"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 60

60 आज  के  विचार 

( प्रेमाश्रु - प्रवाह  )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 60 !! 

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शीतऋतु थी ........वृन्दावन में शीत का प्रकोप शुरू हो गया था ।

महर्षि शाण्डिल्य  अपनी बात बता रहे थे -

"सन्ध्या होनें वाली थी  .......मैं  सन्ध्या - गायत्री करनें के लिये तैयार ही था  कि ...........सामनें  एक  नौका आकर खड़ी हुयी .........हे वज्रनाभ !  मेरी कुटिया  यमुना जी के किनारे पर ही थी..........तो मैने देख लिया ।

एक सखी उतरी उस नौका से...........श्रीराधा रानी ?  

मैं  आनन्दित हो उठा था .........पर   आल्हादिनी ऐसे  कैसे आतीं  ?  

महर्षि !    मैं ललिता सखी..........उन आल्हादिनी की  निज सहचरी नें  मुझे प्रणाम किया था  ।

ओह !   आओ  !    मैं आपको पहचानता हूँ    मैने कहा ....... और  एक आसन देकर   उन सखी को  प्रणाम किया  ।

वो कुछ देर तक बोलीं ही नहीं .............पर  श्रीराधा की सखी  थीं  वो कोई साधारण नही ...................

महर्षि !    मैं आपसे कुछ कहनें आयी हूँ .........और  पूछनें भी .........हे महर्षि !  आप ही  हमारा समाधान कर सकते हैं........कृपा करें !

अश्रु बह गए थे ये कहते हुए सखी के .........आँसू पोंछे .........अपनें आपको सहज बनाया ।...........हाँ !  आप कह सकती हैं  !   मुझ में इतनी हिम्मत कहाँ  जो आल्हादिनी की प्रिय सखी को मना कर देता   ।

ललिता सखी   अब  मुझे बतानें लगी थीं   ।

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महर्षि शांडिल्य   !       हमारी स्वामिनी की दशा ठीक नही है ..........

वो अब  लोगों को पहचानती भी नही हैं ...............सुबह उठती हैं  श्रीराधा    तो जिद्द करनें लग जाती हैं ........कहतीं हैं   दही बेचनें जाऊँगी ......माखन बेचनें जाऊँगी नन्दगाँव ........हम बहुत समझाती हैं ......

..ललिता सखी  को बीच में अपनी बात रोकनी पड़ी ........क्यों की  गला रुंध गया था उनका .........अश्रु बरस पड़े थे   ।

हे वज्रनाभ !   मैने  जल पिलाया  ललिता सखी को .............फिर कुछ देर बाद   उन्होंने बोलना शुरू किया  ............

महर्षि !    उन्माद बढ़ता जा रहा है   श्रीराधारानी का ............

कल की बात ............. कहनें लगीं -   महारास है आज  वृन्दावन में  मैं जाऊँगी .........चलो !     अरे !  ललिते !     तू इस तरह मुझे  क्यों देख रही है ................मुझे सजा दे ..........मेरा श्रृंगार कर .....आज महारास है ..............मुझे नहलाओ ...........उबटन लगाओ .............मैं सुन्दर दिखूँ  अपनें प्यारे को ..................ऐसी सजाओ  मुझे  ।

"पर  वो तो मथुरा गए"..........एक  सखी नें अपना मुँह खोल दिया ।

बस इतना सुनना था  कि ..............वो  फिर मूर्छित हो गयीं  ।

क्या करूँ मैं,   कुछ समझ नही आरहा महर्षि ! .....आपके पास आयी हूँ ......कि  कोई उपाय तो होगा इसका.........आप कुछ  कहें  .......ललिता सखी मेरी ओर देखनें लगी  ।

क्या उपाय बताऊँ  मैं  ललिता !       "कृष्ण अब शायद ही आएं  इस वृन्दावन में"........मैने  इतना क्या कहा........ललिता  सखी के देह में कम्पन होनें लगा था.......आप ऐसा न कहें ...........हमारी स्वामिनी  शरीर त्याग देंगीं .......फिर  हम भी कहाँ बचेंगीं ....! 

वज्रनाभ !  मैं सबको समझा सकता था .......पर  इन सखियों  को कैसे समझाऊँ  ?    ये  तो प्यार की मारी हैं ...........इन्हें  विधाता भी नही समझा सकता ........और क्या समझायें  ? 

महर्षि !   बड़ी बुरी  स्थिति है..........सन्ध्या को मूर्च्छा टूटी  तो  चरण  दवा रही थीं  कीर्तिरानी   अपनी लाडिली के.......आँसू गिरा रहे थे  अपनी प्यारी पुत्री को देखते हुए   श्री बृषभान जी  ।

ललिते !         उठीं  एकाएक   श्रीराधा रानी  ।

ओह ! क्या बताऊँ  महर्षि !     लाडिली का क्रन्दन अब सुना नही जाता ।

ये कौन ?        मैया कीर्तिरानी को देखते हुए पूछनें लगीं   श्रीराधा ।

और ये कौन हैं  ?   बृषभान बाबा को भी देखकर पूछती हैं ।

ये  हैं   आपकी माता कीर्तिरानी .........मैने अपनें आपको सम्भालते हुये उत्तर दिया ........और ये हैं   बरसानें के मुखिया  बृषभान जी  .....और आपके  पिता जी  ।

"फिर मैं कौन हूँ ".........उफ़ !  क्या बीत रही होगी  हम पर  ये सब सुनते हुए .........मैया कीर्ति रोनें लगीं ..........तो मैने ही मना किया   आप मत रोइये......नही तो मैं सम्भाल नही पाऊँगी  ।

बोल ना !  मैं कौन हूँ  ?     फिर पूछा था मुझ से   ।

आप  हैं  श्रीराधा  !    मैने उत्तर दिया   ।

कौन  श्रीराधा ?        ओह !  ये कैसा प्रश्न था   ।

क्या उत्तर देती मैं  श्रीराधारानी  को..............

बताओ ना !   राधा कौन है  ?      मैं राधा हूँ ......तो  राधा का परिचय ?

मैं  हिलकियों से रो गयी ...........हे विधाता !    अब  लाडिली का दुःख  इससे ज्यादा देखा नही जा रहा .................

तू रो क्यों रही है ............बता ना   राधा कौन है  ? 

श्रीराधा नें फिर पूछा था मुझ से  ।

श्याम की राधा !    कृष्ण की राधा !     कन्हाई की राधा  ! 

बस इतना सुनना था कि ...........हा  श्याम !  हा कृष्ण ! हा प्राणधन !  यही कहते हुए  फिर मूर्छित हो गयीं   ।

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अब तो महर्षि !  ऐसी स्थिति हो गयी है कि.........श्रीराधा को कोई "कृष्ण"  नाम भी न सुना दे.....हम सब सावधान रहती हैं ........क्यों की  मात्र कृष्ण के नाम से ही  उन्हें उन्माद चढ़ जाता है  ।

पर कब तक  न सुनाएँ ..........श्याम तमाल है .......वृन्दावन में श्याम तमाल के  अनेक सघन कुञ्ज हैं ............आकाश में श्याम घन हैं  ।

इन सबको देखकर भी कभी कभी  उन्माद ..............

महर्षि !     चार दिन पहले की बात है .................श्याम तमाल को देखकर  मेरे श्याम !  मेरे प्यारे !  कहते हुए  दौड़ पडीं थीं ..........मोर को देखती हैं .........तो  उन्हें आलिंगन करनें के लिये दौड़ पड़ती हैं .....कहती हैं  मेरा श्याम है  ये ...........उसी दिन की बात है महर्षि ! 

यमुना में बाढ़ आयी हुयी थी ...........उफनती यमुना में  हा श्याम ! कहते हुये कूद गयी  हमारी लाडिली  ।

उधर से चन्द्रावली सखी आगयी थी .....वैसे तो  हमारी  श्रीराधा से  ईर्श्या करती थीं  ये चन्द्रावली....पर पता नही  क्यों  जब से   कन्हाई गए हैं मथुरा ,  तब से हमारी  श्रीराधारानी के प्रति इनका प्रेम बढ़ गया है  ।

कूद गयीं  चन्द्रावली यमुना जी में .........और  जैसे तैसे हमारी स्वामिनी को बचा लिया था  ।

बाहर लेकर आईँ ..........और चन्द्रावली नें बड़ी सेवा की     ।

जब श्रीराधा को कुछ भान हुआ........तब चन्द्रावली  यही कहते हुए उठी .........तुम मत मर जाना  राधा !    नही  तो  वृन्दावन  कभी नही आएगा  कृष्ण.........मैं  अब समझीं हूँ........प्रेम  तो श्याम नें तुझ से किया है .............मैं कहाँ हूँ  तेरे सामनें  राधा !    

और अगर  कृष्ण नें ये सुन लिया कि  मेरी प्राणाराध्य  श्रीराधा  का शरीर छूट गया .........तब तो  ।

ये कहते हुए  उठीं   चन्द्रावली ........अरे !   इन्हें बचाकर रखो ! 

कृष्ण आएगा  अब वृन्दावन    तो इसी के लिये आएगा  ।

चन्द्रावली  कितनी जलती थी  हमारी लाडिली से .........पर  हमारी लाडिली तो भोरी हैं ......ईर्श्या क्या है  इन्हें  पता ही नही है  ।

लो !   ये चित्रपट है ....................

चन्द्रावली ,  कृष्ण का एक  मनोहारी चित्र दे गयी   श्रीराधा रानी को  .....

और ये कहती हुयी  गयी ...........राधा !    ये चित्र  स्वयं कृष्ण नें मुझे दिया था ....अपनें हाथों से दिया था .........पर  मैं क्या करूँ इस चित्र का .......वो प्यार तो तुमसे करता है.......लो !  तुम इसे रख लो ......और सुनो !  इसे देखती रहो ........तुम जिन्दा रह लोगी .......और तुम्हे जिन्दा रखना आवश्यक है ...............नही तो  हमें  अब कहाँ मिलेंगें वे श्याम !   राधा !  तुम्हारी कृपा से ......तुम्हारे माध्यम से ही अब हमें श्याम की प्राप्ति होगी ...........तुम खुश रहो  बहन !      सिर में हाथ रखते हुए  श्रीराधा रानी के    चन्द्रावली चली गयी ...........।

जीजी !  धन्यवाद !       उस चित्र को देखकर  हमारी लाडिली कितनी खुश हो गयी थी ...........वो  उसी चित्र को चूमती ........सजाती .....बतियाती ...........पर  ........उनका उन्माद वैसा ही है .......कहूँ  तो  उनका उन्माद और बढ़ रहा है ..........महर्षि !     ये कब तक चलेगा ? 

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महर्षि !        क्या श्याम   आयेंगें ?    
....ये आँसू  कब तक बहते रहेंगें .....?    महर्षि !   मैं आपके पास आयी ही इसलिये हूँ  कि   आप  मुझे  श्रीराधा कृष्ण के बारे में कुछ बताएं  ।

ललिता सखी की बातें सुनकर   मैने  प्रथम उन्हें प्रणाम किया .........वो चकित भाव से मुझे देखनें लगीं ...........

मैने   हाथ जोड़ लिए ...........हे  ललिताम्बा !   आप  ही चिदशक्ति की मूल हो ....आप ही परा प्रकृति हो ..........भगवान शिव के हृदय में विराजनें वाली    हे  मूल प्रकृति  की स्वामिनी - आपकी जय हो जय हो ।

स्तुति करते हुए आनन्दित हो रहे हैं महर्षि !      तब कहते हैं ........आप सबकी स्वामिनी हैं ......पर आपकी भी जो स्वामिनी हैं  वो ब्रह्म की  आल्हादिनी शक्ति हैं .......फिर उनकी बात कौन कर सकता है ।

जिन सर्वेश्वरी श्रीराधिका के पद नख छटा से   रमा, उमा, सावित्री  सब प्रकट होती हैं .......जिन श्रीराधा की घुँघरू की ध्वनि  से  ओंकार नाद का प्राकट्य होता है ............ऐसी  श्रीराधा  जो ब्रह्म की ही सदा  बिहारिणी हैं.......ऐसी  श्रीराधिका रानी के लिये आप चिंतित हो ? 

ये सब लीला है............ब्रह्म लीला कर रहा है ...........हे  ललिताम्बा !     आपको कौन  समझा सकता है .........प्रेम में संयोग और वियोग दोनों ही  होते हैं .......संयोग हो और वियोग न हो .....तो प्रेम पूर्ण रूप से खिल नही पाता .......न उसकी सुगन्ध ही  फ़ैल पाती है   ।

आकार लेकर  प्रकट  हुए हैं  पृथ्वी पर..ब्रह्म और आल्हादिनी ..........तो उस विशुद्ध प्रेम के प्रसार और प्रचार के लिये ही ना ?    हे ललितादेवी !   मिलन हुआ ....रास लीला हुयी.....महारास भी पूर्ण हुआ.....अब ? 

अब वियोग का दर्शन कराया जा रहा है .........क्यों की प्रेम पुष्ट मात्र वियोग से होता है........संयोग से नही   ।

सौ वर्ष तक का  वियोग........सौ वर्ष तक ऐसे ही  रहना पड़ेगा......

महर्षि नें ललिता देवी को बताया................

ललिता सखी  समझ गयीं ..........ये अवतार काल की लीला है ......और ये लीला अभी सौ वर्ष तक ऐसे ही चलनें वाली है .................

ललिता सखी नें  प्रणाम किया महर्षि को ......और वहाँ से चल दीं  ।

क्यों की "लीला" है !

नौका को चलाते हुए  रात में बरसानें पहुँची थीं  ललिता सखी   ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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