"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 76

76 आज  के  विचार

( आओ,  प्रेम की सृष्टि में प्रवेश करें..)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 76 !! 


हे वज्रनाभ !   इस जीवन नैया को हम वहाँ  ले चलें .....जहाँ बस प्रेम ही प्रेम हो  ।    यह जो वृन्दावन है ना....यमुना जी हैं  यहाँ के वृक्ष हैं .....पक्षी हैं ......गिरिराज  हैं ........गोपी गोप हैं ........ये एक एक ऐसे दिव्य हैं ......जिनका चिन्तन करनें मात्र से मन प्रेम से तर हो जाएगा ।

महर्षि शांडिल्य आगे बोले थे -  वज्रनाभ  !   मैं तुम्हे जो प्रसंग अब सुनानें जा रहा हूँ .....वो  प्रेम की सृष्टि में बहुत ऊँचा है   ।

प्रेम उसे कहते हैं ....... जहाँ सम्बन्ध कभी  विच्छेद न हो ....मानें जिस सम्बन्ध को कोई काट न सके .......जो टूटनें का  कारण  उपस्थित होनें पर भी न टूटे ........वह प्रेम है   ।

यह बन्धन है.....रस्सी का बन्धन नही है .....गाँठ का बन्धन थोड़े ही है.......अरे ! ये तो हृदय से हृदय का बन्धन है ......यही प्रेम है ।

महर्षि शाण्डिल्य प्रेम रहस्य को उजागर करते हुए कहते हैं  -

जीवात्मा नित्य है .......और परमात्मा भी नित्य है .......नित्य का सम्बन्ध नित्य से हो.....वही प्रेम  टिक सकता है .....टिकता है ।

बाकी  नित्य जीवात्मा का प्रेम  अगर अनित्य संसार से होगा ......तो वह टूटता ही रहेगा......जो संसार में दिखाई भी देता है  ।

हे वज्रनाभ !   इसलिये नित्य का प्रेम नित्य से ही होता है.....अनित्य से नही......आत्मा का प्रेम परमात्मा से ही होता है......यही प्रेम है  ।

बाकी संसार के जो प्रेम हैं.........वो आज हुए .....कल टूट भी गए ....फिर  दूसरे को खोजनें निकल गए ......ये कहते हुए महर्षि हँसे थे ।

प्रेम में हृदय कोमल हो जाता है........क्यों की प्रेम अपनें आपमें ही कोमल है ........और  फिर उस कोमलता में   प्रियतम की आकृति छपनें लग जाती है........फिर प्रेम   प्रगाढ़ होता चला जाता है  ।

वज्रनाभ !  हृदय का पिघलना आवश्यक है.......पाप के कारण ही हृदय कठोर होता है........इसलिये कोमल बनानें का प्रयास करो हृदय को........अच्छा !   अपनें हृदय में आँखें बन्दकर के देखो .......तुम्हारा प्रियतम है  वहाँ  ?   

आज  महर्षि  प्रेम जगत की कुछ  रहस्यमयी बातें बता रहे थे   ।

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हे वज्रनाभ !    प्रेम के   क्रमबद्ध  स्वरूप का दर्शन करो ............

पहले है प्रेम,  फिर उसके बाद है प्रणय ,  प्रणय के बाद है स्नेह, फिर मान, मान के बाद  राग-अनुराग ,  फिर भाव, फिर महाभाव,  और महाभाव के बाद आता है  दिव्योन्माद.......हे  यदुवीर  वज्रनाभ !     प्रेम का अंतिम रूप है .........दिव्य उन्माद  ।

ये  ऊँची स्थिति है .........प्रेम में इससे ऊँची कोई स्थिती नही  ।

इस स्थिति में  प्रेमी को ऐसा लगनें लगता है  कि ......मेरे प्रियतम ही सर्वत्र हैं ...... आकाश में  मेरा प्यारा है ......चन्द्रमा में मेरा  प्रिय है .....इन  फूलों में वही  मुस्कुरा रहा है......फूलों में  भँवरे के रूप में मेरा प्रिय ही है.......जल , थल , नभ   सर्वत्र उसे  अपना प्रियतम ही दिखाई देता है ......इतना ही नही ........वो प्रेमी  बादलों से ......पक्षियों से ......चन्द्रमा से.....बातें करनें लगता है......रूठता भी है  फिर स्वयं   मनाता भी है.......इसी का नाम है  "दिव्योन्माद" ,  महर्षि बोले ।

मैं तुम्हे  अब जो प्रसंग सुनानें जा रहा हूँ वज्रनाभ  !   ये उसकी ही भूमिका है.....ये  एक गीत है.....जो  प्रेम की  उच्च अवस्था में गाया गया है  ।

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उद्धव  देख रहे हैं   - 

श्रीराधा रानी   उद्धव से चर्चा करते हुये  मूर्छित हो गयी हैं  ।

सब सखियाँ   पँखा करनें लगी थीं......कोई जल का छींटा दे रही थी.....
पसीनें  उस गौर अंग  से निकल रहे थे......सुगन्ध फैलनें लगी थी वृन्दावन में......श्रीराधा के स्वेद से सुगन्ध निकल रहा था  ।

उद्धव  कुछ समझ नही पा रहे .......इतनी दिव्य सुगन्ध ! 

तभी उद्धव नें  देखा......गुनगुन करता हुआ  एक  भँवरा आया......

दूर से आया था......सुगन्ध  सूंघकर ही आया था....कमल के पराग का रस लेनें वाला ये भँवरा........श्रीराधा के पसीनें से  कमल की सुगन्ध ही तो  आरही थी........आगया  था उड़ते हुए .......सूँघनें लगा था  श्रीराधारानी  के चरणों को   बारबार  ।

उस भँवरे  के स्पर्श से   श्रीराधा की मूर्च्छा टूटी थी......

उठकर बैठ गयीं.........फिर ध्यान से देखनें लगीं........

फिर हँसी ..........ओये !  .कपटी के मित्र !     भँवरे को कहा  ।

हट्ट !   जा  यहाँ से ..........चिल्ला पडीं  थीं श्रीराधा रानी ।

इस प्रसंग को  "भ्रमर गीत"  कहते हैं   वज्रनाभ !   

उद्धव  के कुछ समझ में नही आरहा .........कि  ये  कैसा उन्माद  ? 

महर्षि शाण्डिल्य  प्रेम रस में डूब कर इस प्रसंग को बता रहे थे ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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