61 आज के विचार
( "श्रीराधारानी का स्वयं से सम्वाद" - प्रेम की विचित्र स्थिति )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 61 !!
******************************
रात्रि में नन्दगाँव से लौट आयी थीं ललिता सखी .........
सब कुछ तो स्पष्ट बता दिया था महर्षि शाण्डिल्य नें ।
सोचकर गयी थी ललिता महर्षि के पास कि ........कोई तन्त्र मन्त्र इत्यादि हो तो ..........क्यों की श्रीराधा की ऐसी दशा देखी नही जा रही थी इन सखियों से ........पर महर्षि शाण्डिल्य नें कुछ और ही रहस्य उजागर कर दिए थे .......कृष्ण परब्रह्म हैं ........और श्रीराधा उनकी आल्हादिनी शक्ति ..........ये दोनों अनादिकाल से हैं .....और रहेंगें ...........ये सब "वियोग संयोग" लीला है ...........और इस लीला में अब सौ वर्ष का लम्बा वियोग !
ओह ! सौ वर्ष का ? ललिता सखी को घबराहट होती है ।
वो पहुँच गयी है बरसाना.......कुञ्ज में ही मिलेंगी श्रीराधा........क्यों की जब से कृष्ण मथुरा गए हैं ......तब से महल में कम ही रहती हैं श्रीराधा रानी ।
अकेली हैं कुञ्ज में .........अर्धरात्रि होगयी है .........
पर अकेले बोले जा रही हैं ..........एक लता की ओट से सुनती है सारी बातें ललिता सखी .....श्रीराधा जी बोल रही हैं -
***********************************************
ललिता ठीक कहती है ........मैं इन दिनों अस्वस्थ हो गयी हूँ ........
अस्वस्थ तो होऊँगी ही ..........जो न माननें योग्य बातें हैं उन्हें भी मैं मान लेती हूँ .......और फिर अकेले बैठी रोती हूँ ।
अब देखो ! ये भी कोई माननें योग्य बात है कि ...........मेरे जो सर्वस्व हैं ......जीवनधन हैं ..........प्राण हैं मेरे .........उन्होंने मेरा परित्याग किया और मथुरा चले गए ............भला ये सत्य हो सकता ?
वो कहाँ करुणा निधान .........और मुझ पदाश्रिता को त्यागेंगें ?
अरे ! फिर कुछ देर श्रीराधा रानी हँसती हैं ..........कुञ्ज गूँज जाता है श्रीराधा की हँसी से .............
जैसे तैसे अपनी हँसी को शान्त करती हैं.........सुना है कंस की दासी कुब्जा को भी अपना लिया.......भैया श्रीदामा बता रहा था कि .......कंस दासी कुब्जा है ना .......जो तीन जगह से टेढ़ी थी .......उसे अपना लिया कृष्ण नें ............
अब जो कुब्जा जैसी को अपना सकता है ........वो भला मुझे त्यागेगा ?
नही वे करुणावान हैं ...........वे किसी का त्याग नही करते ...........
मुझे तो लगता है वे मथुरा भी नही गए.....यहीं कहीं छुप गए हैं ।
अक्रूर आया था......हाँ उसके रथ में बैठे भी थे मेरे प्राणधन .....पर !
चार कदम ही तो है आगे मथुरा .............चले गए और आ भी गए ।
पता नही क्यों इतनी सी बात को लेकर, इतनी ऊहापोह ?
सखियाँ हैं.......आपस में खूब बोलती हैं बतियाती हैं .....पर मेरे सामनें आते ही ......वो चुप हो जाती हैं ......मुझे कुछ नही बतातीं ।
पर मैं क्या समझती नही हूँ .....................
अब हे कृष्ण ! तुम ही समझ लो ..........मैं तो कहीं जानें वाली हूँ नही ......इस बृज को छोड़कर मैं कहीं नही जा सकती ...........
क्यों जाऊँ ! तुम्हारी चरण धूल यहीं है...........इसी वृन्दावन में है .......
मथुरा में कहाँ है तुम्हारी चरण धूल !
वहाँ तो पादुका पहनते हो ना ! पर मैने तुम्हे कभी वृन्दावन में पादुका पहनें नही देखा.........इसलिये तो यहाँ तो धूल की महिमा है...........यहाँ के रज की महिमा है ।
अब ललिता कहकर गयी है कि .......लाडिली ! तुम्हारा दुःख देखा नही जाता .......इसलिये मैं नन्दगाँव जा रही हूँ ......पगली है वो .......नन्दगाँव में जाकर क्या करेंगी वो ? कहनें लगी महर्षि शाण्डिल्य के पास जाऊँगी ......गण्डा तावीज़ मन्त्र तन्त्र ये सब करवाऊँगी .........तुम्हारी नजर उतरवाऊँगी .................
हँसती हैं श्रीराधा रानी.......अब मुझे कौन नजर लगाएगा ? रूप सौन्दर्य तो अब रहा नही......तन्त्र मन्त्र क्या काम करेगा मुझ पर .........
"भूत" लगा है शायद तुम पर...........ललिता कहती है ...........
तभी तुम लाडिली ! कभी हँसती हो कभी रोती हो ...........।
अब उस ललिता को कौन समझाये ......मुझे भूत नही लगा ....नन्द का पूत लगा है ................हँसती हैं जोर जोर से ............
ललिता सखी ये सब देखकर रोती हैं ..........हिलकियों से रोती हैं ।
पर फिर सम्भल गयीं ........ये दोनों की लीला है ........ब्रह्म और आल्हादिनी की ...............
ये लीला है ?
महर्षि की बातें यादकर कुछ हृदय शान्त होता है ललिता सखी का ।
****************************************************
"पीली पोखर" सूख गयी है ....साँकरी खोर अब सूनसान है .........मोर कुटी में अब मोर नही आते ..............पर जब तुम थे कन्हाई तब ये बरसाना कैसा होता था !
फिर श्रीराधा रानी का भाव बदल गया ..............
बेकार तो मैं थी ...........बिल्कुल प्रेमशून्य ..........बेचारे थके हारे मेरे पास आते थे .......उन्हें आल्हाद मेरे ही सानिध्य से मिलता था ....पर मैं क्या करती थी ? उनके आते ही मान कर बैठती थी ........रूठ जाती थी ..........मैंनें प्रेम को नही जाना .......मैं प्रेम से रहित, शुष्क ।
और वे ! वे तो प्रेमनिधि ....प्रेम के घनी भाव ..........उनमें तो मात्र प्रेम ही प्रेम था और मुझ में ? मैं तो एक मूर्खा नारी !
हाँ उन्हीं के प्रेम नें तो मुझे गर्विता बना दिया था ..........बार बार रूठनें में मुझे आनन्द आने लगा था .............ये कैसा प्रेम था तेरा राधा ?
तेरे रूठनें से उन्हें कितना कष्ट होता होगा .......कभी सोचा ?
स्वयं से सम्वाद कर रही हैं श्रीराधारानी !.......ललिता तो लता की ओट से देख रही है सुन रही है ............
अपनें इसी असीम प्रेम के कारण वो पराधीन हो जाते थे ...........मेरी एक स्मित हास्य के लिये वे क्या नही करते थे !
पराधीन ........मेरे पराधीन हो गए थे .........वे ।
हँसी गूँजती है फिर कुञ्जों में श्रीराधा रानी की ..............
कितनी अद्भुत बात - स्वयं ही प्रेम प्रदान करते हैं .....और फिर स्वयं ही उस प्रेमके पराधीन हो जाते हैं .............
पर मैने उन्हें बहुत दुःख दिया ...............प्रेम का अभिप्राय प्रेमी को दुःख देना नही होता ..............प्रेम तो सुख देकर प्रसन्न होता है ।
ओह ! आषाढ़ बीत रहा था , सावन का महीना आरहा था ......मैने ही उनसे कहा ......झूला डालना अमुआ की डाल में ...........फिर तुम और हम दोनों मिलकर झूला झुलेंगें .................
मेरी बात उन्होंने टाली कब थी जो इस बार टाल देते ।
तभी आकाश से उड़ते हुये दो पक्षी यमुना में गिर गए ............मैं बहुत दुःखी हो गयी .................तब मेरे पाँव पकड़कर हा हा खाते हुये क्या नही किया था कृष्ण नें......................
मैने कहा .......काली नाग के कारण हमारे पक्षी मर रहे हैं यमुना में ....
मुझे झूला झुलाना चाहते हो तो जाओ ! कालिय नाग को नथ कर लाओ .......हे कृष्ण ! कालिय नाग की रस्सी से झूला बनाया गया हो उसी में .....मैं झूलूंगी ..............।
कितना कष्ट दिया मैने .....................पर मेरी बात मानते हुये वे गए .....कालिय नाग को नाथकर ले आये ................और उसी नाग की रस्सी बनाकर हम झूले में झूले थे ।
पर ये प्रेम नही है ..........प्रेम अपनी बात नही मनवाता ..........वो तो प्रेमी की इच्छा में ही अपनी इच्छा समझता है ............
मैने प्रेम को कलंकित किया है ........मैं कलंकिनी हूँ .............
एकाएक रक्त मुख मण्डल हो गया था श्रीराधा रानी का ।
तुझे जीनें का अधिकार नही है ........राधा ! तू मर क्यों नही जाती !
स्वयं को ये कहते हुए श्रीराधा रानी यमुना की ओर दौड़ीं ।
लाडिली ! नही ! पीछे से ललिता सखी नें पकड़ लिया ।
मुझे छोड़ दे ......मुझ मरनें दे ......ललिता ! मैने अपनें प्राणधन को बहुत दुःख दिया है ........मुझे छोड़ दे ......छोड़ दे !
श्रीदामा भैया कुछ कह रहे थे.....उनको उनके सखा नें कहा होगा ना !
मैं तो कुछ पूछ भी नही पाती अपनें श्रीदामा भैया से .........
क्या कह रहे थे भैया ? क्या कहा उनसे मेरे प्रियतम नें ।
श्रीदामा ! मुझे बस एक बात का दुःख होता है .........कि मेरे कारण वृन्दावन में कोई मृत्यु का ग्रास न बन जाए ..............अगर ऐसा हुआ ना .....तो ये कृष्ण अपनें आपको कभी क्षमा नही कर पायेगा ।
ललिता के मुख से ये सुनकर ...................
ओह ! क्या ऐसा कहा था मेरे प्राणनाथ नें ?
हम मर जायेंगी तो उन्हें कष्ट होगा ? हाँ ....कुछेक वर्षों में वो आये यहाँ और हम अगर मर गयी हों तो .......कितना कष्ट होगा उन्हें ।
नही नही ..........हम मरेंगीं नही .........हम हँसती रहेंगीं ........ताकि उन्हें हमारा हँसता चेहरा दीखे ..........उन्हें अच्छा लगेगा ............
मैं अब रोऊँगी भी नही .......आज के बाद मैं हँसती रहूँगी ........क्यों की क्या पता कब आजायें कृष्ण यहाँ ! और हमें रोती हुयी देखें तो , उन्हें कष्ट होगा ना ! .............राधा हँसेगी ........तू भी हँस ललिता ! सब हँसो ..........क्यों की उसे अच्छा लगेगा ...............
ललिता नें दूसरी ओर मुँह फेर लिया ..........क्यों की उसके नेत्रों से सावन भादौं शुरू हो गए थे ...................
उफ़ !
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
0 Comments