77 आज के विचार
( श्रीराधारानी का गाया गीत -"भ्रमर गीत")
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 77 !!
जा रे भँवर ! जा ......ना ! मेरे पाँव को मत छू ।
ओह ! उसी नें भेजा है तुझे.....हाँ मैं सब जानती हूँ ......
श्रीराधा रानी उस भँवरे को देखकर बोल उठी थीं ।
क्या कहाँ तूनें ! मान जाऊँ मैं ?
ना भँवर ! अब नही.......देख रो रोकर कैसा बुरा हाल हो गया है ।
तू क्यों आया है हमारे पास ? और मेरे पांव को क्यों छू रहा है ?
देख ! कपटी के मित्र का कभी स्पर्श भी नही करना चाहिये ........तू उसी का मित्र है ना ! और उसी नें तुझे भेजा होगा !
मैने तुझे पहचान लिया है........कैसे पहचाना ? तो सुन !
तू काला ........वो भी काला ........निष्ठुर वो भी है ......तो तू भी है ।
जिन फूलों में तू बैठता है.......रस को चूसकर उसे छोड़ देता है ......
क्यों कभी तेरे मन में बात आयी भी कि उन फूलों पर क्या बीतती होगी ?
ऐसा ही तेरा मित्र है........हम सबसे प्रेम किया........प्रेम का बढ़िया नाटक किया.........हमारे जीवन के सुख शान्ति के रस को चूस कर चला गया .........अब उसे हमारी परवाह भी नही है .........हम सब जानती हैं.......तुम लोग मिले हुए हो .......हट्ट ! जा भँवरे ! ।
उद्धव जी खड़े हैं...सुन रहे हैं , इस प्रेम की उच्च स्थिति का दर्शन कर रहे हैं.....चकित हैं.....श्रीराधा रानी बातें कर रही थीं उस भँवर से , श्रीराधा का बात करना ही...महाकाव्य बनकर प्रकट हो रहा था....अद्भुत !
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श्रीराधा रानी के चरणों से सुगन्ध निकल रही थी ............लाल लाल नख दिखाई दे रहे थे ..........उनकी और ही घूम रहा था वो भँवर ।
ध्येय यही चरण तो हैं ........ध्यान करनें के लिये इन चरणों के अलावा और है क्या ! स्वयं पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण भी तो इन्हीं चरणों का ध्यान करते हैं ।
भँवरा मान नही रहा .........बार बार श्रीराधा रानी के चरणों की मधुरता ...सौन्दर्यता ........सुगन्ध को वो पीना चाहता है ..........पर -
हट्ट , हट्ट हट्ट ! श्रीराधा रानी मुँह फेर लेती हैं ।
पर ये भँवरा तो मानता ही नही है ।
"नही मानेगी ये राधा.......कह देना अपनें मधुसूदन से.....
और हाँ ............अब मैं कुछ कुछ समझ रही हूँ .................
कहीं तुझे मथुरा की नारियों नें तो नही भेजा ?
हाँ.......नागरियों नें ही तुझे भेजा है ............
और ये कहकर भेजा होगा कि .....जा ! श्रीराधा के पाँव के रस को चूसकर उस पाँव को ही बेकार करके आजा !
वो राधा कहीं चल न सके ...................
हाँ ......वो राधा अपनें पांवों से चलकर कभी भी हमारे मथुरा में आसकती है.......और वो अगर मथुरा में आगयी ना ......फिर तो हमारे श्याम सुन्दर उसी के हो जायेंगें ........इसलिये इस भँवरे को यहाँ भेजा है उन नागरियों नें......कहा होगा ......पाँव के रस को ही चूस लेना .........हट्ट हट्ट भँवर ! जा !
और हाँ .....कह देना उन मथुरा की नागरियों से.......राधा कभी नही आएगी तुम्हारे मथुरा........कभी नही आएगी........हमें नही बात करनी उस कपटी से......रखो तुम ही उस कपटी को ।
( श्रीराधा रानी भँवरे को कह रही थीं ..........डाँट रही थीं ......इसी बहानें गीत गा रही थीं .....और इधर - वज्रनाभ नें महर्षि शाण्डिल्य से एक प्रश्न कर दिया )
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गुरुदेव ! श्रीराधा रानी का "कपटी" कहना , श्रीकृष्ण को कपटी कहना ये मुझे प्रिय नही लग रहा....वज्रनाभ नें अपनी बात कही ।
गम्भीरता के साथ ही महर्षि शाण्डिल्य बोले थे -
क्यों न कहें कृष्ण को कपटी ?
महर्षि स्वाभाविक श्रीराधा का ही पक्ष लेते हैं ।
मैं आऊँगा ! मैं आऊँगा लौटकर राधे !
.......कितनी बार कहा था, क्यों नही आये ?
कितनी कपटपूर्ण बातें कीं वज्रनाभ ! - "तुम्हारे समान त्याग हे राधे ! किसी का नही है ........तुम्हारा प्रेम ही मुझे खींचता है.....जब मुझे बुलाओगी मैं आऊँगा"......ये बात कितनी बार कही थी ।
क्या ये सच बात थी ? अगर सच थी तो आना चाहिये था ।
पर गुरुदेव ! ये तो ब्रह्म हैं ......वज्रनाभ नें फिर ब्रह्म की चर्चा छेड़ दी ।
हाँ .......अगर ब्रह्म की दृष्टि से भी देखें तो "माया" किसे कहते हैं ......
और माया किसकी है ?
इसी की है ना माया ? और माया क्या है ? क्या कपट , माया का पर्याय नही है ........क्या माया का ही अर्थ कपट नही है ?
हे वज्रनाभ ! जो ब्रह्म को अच्छे से पहचानता है .........वही कह सकता है कि ब्रह्म कपटी है ........ये बात महर्षि शांडिल्य नें कही ।
ब्रह्म के साथ माया का कपट सदैव रहता ही है .........क्या इस बात को कोई इनकार कर सकता है ?
वज्रनाभ ! माया का अर्थ "कृपा" भी है ........और "दम्भ भी है ।
कृपा के रूप में माया का प्रभाव अपनें भक्तों पर छोड़ते हैं .......और जो संसारी हैं .....संसार में लिप्त हैं ....उनके लिये दम्भ रूपी माया का प्रयोग करते हैं........पर माया का अर्थ होता ही है कपट ।
क्या गलत कह रही हैं हमारी श्रीराधा रानी !......कृष्ण कपटी है ।
वज्रनाभ अब समझे थे .........जो ज्यादा ही करीबी होते हैं ......वो प्रेम से कुछ भी कह देते हैं ...........अति अपनत्व के कारण कहते हैं ....अति आत्मीयता के कारण ये सब कहते हैं .........प्रेम का प्रवाह तेज़ है इसलिये श्रीराधा रानी ये सब कह रही हैं ।
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पर नही .........मैं तो परम पवित्र हूँ......कोई अन्न का आहार लेता है ....कोई फलों का आहार लेता है.....पर मैं तो इतना पवित्र हूँ....कि रस का मात्र आहार लेता हूँ......भँवरे नें मानों श्रीराधा से कहा ।
हँसी श्रीराधारानी तू कितना पवित्र है हम सब जानती हैं ..........
मुझे सुना रहे हो ......कि मैं रस भोगी हूँ.....रस का ही आहार लेता हूँ .....
अरे ! जा ! तेरी शकल सूरत ही बता रही है की...तू कितना पवित्र है ।
शकल सूरत में क्या होगया ? मानों भँवरा अपनें आपको पास के जलाशय में देखनें लगा था ......।
तेरे इस मूँछ में कुंकुम कैसे लगा ? बता ! श्रीराधा रानी नें पूछा ।
उद्धव देख रहे हैं ............भँवरा कुछ नही बोला ......चुप हो गया ।
देख तो कैसा कुंकुम लगा के चल रहा है तू .............
ये कुंकुम हमारी सौत के वक्ष का है ........हम सब जानती हैं ।
वनमाला धारण करता है ना तेरा मित्र.........तो उस वनमाला को हमारी सौतों नें मिलकर अपनें वक्ष से रौंद दिया होगा .........तो वक्ष का कुमकुम वनमाला में लग गया ........अब तू उस वनमाला में बैठकर सीधे यहाँ आगया है .......हँसी श्रीराधा रानी - कम से कम इतना तो ख्याल रखा होता.....कि मुँह में लगे कुमकुम को मिटाकर , अपनें मित्र की प्रतिष्ठा तो बचानी चाहिये थी........या - हे भँवरे ! कहीं हमें ही चिढानें के लिये उन मथुरा की सौतों नें तुझे ऐसे ही तो नही भेज दिया ?
हट्ट ! हट्ट ...अब तो हमें तेरा मुख देखना ही नही है ......
....जा रे भँवर ! जा !
श्रीराधा के इतना कहनें से भँवरा उड़ कर चला गया था ।
श्रीराधा रानी नें देखा ............
शेष चरित्र कल -
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