"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 64

64 आज  के  विचार

( हंसदूतम् )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 64 !!

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मूर्च्छा कैसे टूटे ?  

    क्यों की  यमुना में ही  कृष्ण को याद करते हुए मूर्छित हो गयी थीं  श्रीराधारानी ।

उनके रोम रोम से  "कृष्ण" कृष्ण"  कृष्ण"   बस यही ध्वनि आरही थी ।

आकाश से एक हंस उतरा था  उसी समय ...........

वो सीधे  श्रीराधारानी के पास आकर खड़ा होगया   ।

जाओ !  जाओ  यहाँ से !   सखियों नें उसे भगाना चाहा .........पर नही वो तो  श्रीराधारानी को ही देखे जा रहा था  ।

कौन है  ये  ?      सखी !  किस दिशा से आया है  ?     और  हमारी लाडिली को ही देखे जा रहा है .......!

ललिता सखी नें सबको कहा -  ये मथुरा से आया है .........कृष्ण का संगी साथी होगा....तो क्या  वहाँ मथुरा में कृष्ण   हंस से खेलते हैं ?

और क्या  "मथुराधीश" हैं ..........यहाँ की तरह "गोपेश" थोड़े ही हैं  .....

बन्दर बछड़े गाय  यही तो थे  यहाँ उनके संगी साथी ............

पर  वहाँ,   राजसी ठाट बाट है......हंस से खेलता है हमारा कन्हैया  ।

ललिता उठीं ........पकड़नें को बढ़ीं आगे ..........ये भागा नही .....न  हीं उड़ा ........ललिता सखी के पास प्रसन्नता से  चला आया था   ।

देख  हंस !  .........तू क्या सच में  उस छलिया का खिलौना है ?  

हंस !   हमसे झूठ मत बोलना .............देख !   क्या ये सच है कि  हमारे नन्दनन्दन नें  तुम्हे  दूत बनाकर भेजा है यहाँ   ?    

अगर ये सच है .......तो  तुम्हे  यहाँ कुछ दिन रहना होगा .......नन्दगाँव और बरसानें को  देखना होगा .........यहाँ के लोग कितनें बेचैन हैं .....देखना होगा तुम्हे यहाँ के लोगों की बैचैनी को ......तभी तो तुम जाकर सुनाओगे ना  अपनें  स्वामी  को ...............

ललिता सखी  हंस को देखती हैं ..............फिर  अपनी स्वामिनी श्रीराधा रानी को ........देख ! हंस  देख !   यहीं हैं  तेरे स्वामी  की  स्वामिनी  .......देख इन्हें ..........कैसी दशा बना दी है इनकी तेरे  स्वामी  नें ........कहना  उससे  जाकर ...............।

हे वज्रनाभ !  इस तरह  ललिता सखी नें   अपनें पास उस हंस को सात दिन तक रखा.....वही  लेकर जाती थीं   नन्दगाँव ......यशोदा को दिखातीं ........नन्दराय को दिखातीं .......ग्वाल बालों की  दिनचर्या .......गोपियों का क्रन्दन.......और श्रीराधारानी का  वो महाभाव  ।

वो हंस  मथुरा का था ........कृष्ण को  यमुना में रोते हुये   "राधा राधा राधा" कहते हुए  वो सुन रहा था.......हंस   ये सब देखकर   विचलित हो उठा  और वहीं से उड़ता हुआ  वृन्दावन पहुँच गया था  ।

सात दिन तक रहा वृन्दावन में  वो हंस.......ललिता सखी नें  अब उस हंस   को  विदा करते  हुए कहा .....हे मथुरा के राजहंस !    मेरी एक प्रार्थना है अब ........तुमनें जो जो देखा है.......जो दशा है इस  वृन्दावन की  कृष्ण के वियोग में ,   वो सब जाकर कहना ।

लो .........मेरे हाथों  मोती खाओ ।       मोतियों का आहार देकर ललिता सखी नें  उसे  उड़ा दिया   मथुरा के लिये  ।

ओह !   वो  हंस  बदल गया था वृन्दावन में .........उसको बस  अब "वृन्दावन और श्रीराधा"  यही  सूझ रहा था.....वो  बोल भी रहा था  "राधा राधा राधा"   ।

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साँझ का समय हो गया है .....सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहे हैं......

गौधूली वेला हो रही है..........

गवाक्ष में खड़े   कृष्ण   वृन्दावन की ओर  निहार रहे हैं  ।

रोमांच हुआ कृष्ण को .......जब  हंस  उठता हुआ  कृष्ण के सामनें आकर खड़ा हो गया ......रोमांच इसलिये हुआ  कि  'अपनें लोगों"  की खुशबु से सरावोर था ये.......

कृष्ण भाव विभोर हो उठे थे ........जब  "राधा राधा राधा" नाम उच्चारण करनें लगा था वो हंस.........

ओह ! 
अपनी गोद में रख लिया उस हंस को कृष्ण नें .........और  बड़े प्रेम से मोती खिलानें लगे थे ...............

हंस !  मेरे मित्र !  क्या तुम  सच में  मेरे वृन्दावन हो आये  ? 

क्या मेरी राधा तुमसे मिलीं ?    बताओ ना !   वो ठीक तो हैं ना ? 

  और हाँ हंस !   क्या  उस मण्डली में आज भी मेरी चर्चा होती है  ?       

मेरी प्राणबल्लभा  के दिन कैसे कटते हैं  ?      हंस  !  ये  गुप्त बात है   किसी को कहना नही .......मेरा तो इस मथुरा में  बिल्कुल मन नही लगता .....बस  वृन्दावन की याद आती रहती है.......कैसा है मेरा वृन्दावन  ?  

मेरे ग्वाल बाल कैसे हैं  ?   मेरी मैया ?    रो गए कृष्ण.....मेरे बाबा ?

और हाँ  मेरी गैया  ?         बताना हंस  !    सब कैसे हैं  ?  

तू भाग्यशाली है  कि     मेरी राधा  को तेनें देखा  !     और मुझे सब पता है   ललिता सखी नें  तुझे बड़ा प्रेम दिया है.....उनकी गोद में बैठनें का  तेरा सौभाग्य !   इतना कहकर  अपनें हृदय से लगा लेते हैं उस हंस को  ।

हंस  अब बोलता है........"प्रेम की भाषा सब समझते हैं   वज्रनाभ ! "   

हंस नें  जो  वर्णन करके बताया है..........वो अद्भुत है  ।

महर्षि शाण्डिल्य  नें कहा   ।

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हे मथुराधीश  !       मैं क्या कहूँ  उस वृन्दावन के बारे में ..............

हंस  नें बताना शुरू किया था   ।

डूब जाएगा  वृन्दावन ............उन गोपियों के आँसुओं की बाढ़ में डूब जाएगा  वृन्दावन  ........बचा लो  केशव !  बचा लो  ।

आपकी मैया यशोदा .......अभी भी  माखन निकालती हैं ......और  नित्य आपकी प्रतीक्षा करती हैं ...........कोई लाख कहे  कि ...उसका लाला अब नही आएगा  वृन्दावन .......पर  वो मानती कहाँ  ? 

आँखों से नही दिखाई देता उन्हें  अब.........क्यों कि  आँसू बहुत बह चुके हैं आँखों से  ........सुनाई भी कम देता है ......क्यों की  आँखों का सम्बन्ध कान से भी  तो होता है  ।

वो मैया यशोदा माननें को राजी ही नही है  कि .........आप देवकी के पुत्र हो .............मैया यशोदा का कहना है   कि  कृष्ण  मेरा ही पुत्र है ....चाहे दुनिया कुछ भी कहती रहे ............वो नही मानतीं  ।

एक दिन .........स्वयं को रस्सियों से बाँध लिया  मैया यशोदा नें ......

गोपियाँ दौड़ीं......मैया मैया !  ये क्या कर रही हो  ?   

ओह !   बहुत दर्द होता है.........बहुत कष्ट होता है......मुझे तो हो रहा ..   मेरे  अत्यन्त कोमल कन्हाई को कितना कष्ट हुआ होगा ....जब मैने उसे बाँध दिया था  ।

मेरे ये हाथ टूट क्यों नही जाते.........वो अपनें हाथों को  पत्थरों में मारती हैं ......गोपियाँ जैसे तैसे  उन्हें  शान्त करती हैं .........पर  ।

हे मथुराधीश !    आपके बाबा नन्द के बारे में  तो   मैं क्या कहूँ ।

गम्भीरता ओढ़ ली है उन्होंने........समाज के सामनें  गम्भीर बने रहते हैं ...........कोई कुछ कहता है  आपके बारे में ......तो  ज्ञान सुना देते हैं ....कौन किसका है ?    ये जगत  बिछुड़नें के लिये है ! 

पर अकेले में  रोते हैं .....बहुत  रोते हैं ........और  जब कोई उन्हें पकड़ लेता रोते हुए ........तो कहते हैं   आँखों में कुछ पड़ गया था  ।

रात रात में  अज्ञात से बातें करते हैं........."कैसे लाता  मैं उसे यहाँ वृन्दावन ..........क्या इन लाठियों से   उन जरासन्ध जैसे आतंककारी का हम सामना कर पाते ?........और  हमारी बात नही है ......हम तो मर भी जाएँ ....पर  कृष्ण  को  हम कैसे बचाते  ......पूरा बृज मुझ बूढ़े को ही दोष देता है .....कि मैं क्यों नही लाया  कन्हाई को यहाँ  !   

इतना ही नही......हे गोविन्द !      गोप ग्वालों की दशा तो और विचित्र हो गयी है......वो तो  रात रात भर सोते नही हैं ........कब सुबह हो ...कब सुबह हो .....और सुबह होते ही.....चल देते हैं  मथुरा की ओर  ।

साँझ तक,   कभी कभी रात में भी  खड़े रहते हैं मथुरा की सीमा में ......

आया !  वो  धूल उड़ रही है  ....शायद उसका रथ आया ........आज तो आएगा ही.......मैं कह रहा हूँ ।

"आज नही आएगा"

एक ग्वाले नें क्या बोल दिया......"आज नही आएगा".......बस सब लोग उसे  पीटनें लगे....क्यों अशुभ अशुभ बोलता है......वो आएगा.....वो आएगा......ऐसे ही  ग्वाल बाल  अपना समय बिता रहे हैं  ।

इतना कहकर हंस चुप हो गया था .........अश्रुओं से  कपोल भींग गए थे कृष्ण के ............हिलकियाँ चल ही रही थीं    ।

हंस !   और मेरी  राधा ?      इतना ही पूछ  सके थे ।

श्रीराधा !      ओह !   उनके बारे में  मैं क्या कहूँ  ?    

"कृष्ण"  कहते ही   उन्हें  उन्माद चढ़ जाता है......वो  मूर्छित हो जाती हैं ..........हे   कृष्ण !      जब  अकेले में मूर्छित हो जाती हैं वन में,   तब तो  स्थिति और विचित्र हो जाती  है ................

सखियाँ  उनके पास हैं  नहीं .........और अकेले में   उन्माद के कारण  मूर्छित हो गयी हैं .........उस  समय   हिरणियाँ  सब दौड़ पड़ती हैं ......और  अपना घेरा बना लेती हैं ...........अपनी जीभ से  चाटकर उठाती हैं   श्रीराधा रानी को  ।

ओह ! कितनी भाग्यशालिनी हैं वृन्दावन की हिरणियाँ ......

कृष्ण रोते हुए   कहते हैं  ।

नही नही .......कुछ नही ....बस कृष्ण !........श्रीराधा रानी  अब केवल तुम्हे ही पहचानती हैं ...............

मोरकुटी  जाती हैं.......गहवर वन में  बैठती हैं........साँकरी खोर में  खड़ी रहती हैं .........पर आप नही आते  तो  फिर रोना शुरू कर देती हैं .........आश्चर्य !    श्रीराधा ही नही रोतीं .......पूरा बरसाना रोनें लग जाता है.........वृक्ष पक्षी  सब  साथ देते हैं  .......सब रोते हैं ।

जब से आप आये हो  वृन्दावन से.......तब से  श्रीराधा नें कुछ खाया नही है....हाँ    तुम्हारी कसम देकर  कोई खिला दे  तो खा लेती हैं.....पर  ।

हे कृष्ण !  कीर्तिरानी  और बृषभान जी  बहुत दुःखी रहते हैं .....स्वाभाविक है  अपनी लाडिली की ऐसी स्थिति देख कौन दुःखी नही होगा.............

श्रीदामा भैया   वो भी समझाते हैं  सम्भालते हैं  अपनी बहन श्रीराधा को...पर  - भैया !     क्या कहा था  तुमसे  उन्होंने ?      उफ़ !   ये प्रश्न हजारों बार कर चुकीं है   फिर भी.........राधा !    वो आएगा ....उसनें कहा  था .......वो आएगा .......फिर  क्यों नहीं  आये ?    कितना समय तो हो गया  है ..........श्रीदामा कुछ नही कह पाते  ।

हे  कृष्ण !    मैं जा रहा हूँ .........मैं वृन्दावन में ही रहूंगा ..........मेरा इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा  कि ......श्रीराधा के चरण  रज की प्राप्ति मुझे होगी .......मैं  आपके उन दिव्य सखाओं के साथ खेलता  रहूंगा .........रोता रहूंगा  आपकी सखियों के साथ .............मैया यशोदा मुझे माखन देगीं .......मैं धन्य हो जाऊँगा .......।

कृष्ण  नें  हंस को  चूमा......उस प्यारे से हंस को अपनें हृदय से लगाया.....अपनें गले से  मोतियों की माला उतार कर  उसे पहना दी ।

मैं जा रहा हूँ.....पर फिर ..हंस  रुका......मैं एक बात पूछना चाहता था -

क्या  पूछो  हंस ! .....कृष्ण नें  कहा  ।

आपनें क्यों ऐसी दिव्य प्रेम की भूमि छोड़ दी  ?

   इतनें प्रेमीजन क्यों छोड़ दिए  ?

कृष्ण  इसका क्या उत्तर देते हंस को  ।

पर यहाँ  मथुरा में  कुछ नही है.........काम हो गया है आपका,  कंस मर गया है ......अब  चलो वृन्दावन .........नही नही,  आपके लिये यहाँ कोई रोनें धोनें वाला नही है ............आप  यहाँ से चले भी जाओगे  तो  मथुरावासियों को कोई  दिक्कत नही होगी ......पर   आप वृन्दावन चले आओगे  ना ......तो बेचारे  गोप, गोपी मैया, बाबा,  श्रीराधा रानी सबके प्राण वापस आजायेंगे........मुझे जो कहना था मैने कह दिया ....मैं अब जा रहा हूँ  वृन्दावन .........वो हंस उड़ चला ......

कृष्ण  देखते रहे  उस प्यारे से हंस को .....और अश्रु बहाते रहे  ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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