56 आज के विचार
( हाय री प्रिय स्मृति ! )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 56 !!
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हाय री प्रिय-स्मृति ! तब क्या था ....और अब क्या है !
जो कृष्ण कभी आँखों के आगे से ओझल नही होते थे .......सदा पलकों पर ही रहते थे ......हाय ! आज उनकी कहानी सुननी पड़ रही है !
क्या से क्या हो गया आज ............ये वृन्दावन ! ...........
इसी स्थल पर कभी हमसे रास रचाया करते थे वे ......पर आज ! आज हम इसी स्थल के कंकड़ चुन रही हैं ........हाय ! जिन रसना से कभी उनसे बतियाती थीं .........आज ! आज उसी जिव्हा से उनके चरित्र को गाना पड़ रहा है ........हाय ! जिन कुञ्जों में बैठकर कभी हम उनके साथ खेलती थीं ......आज उन्हीं कुञ्जों में बैठकर अपना सिर पटक पटक रोना पड़ रहा है......हाय ! सखी ! .......कभी सोचा भी नही था कि ....ऐसा दिन भी देखनें को मिलेगा .........उफ़ !
हे वज्रनाभ ! ये है वृन्दावन......दर्शन करो इस वृन्दावन के.....अब तो आँसुओं का विशाल सागर बन गया है ये वृन्दावन ।
श्रीराधारानी और गोपियों की "आह" नें कैसा बबंडर उठा दिया !
क्या कहें इस प्रेम को ? इस महान प्रेम को क्या कहें ?
आशीर्वादात्मक कहें या सर्वनाशात्मक ?
बहुत बड़ा रहस्यवाद छुपा है इस प्रेम में ............ये प्रेम का क्षितिज ......इसमें सबकुछ दिखाई दे जाएगा .......आनन्द , वेदना , मिलन, विरह ...उत्सव, वियोग ........कैसा अद्भुत रहस्यवाद है ये प्रेम ।
ये चरित्र अब केवल आँसुओं का चरित्र रह गया है......महर्षि सजल नयन से बोले.......और फिर आगे के चरित्र को सुनानें लगे थे ।
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किशोरी जी बाहरी जगत को भूल गयी थीं.......एक मास तक मूर्छित रहीं ......उन्हें कुछ भान न था ...........पर एक दिन -
ललिते !
एकाएक चिल्ला उठीं थीं श्रीराधा रानी ।
सारी सखियाँ दौड़ पडीं........क्या हुआ लाडिली !
कोई जल लेकर आई ........कोई चरण दवा रही हैं ........कोई कंचुकी लेकर आई है .........क्यों कि आँसुओं से कंचुकी भींग गयी है ........
ललिते ! देख ना ! श्याम सुन्दर रथ में बैठ गए हैं ........जिद्द कर रहे हैं कि मैं जाऊँगा ........मैं मथुरा जाऊँगा ............हँसी श्रीराधा रानी .......फिर गम्भीर हो गयीं ..........देख ! मुझे धमकी दे रहे हैं ......जानें की हिम्मत है ! पर ललिते ! वो बैठे हैं ना रथ में ? तुझे दिखाई दे रहे हैं ना ! ललिता हिलकियों से रो पड़ी .......सारी सखियाँ रो पडीं श्रीराधा रानी की यह स्थिति देखकर ।
तुम रो क्यों रही हो ? श्रीराधा रानी उठकर चारों ओर देखती हैं !
तुम सब क्यों रो रही हो ? सब ठीक तो है ना ?
ओह ! मेरा स्वास्थ ठीक नही था क्या ? पर अब ठीक लग रहा है ।
जैसे ही उठनें लगीं.......ललिते ! श्याम सुन्दर रथ में क्यों बैठे हैं ? बता ना ? और उनके रथ को कोई चला रहा है .......वो रथ चलानें वाला अच्छा नही है .............बड़ा कुरूप सा लगता है .................पर रथ जा रहा है ..........ललिते ! रथ जा रहा है ..............श्रीराधा रानी चिल्लाईं .........कोई तो रथ रोको .........अरे ! मेरा "प्राण धन" जा रहा है ....क्या इस राधा का कोई हित करनें वाला नही है इस वृन्दावन में !
ललिता सखी नें सम्भाला श्रीराधा रानी को ।
ललिते ! तू बहुत अच्छी है ...............पर मेरा शरीर इस प्रकार निष्प्राण सा क्यों हो रहा है ? ललिता ! बता ना ........ये पृथ्वी क्यों घूम रही है ? पर पृथ्वी के घूमनें का क्या अभिप्राय हो सकता है ?
अरे ! ललिते ! ये कदम्ब का वृक्ष भी घूम रहा है ..........कहीं सचमुच मेरे प्राणनाथ चले तो नही गए मथुरा ? श्रीराधा रानी नें ललिता की ओर देखा ।
आप ये जल पी लें लाडिली !
श्रीराधा रानी को जल पिलानें लगीं थीं ललिता ।
पर रोष में आगयीं श्रीराधा रानी ..............ललिते ! तू मेरा ध्यान कृष्ण से हटाना चाहती है ...........तू क्या समझती है कृष्ण मुझे छोड़कर चले जायेंगें ? नही ........वो मुझे कभी नही छोड़ सकते ...........वो मेरे बिना एक पल भी नही रह सकते ...............बता ना बिशाखा ! तुझे तो सबकुछ पता ही है ना ! श्याम सुन्दर क्या मुझे छोड़ सकते हैं ?
नही ..........मैं जाती हूँ .........मुझे जाना है वृन्दावन .........कहाँ है मेरी नौका ? बताओ ना ! उन्माद से भरी श्रीराधा रानी फिर उठीं .....और वृन्दावन जानें के लिए जिद्द करनें लगीं ............
पर फिर गिर पडीं थीं, बिशाखा सखी नें सम्भाला था ।
अपनी लाडिली को इस अवस्था में देखकर कीर्तिरानी का बुरा हाल है ......वो बस रोती रहती हैं......बृषभान जी दिन में चले जाते हैं बृजपति के पास नन्दगाँव वहाँ जानें से दिन का समय कट जाता है ........
पर.....रात का समय ? बस , रात का समय ही तो नही कटता ।
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बृषभान दुलारी को प्रेमोन्माद कब प्रकट हो जाए कुछ पता नही है ।
अकेले नही छोड़ा जा सकता ............क्यों की कल ही उफनती यमुना की प्रचण्ड धारा में "हे श्याम सुन्दर" कहते हुए कूद गयीं थीं ।
वो तो अच्छा हुआ कि ........सखियाँ थीं और देख लीं .......।
हे चन्द्रमा ! तू बता ना मेरा "कृष्णचन्द्र" कहाँ गया ?
अरे ! मोर बता ना ! मेरा "मोरमुकुटधारी" कहाँ गया ?
अरे बाँस के वृक्ष ! तू ही बता दे "बाँसुरी वाला" कहाँ गया ?
फिर ऊपर आकाश की ओर दृष्टि जाती है श्रीराधा रानी की .......
आह ! विधाता ! तुझे तो धिक्कार है ......उन मथुरा की ललनाओं को खुश करके तुझे क्या मिला ? हम वृन्दावन के लोगों नें तेरा क्या बिगाड़ा था ?
यमुना के पुलिन में बैठीं थीं आज श्रीराधा रानी .......चारों ओर सावधान हो, सखियाँ बैठीं थीं........यमुना के जल को छूते ही फिर उन्माद चढ़ गया था......और फिर श्रीराधा रानी .............
क्या कह रही हो यमुनें ? थोडा जोर से कहो ............
यमुना भीतर ही जानें लगीं आज फिर ....सखियों नें पकड़ लिया ...
नही ....नही लाडिली ! नही..........सखियों नें फिर बैठाया ।
अरे ! यमुना कुछ कहना चाह रही है.........सुननें तो दो !
श्रीराधा का उन्माद फिर बढ़नें लगा था ।
कहो यमुनें ! कहो ! समझाकर कहो..... ओह ! तुम भी अपनें प्रेमी सागर के वियोग में दुःखी हो ? तो मुझ से कहो ना ! क्यों की एक दुःखी दूसरे दुखी की वेदना को समझती है ........देखो ना कालिन्दी !
वे नन्दनन्दन मुझे भी छोड़कर चले गए ............तुम्हे तो पता है ना ......ये राधिका भी विरहिणी है ............
पर !
रुक गयीं , कुछ सोचनें लगीं श्रीराधा ............
फिर रोते हुए बोलीं......तुम तो भाग्यशाली हो कालिन्दी ! .......कि अपनें प्रियतम सागर तक पहुँच ही जाओगी ..........पर ये राधिका ?
इतनें पास हैं वे........यहीं मथुरा में........कुछ ही दुरी पर .....पर ये राधा नही जा सकती.......आँसुओं को पोंछा श्रीराधा नें ।
क्यों नही जा आसकती ? जाओ ! मिल कर आओ .........
यही कह रही हो ना तुम ? श्रीराधा रानी यमुना से ही पूछती हैं ।
क्यों जाऊँ मैं ? मुझे नही मिलना उस राजसी भेष वाले कृष्ण से ।
मुझे तो वही "मुरलीधर" ही प्रिय है ..........पर वहाँ तो चक्रधारी हैं .......हमें क्या काम चक्र धारी से ? श्रीराधा रानी का ध्यान यमुना से बातें करते हुए ..........कदम्ब वृक्ष पर बैठी "मयुरी" पर गया ।
अरी मयुरी ! तू क्यों कदम्ब के शाखा पर उदास बैठी है री ?
ओह ! क्या कृष्ण को बिना देखे तेरे भी प्राण रो रहे हैं क्या ?
हाँ .............सच कहती है ........वो तो निर्मोही है ............हम ही हैं जो यहाँ बैठी आँसू बहाती रहती हैं ......उसे तो कुछ मतलब ही नही है ।
तभी एक मोर उड़ता हुआ आया और श्रीराधारानी की गोद में बैठ गया ।
अरे ! तू ! तू तो कृष्ण का प्रिय है ......याद आती होगी ना तुझे भी ?
मोर बन आया था एक दिन वो ।........पता है ! मुझे एक दिन मोर का नृत्य देखना था ......पर उस दिन मुझे मोर ही नही मिले ......तब मेरा ही श्याम मोर बन आया था......"मोर बनकर"....खूब हँसनें लगीं श्रीराधा जी....."मोर बनकर"....पंखों को फैलाकर नाचनें लगा था ।
हँसते हुए फिर बोलीं.....सुन ....तू और हम दोनों मिलकर ध्यान करते हैं ।
तू मेघ का ध्यान कर ..........मैं श्याम सुन्दर का ध्यान करती हूँ ........ऐसा कहते हुए श्रीराधा रानी नें .....मोर के साथ ध्यान करना शुरू किया .........पर मोर नें उसी समय एक पंख अपना गिरा दिया ।
अरे ! वाह ! मोर !
तुमनें मुझे उपहार दिया ? बहुत सुन्दर उपहार है ये मेरे लिये ......
इससे प्यारा और श्रेष्ठ उपहार मेरे लिये और हो क्या सकता है ?
क्यों की इसी मोरपंख को तो मेरे प्रियतम धारण करते थे ना !
इतना कहते हुए श्रीराधा रानी नें मोर का पंख अपनें सिर में लगा लिया ......और ध्यान में बैठ गयीं .........ध्यान किसका ? अजी ! उसी श्याम सुन्दर का ....।
हे वज्रनाभ ! मैं नित्य सुनता था ..........उन गोपियों के क्रन्दन को .....मैं नित्य दर्शन करता था .....उन आल्हादिनी के महाभाव को .....वो जब रोते हुए अश्रु प्रवाहित करती थीं .........तब उनके आँसुओं से पृथ्वी के पाप ताप सन्ताप सब दूर हो जाते थे .......श्याम , श्याम , श्याम , कहते हुए वो जब अन्धकार को ही "श्याम" समझ गले से लगानें दौड़ पड़ती थीं .....तब उनके देह से जो पसीनें निकलते थे ....उससे आस्तित्व भी सुगन्धित हो उठता था ........ये आल्हादिनी का प्यार है .....कोई साधारण नही ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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