव कहते हैं........आप लोगों को तन का भी मोह नही है........शरीर को भी आप लोग ऐसे त्याग देती हैं ....जैसे कोई वस्त्रों को त्याग कर स्नान करनें चला जाए..........
उद्धव स्तुति ही करते जा रहे हैं श्रीराधारानी की ........
आपके इन्हीं त्याग के कारण ही पूर्णब्रह्म आपका सेवक बना ......
आपके त्यागमय प्रेम के कारण ही पूर्णब्रह्म आपके सामनें नाचा ।
सब कुछ त्याग कर.....सब कुछ फूँक कर.......आप लोगों नें जो प्रेम की होली खेली है.........इससे आस्तित्व भी गदगद् है........
हे महाभागाओं ! आपके चरणों में ये उद्धव बारम्बार प्रणाम करता है ।
इतना कहकर फिर साष्टांग प्रणाम करनें लगे थे उद्धव जी ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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