79 आज के विचार
( भँवर के गुंजार में.......)
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 79 !!
क्या उच्चतम स्थिति है श्रीराधारानी की.........
याद रखना वज्रनाभ ! प्रेम में तन्मय होगा वह मन, जो भ्रमर की गुंजार में अपनें प्रियतम का सन्देश पायेगा ....और अपनें प्रियतम को सन्देश भेजेगा । ये सर्वोच्च स्थिति है.....यह सर्वोत्तम स्थिति है प्रेम की ।
देखो ! एक प्रेम की स्थिति होती है ......जिसमें कहा जाता है कि अपनें प्रियतम की ही चर्चा करो, और उसी की चर्चा सुनो ...और तन्मय हो जाओ......पर यहाँ ऐसा नही है......चर्चा सुननें के लिये .....कोई अच्छा वक्ता चाहिये ......और कहनें के लिये भी कोई श्रोता तो चाहिये ना ?
पर यहाँ ? न श्रवण न वर्णन.......न वक्ता न श्रोता.....न कथा न प्रवचन, न सत्संग .....न कीर्तन न ध्यान ..........कुछ नही ......
अपनें आप में ही तन्मय हैं श्रीराधा ......सर्वत्र प्रियतम ही प्रियतम हैं.....आकाश में वही है ....पृथ्वी में वही है.....वृक्ष , लता , पुष्प , पक्षी .....सबमें वही है ......भँवर भी अपनें प्रियतम का दूत लग रहा है ।
उसका गुनगुनाना भी , प्रियतम की बातें सुनाना लग रहा है ।
हे वज्रनाभ ! ये ऐसी स्थिति है ...........जिसमें प्रेमी को ऐसा लगता है कि .........मेरा प्रियतम ही सर्वत्र व्याप्त हो गया ......उसी का राज्य है सम्पूर्ण सृष्टि.........और सब उसी के हैं ।
........धन्य हैं ये श्रीराधा रानी जो प्रेम की शिक्षा करुणावश होकर विश्व को दे रही हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य "भ्रमरगीत" पर ही "प्रेमसिद्धान्त" की परत दर परत खोल रहे हैं , वज्रनाभ के सामनें ।
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क्या गा रहा है रे ! मत गा ! वैसे भी गायन का एक समय होता है .
विचित्र है तू , तब से गाये ही जा रहा है !
श्रीराधारानी नें अपनें कानों में हाथ रख लिए .........मत गा ।
भँवर गुनगुन करता हुआ फिर वहीं आस पास घूमनें लगा था ।
बहुत जिद्दी है तू ! बिल्कुल अपनें मित्र की तरह .........बहुत जिद्दी था वो श्याम सुन्दर..........श्रीराधा रानी फिर भाव में डूब गयीं ।
मैं कोई अपराध नही कर रहा ............गीत गा रहा हूँ .......मेरा स्वभाव है गीत गाना .......मैं गाऊंगा .......मैं यदुपति के गीत गा रहा हूँ ........मैं यदुनाथ के गीत गा रहा हूँ ............भँवर मानों बोला ।
क्यों गा रहा है यदुपति के गीत ? हमें चिढानें के लिये !
क्यों गा रहा है यदुनाथ के गीत ? हमें जलानें के लिये !
क्या समझता है तू ! हम मूर्खा हैं ........हम गंवार हैं तो कुछ समझती नही हैं ! सब समझती हैं हम ।
पर यदुपति और यदुनाथ के गीतों से आप लोगों को आपत्ति क्या ?
भँवरे नें पूछा ।
"राधापति" के गीत गा........"गोपीनाथ" के गीत गा ......."राधाबल्लभ" ....."राधारमण" के गीत गा........हमें कोई आपत्ति नही है .......पर भँवर ! हमारी हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना है कि .......मथुरा के वैभव का वर्णन यहाँ मत कर ......हमें चिढ होती है.......हमारे नन्दनन्दन को छीन लिया तुम लोगों नें ....और "राधानाथ" को "यदुनाथ" बना दिया ।
मत सुनाओ ये सब....हमारे हृदय में और पीढ़ा होती है मधुप ! ....दूखता हैं हमारा दिल....श्रीराधारानी हिलकियों से रो पडीं थीं ये कहते हुए ।
अच्छा ! अच्छा ! नही सुनाते हम .......आपको यदुनाथ के बारे में .......नही सुनाते हम आपको यदुपति के बारे में...ठीक है !
पर आपकी आज्ञा तो माननी पड़ेगी .......चलिये "श्रीराधानाथ" और "गोपीनाथ" के ही गीत सुनाता हूँ......इतना कहकर वो भँवर फिर गुनगुनानें लगा....थोड़ी देर तक श्रीराधा रानी सुनती रहीं ......फिर थोड़ी देर के बाद बोलीं - भँवरे ! बन्द कर , बन्द कर ये सब.....एकाएक चिल्ला उठी थीं ।
क्या हुआ ? अब क्या दिक्कत है ? भ्रमर नें पूछा था ।
पर तू सुना क्यों रहा है हमें ? कहीं तुझे भी राजा महाराजाओं के सभाओं की आदत तो नही लगी ? भँवरे से पूछा ।
क्यों की भँवरे ! राजाओं की सभाओं में जो गीत गाते हैं ना........उनको उपहार दिया जाता है......कहीं तू ?
श्रीराधा रानी सोचती हैं.......भँवरे ! तू कहीं इसलिये तो गीत नही सुना रहा हम को .....कि हम भी तुझे कुछ उपहार दें !
रो गयीं श्रीराधारानी.......हम क्या दे सकती हैं तुम नगर वासियों को ।
हम तो वन में रहनें वाली हैं.......जँगली लोग हैं.....असभ्य .....गंवार....हमसे कुछ अपेक्षा मत करना......हम तुम्हे कुछ नही दे सकतीं......इसलिये बेकार में अपना गला खराब मत करो हमारे सामनें......हाँ ......तुम्हे अगर खूब उपहार चाहिये तो हम उपाय बता देती हैं.......उपाय ये हैं भ्रमर ! कि - राधानाथ के प्रसंगों को तू मथुरा की नारियों को सुना.......वहाँ से तुझे बहुत उपहार मिलेंगें ।
श्रीराधारानी ये सब उन्माद की अवस्था में बोल रही थीं ।
मथुरा से तो हमें बहुत कुछ मिला है .....और मिलता रहेगा.......हे स्वामिनी ! हम तो आपसे लेनें आये हैं....आप ही हमें कुछ दीजिये.....
भँवरे नें मानों श्रीराधा रानी को कहा ।
आवेश में श्रीराधा उत्तर देती हैं -
हम क्या दें तुम्हे ? देखो भ्रमर ! स्वामी जो दे जाता है ना .......वही वस्तु तो रहती है दासीयों के पास.......वे हमारे स्वामी थे हम उनकी सेविकाएँ हैं ........।
हाँ हाँ ........आपके स्वामी नें जो आपको दिया है वही दे दो ......
भँवरा फिर बोला ।
रो गयीं श्रीराधा रानी ............स्वामी नें हम दासियों को बस .......यही आँसू दिए हैं ......"आह" दिया है ..........तड़फ़ दी है ........
पर भँवरे ! ये सब तो हम तुम्हे नही दे सकती ना !
हमारी दशा देख भँवर ! निरन्तर ये आँसू बहते रहते हैं ...........
यमुना जल भी खारा हो रहा है ...............डरती हैं हम कहीं ये वृन्दावन डूब न जाए हमारे आँसुओं में ।
भँवर ! कुछ नही हैं हमारे पास तुम लोगों को देंनें के लिये ..........
चले जाओ ....तुम चले जाओ यहाँ से ................
इतना ही बोल पाईं श्रीराधा रानी.........और फिर अश्रु धार !
उद्धव, बस देख रहे हैं इन सब लीलाओं को ......और चकित हैं ।
शेष चरित्र कल -
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