"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 67

67 आज  के  विचार

( गच्छोद्धव  व्रजं ...)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 67 !! 

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मेरे प्रिय सखे  ! 

जब  स्व भान हुआ  तब उठकर  उद्धव के  हाथों को  विव्हल हो .....मींचते हुए बोले थे कृष्ण  ।

उद्धव !   मेरे भक्त मथुरा में नही है  मैं ऐसा नही कह रहा .......मुझे चाहनें वाले यहाँ भी हैं ..........पर  वृन्दावन की बात ही अलग है  ।

"उनका मन मेरे में है"....ये कहना पूर्णसत्य नही है......उनके मन नें ही  मेरा आकार ले लिया है.........जैसे  ज्ञानियों की वृत्ति ब्रह्माकार हो जाती है .....ऐसे ही उन  गोपियाँ,  मेरी राधा,  अन्य सभी की वृत्ती  मुझ "कृष्णाकार" बन चुकी है.......वो जी रही हैं .......मेरे लिये......मेरे लिये सिर्फ  ।

मथुरा में भक्त  हैं   मेरे.......पता है उद्धव !  भक्त उसे कहते हैं ........जिनका मन मुझ में लगे......पर  गोपियों का तो मन ही  नही है .....उनका मन  तो मुझ में कब का  विलीन हो चुका है.........

वो गोपियाँ  भक्त की स्थिति को भी पार कर चुकी हैं........

सिर्फ मेरे लिये ही अपनें प्राणों को धारण की हुयी हैं  वो  ।

पता है उद्धव !    मथुरा में   मेरे लिये छप्पन भोग बनते हैं ............मेरे सामनें लाकर रख देते हैं ..........मैं न खाऊँ  तो वापस ले जाते हैं...........कुछ पूछते भी नही हैं  कि  क्यों नही खाया ? 

पर वहाँ  !       मेरा पेट दवा दवा कर  खिलाती थी मेरी मैया .........मेरे पीछे भागती थी.......माखन खा .........थोडा खा ले .............

रो गए कृष्ण   ये कहते हुए  फिर   ।

हँसे  उद्धव !    आप रो रहे हो !        नाथ !  ये सब मिथ्या है .........आप  सब जानते हैं .....संयोग वियोग  सब मिथ्या है........उन गोपियों का  मैया यशोदा  का ......राधा का...... सब मोह है  ........मोहग्रस्त हैं  वो लोग ......अरे !    क्या  उनको ये नही पता  कि संसार का ये नियम ही है ......संयोग  वियोग .....मिलना बिछुड़ना........सब  ।

और    प्रभो !   वो रोयें  तो समझ में आता भी है......पर आप  रो रहे हैं ?

उद्धव नें  कृष्ण की ओर देखते हुये कहा   ।

क्यों ?  क्यों नाथ  !   क्यों  ?    

क्यों की  वो मुझे याद करती हैं.......उनका कोई पल ऐसा नही बीतता   जब मैं उन्हें  याद न आऊँ ..........

और उद्धव !  तुम तो जानते हो ना.......मेरा संकल्प ही है ये ...."जो मुझे जिस तरह से भजता है  मैं भी उसे उसी तरह भजता हूँ"  ।

उद्धव !   मेरा एक काम करोगे ?    एकाएक चहकते हुए  उद्धव से बोले ।

तुम जाओ ना उनके पास......जाओ ना !    मेरा सन्देश देकर आओ ना !  

मैं  ?    उद्धव  फिर हँसे......मेरे जैसा ज्ञानी   उन गंवार गोपीयों को .....

कृष्ण नें  गम्भीर होकर  उद्धव का मुँह बन्द किया........

ऐसे मत बोलो .....अनपढ़ हैं .......पर गंवार नही हैं  मेरी गोपियाँ ।

उद्धव  का गोपियों को   "गंवार" कहना  कृष्ण को अच्छा नही लगा था .....इस बात को उद्धव समझ गए .......... 

मेरे लिये क्या आज्ञा है   ? 

तुम जाओ !   उद्धव !   तुम जाओ   वृन्दावन.......मेरी गोपियों को समझाना.......तुम समझा सकते हो......वो समझदार हैं,   हाँ ...बहुत समझदार हैं......कृष्ण  उद्धव के हाथों को पकड़ कर बोल रहे हैं  ।

पर मेरी वैदुष्यपूर्ण भाषा  ?   उद्धव का  अभिमान  दीख रहा था  ।

सरल भाषा में बोलना ना   उद्धव  !          

कुछ देर शान्त रहनें के बाद उद्धव नें कहा ...............क्या सन्देश है आपका उन लोगों के लिये   ।

उद्धव !   कहना   ,   कहना  उन गोपियों से ......और विशेष मेरी राधा से  कि   वो सब मुझे याद न किया करें  .........उद्धव !   उन्हें मेरी याद आती है  तभी तो   मुझे याद आरही है ना .........कहना उनको  उद्धव !    कि न करें मुझे याद .........मैं उन्हें  बिल्कुल  याद नही करता ..........ये कहते हुये अपनें आँसू पोंछ रहे थे कृष्ण .........उद्धव  देख रहे हैं  कृष्ण की इन विचित्र लीला को    और चकित हैं   ।

मेरी मैया यशोदा को कहना .........उसका लाला उन्हें बहुत याद करता है ............मेरी गेंद सम्भाल के रखना   .......मैं आऊँगा ...........और हाँ  कहीं वो मनसुख मेरी गेंद न ले जाए ..............कृष्ण ये कहते हुए  हिलकियों से रो पड़े ............और हाँ  ये भी कहना ........कि    तेरे बिना  तेरे लाला नें   भर पेट भोजन नही किया है मथुरा में ...............उद्धव कृष्ण को देख रहे  हैं ............कि ये क्या हो गया  इनको  ।

जाओ !  जाओ उद्धव !      कृष्ण नें  उद्धव के मुख को  अपनी हथेलियों से  छूआ .......इस मुख को  मेरी  राधा देखेगी........आह !   पता है उद्धव !  तुम मेरे जैसे ही लगते हो .......बिल्कुल मेरे जैसे    .........रुको !

गए   सन्दूक खोला........अपना मोर मुकुट निकाला ..........और  अपनें मित्र उद्धव को लगानें लगे ...........फिर  दूर खड़े होकर देखनें लगे  उद्धव को .............मेरी राधा देखेंगी तुझे उद्धव  !    बस बार बार यही बोले जा रहे थे कृष्ण   ।

काली कमरिया .......ये  कन्धे में रख लो ............मैं  इसे ऐसे ही रखता था  ..............तुम भी  ऐसे ही रखो ............।

हाँ ........अब जाओ ...........जाओ उद्धव !   जाओ  ।

अभी  जाऊँ ?     उद्धव नें  कृष्ण के चरणों में वन्दन करते हुए पूछा ।

हाँ .....अभी  जाओ !         

महाराज उग्रसेन से आज्ञा तो ले लूँ ......मैं महामन्त्री हूँ   भगवन् !

नही ....किसी से न आज्ञा लेनें की आवश्यकता है .....न किसी को ये बात बतानें की ......मैं हूँ मथुरा में ........सब सम्भाल लूंगा .........मैनें ही तुम्हे किसी  विशेष कार्य में  लगाया है........कह दूँगा .......मुझ से कोई पूछनें की हिम्मत नही करता.......महाराज उग्रसेन तक नही  ।

उद्धव का हाथ पकड़ कर     चल दिए कृष्ण............

मेरे रथ में जाओ  उद्धव  ! .........कृष्ण नें अपना रथ दिया उद्धव को  ।

उद्धव रथ में बैठे ..........कृष्ण को इस तरह  बेचैन देख    बोल पड़े ....

आप भी चलते  वृन्दावन .......पास में  ही तो है   चलिये ना ! 

उद्धव नें  जब  ये बात कही ............फिर  रो पड़े थे कृष्ण  ।

जा नही सकता.........कारण है उद्धव  .....मैं वापस जा नही सकता ।

उद्धव  नें  कृष्ण को  प्रणाम किया .......और  रथ को जैसे ही चलाया ।

मैया के चरणों में  अपना सिर रखकर प्रणाम करना उद्धव ..........वो बड़ी वात्सल्यमयी हैं ...............कहना   उसके लाला नें ये कहा था ।

मेरी  राधा से कहना .......हम मिलेंगें  .........अवश्य मिलेंगें  ......

मेरे सखाओं को कहना......माखन चुराना  कृष्ण को बहुत याद आता है  ।

रथ चलता गया .......कृष्ण काफी दूर तक दौड़ते हुए  बोलते रहे .......

उद्धव नें  बार बार जब कहा-  आप लौट जाइए.........तब जाकर खड़े हो गए कृष्ण ........रथ  चलता गया.........कृष्ण देखते रहे ....धूल उड़ती रही  रथ की.......वृन्दावन  वृन्दावन ......कृष्ण  देख रहे थे  उस दिशा की ओर   ।

उद्धव  शायद पहुँच गए होंगें वृन्दावन........कृष्ण अपनें आँसुओं को पोंछते हुए लौट गए  थे अपनें महल में............

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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