वैदेही की आत्मकथा - भाग 152

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 152 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

क्या !   

   मुझे दासी नें आकर जो सूचना दी उसे सुनकर मैं चौंक गयी थी ।

महारानी !     त्रिजटा  नें एक बालक को घायल कर दिया  ।

पर क्यों  ?      मैं स्तब्ध थी  इस सूचना से  ।

वो बालक को खाना चाहती थी ...........पर बालक भाग गया ......और  सैनिकों नें उसे पकड़ लिया ................

ये गलती उससे   दूसरी बार हुयी है........दासी नें मुझे ये भी बताया ।

मेरे सिर में दर्द होनें लगा था.......अभी कहाँ है त्रिजटा  ?    मैने पूछा ।

राजदरबार में ..........दासी नें ये भी कहा .....कि महाराज श्रीरामचन्द्र जी नें आपको राजदरबार में बुलवाया है  ।

क्या त्रिजटा वहीं है  ?      मैने पूछा   ।

हाँ  उसी का न्याय करना है  महाराज को .........क्यों की  वो आपकी सखी है  ...........इसलिये महाराज आपको बुलवा रहे हैं  ।

मैं त्रिजटा के बारे में ही सोच रही थी ................

लंका  में  जिस तरह वो मेरे साथ रहती थी ......हर समय ..........वैसे ही वो मेरा साथ यहाँ भी चाहती थी..........पर यहाँ  कैसे सम्भव !

मैं कई दिनों से  उसे देख रही थी ........वो चिड़चिड़ी सी हो गयी थी ।

चलो !        मैं  दासी के साथ  चल दी  राजदरबार में   .......मन में  बहुत उथल पुथल चल रहा था ......पता नही बेचारी त्रिजटा का क्या होगा !

कहीं उसे मृत्यु दण्ड सुना दिया  मेरे श्रीराम नें तो  ?

नही नही ................मेरा हृदय काँप गया था ........वो मेरे लिए यहाँ है .........वो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्रेम करती है  ।

*****************************************************

सभा लगी हुयी थी ...............सब थे वहाँ  ।

पर मैने त्रिजटा को ही देखा  ........अपराधी  की तरह खड़ी थी  वो  ।

सिर झुकाकर..........उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे  ।

मैं जब गयी  तब  उसनें  मेरी और देखा था .......और उसकी  वो बड़ी बड़ी आँखें मुझ से बस यही कह रही थीं.......मुझे कुछ नही पता  क्या होगया .........मैं सच कह रही हूँ  रामप्रिया !    मुझे कुछ नही पता ।

मुझे अयोध्यानाथ के  बाम भाग में  बैठना था............मैं  गुरुजनों को प्रणाम करके  बैठ गयी........पर हृदय मेरा  काँप रहा  था  ।

वैदेही !      ये आपकी सखी हैं ..............इसलिये इन्हें हमनें  कोई दण्ड नही दिया ...........वैदेही !    अपराध तो इन्होनें अक्षम्य किया है ।

एक बालक को मारनें का प्रयास ....?        और उसे खानें का  ?

मेरे श्रीराम  स्वयं स्तब्ध थे..........मैने  त्रिजटा की ओर देखा .....वो रो रही थी ........मेरी ओर देखनें की उसमें हिम्मत भी नही थी  ।

और वैदेही !  एक बार नही ...........दो बार ...............

अब आप कहो .......क्या दण्ड दिया जाए   ।

हे राजाराम !    मृत्यु दण्ड से कम  नही मिलना चाहिए  इस राक्षसी को दण्ड ! ........जिसके पुत्र को खानें का प्रयास किया था  त्रिजटा नें  उसका पिता भी उपस्थित था वहाँ ..........ये गुहार उसी नें लगाई थी ।

नही .......मृत्यु दण्ड नही ................मैं  बोल पड़ी ..........वह बालक मृत्यु का ग्रास तो नही बना  ?          इसलिये  मृत्यु दण्ड नही ।

मैने  मना किया...........मेरे श्रीराम मेरी ओर ही देख रहे थे  ।

"पर  अयोध्या में,  इसे नही रहनें दूँगा  मैं".........स्पष्ट  घोषणा थी ये ।

मैने अब त्रिजटा की ओर देखा  तो मेरे भी नयन सजल हो गए थे ।

वो मेरी ओर देख कर कह रही थी ..........रामप्रिया !  मैं कहाँ जाऊँगी ।

मैं लंका लौटकर अब जानें वाली नही हूँ ..........वो बहुत कुछ बोल रही थी ...........पर  सभा को   यहीं  पर रोक दिया  आज  मेरे श्रीराम नें ।

राज निर्णय आचुका  था ......देश निकाला दे दिया था त्रिजटा को ।

*******************************************************

मुझे नही पता    रामप्रिया !   मुझे क्या हुआ  ?     

मैं  तुम्हारी बनकर रहना चाहती थी ......तुम्हारे नजदीक मैं रहना चाहती थी .....जैसे लंका में रहती थी......।

पर यहाँ  वैसा सम्भव न हुआ ........होता भी कैसे  तुम यहाँ की महारानी हो ........तुम्हारे और भी रिश्ते नाते हैं .....।

पर मैं चिड़चिड़ी हो गयी......दिमाग तो समझता था  पर इस हृदय को मैं कैसे समझाती....मेरा अपना स्वभाव......राक्षसी स्वभाव   कहाँ जाता ?

      मैने त्रिजटा को अपनें पास बुलाया था.......उसके द्वारा मुझे सुनना था कि उसनें ऐसा क्यों किया   ?       

रामप्रिया !    मैं जब तुम से -  दूर सा अनुभव करती तब  मेरा राक्षसी स्वभाव जाग जाता था.....उसी समय मुझ से ये गलती हो गयी होगी  ।      

गलती हो गयी होगी  ?         तुम्हे पता है  तुम अब अयोध्या में नही रह सकतीं  .......तुम्हे यहाँ से जाना होगा  .......यही राजाज्ञा है  ।

मैने  त्रिजटा को बताया  ।

मैं कहाँ जाऊँगी ?    रामप्रिया !    मैं तुम्हे छोड़कर कहाँ जाऊँगी ?

वो तो  धरती में गिर पड़ी ......उसे कुछ होशो हवास नही था   ।

मैने उसे सम्भाला ...........वो बस  रामप्रिया !  रामप्रिया !  यही बोल रही थी .......हाँ बेहोशी में भी  वो यही बोल रही थी   ।

मेरा हृदय उसकी स्थिति देखकर  द्रवित हो उठा   ।

कुछ विचार मेरे मन में आनें लगे .....................

मैं  बैठ गयी  और त्रिजटा के मस्तक को अपनी गोद में रख लिया ......

त्रिजटा !  मेरी सखी !  उठ !     उठ  त्रिजटा  !    

उसका मेरे प्रति जो प्रेम था  वो अद्भुत था ........मैं उसे  नजरअंदाज कैसे कर सकती थी............।

त्रिजटा !   तू    मेरे  मायके में रह ...........मेरे जनकपुर धाम में ।

ये सुनते ही  त्रिजटा को  होश आया ...........वो   उठनें की कोशिश करनें लगी ................

हाँ .......हाँ त्रिजटा !   मेरे जनकपुर धाम में जाकर रहो ..........

और तुम वहाँ की कोतवाल बनो.....जैसे अयोध्या के कोतवाल  तुम्हारे भाई  "मत्तगजेन्द"  हैं ना.........ऐसे ही  मेरे जनकपुर की कोतवाल तुम रहोगी......मैने त्रिजटा के सिर में हाथ रखते हुये कहा ।

पर रामप्रिया !   आप वहाँ कहाँ हो  ?    

त्रिजटा !     मायका  हर नारी के हृदय में होता है ...............यानि मेरे हृदय में  मेरा मायका  जनकपुर धाम है ...........तो मैं  जनकपुर में नही हूँ  ये तुम कैसे कह सकती हो  ?    मैं  जनकपुर में हूँ ...........मेरे हृदय में जनकपुर है ........मैं वहाँ के कण कण में बसी हुयी हूँ  ।

त्रिजटा प्रसन्न हुयी थी  ये सुनकर ...........वो उठी .............मैं उसी भूमि में रहूँगी   जहाँ   तुम प्रकट हुयी थीं  ।

प्रणाम किया  मुझे   और   "जनक नन्दिनी सिया सुकुमारी की  जय "

जयकारा लगाते हुये   वो आनन्द से  उड़ चली  ।

वो गयी  जनकपुर में..........मेरे भाई लक्ष्मी निधि नें  त्रिजटा को स्थान दिया.........वो उसी  स्थान पर  ध्यानस्थ हो जाती थी ।

फिर  तो   "राजदेवी"     यही नाम  जन सामान्य में प्रचलित होनें लगा ।

आज भी जनकपुर धाम की कोतवाल  राजदेवी हैं......मेरा दर्शन करके  इनका दर्शन करना भी आवश्यक है......और ये त्रिजटा  राक्षस वंश की है .....इसलिये  बलि प्रथा यहाँ  मान्य है    ।

शेष चरित्र कल ...........

Harisharan

Post a Comment

0 Comments