"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 57

57 आज  के  विचार

(   बैठी रहूँ  यमुना में आस लगाए.....)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 57 !! 

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कौन हो तुम ?   बताओ कौन हो तुम  ? 

यमुना में बैठीं हैं  बृषभान दुलारी......धीरे धीरे  नयन मूंद जाते हैं उनके ।

कौन ?    कौन हो तुम ?     आँखें बन्द ही हैं .........हाथों से छूती हैं  अपनें  मुख को ................

ओह !    तो तुम हो ?   हँस पड़ती हैं  ................

आखिर आही गए  वृन्दावन ........!        

हाँ  तुम्हारा मन भी नही लगता होगा ना  वहाँ तो  ?    

क्या कहा  ?        अब बातें न बनाओ ................मेरे बिना तुम्हारा मन नही लगता ?     यही कह रहे हो ..........झूठे  !    मुझे नही होता अब तुम पर विश्वास ..........जाओ !        

अरे ! कहा  ना .....जाओ.......मुझे नही पता ....पर यहाँ से जाओ ।

हाँ हाँ......वहीं जाओ..........वहीं    अपनी कुब्जा के पास  ।

सुना है सुन्दर है वो ................मुझ से सुन्दर है  वो ............

नही ..........तुमनें उस कुब्जा को छूआ है .............मुझे मत छूओ .....

जाओ !      जा ओ  !   चिल्लाईँ  श्रीराधा रानी ....जोर से चिल्लाईं थीं ।

आँखें खोलीं..........चारों ओर देखा...............

क्या हुआ लाडिली ?      आप  किसी को  "जाओ जाओ"  कह रही थीं ?

सखियों नें   श्रीराधा रानी से पूछा  ।

वे गए ?     सखी   क्या वे गए  ?      श्रीराधा रानी  चारों ओर  देख रही थीं .........नही ..नही ....देख नही रही थीं   वो खोज रही थीं .....अपनें "प्राण" को .........उन्हें  प्रेमोन्माद के कारण    ऐसा लगा  कि  कृष्ण नें ही आकर  पहले की तरह आँखें  बन्द कर दी हैं .......और पूछ रहे हों .....कौन है  पहचानों  प्यारी  !

पर  यहाँ तो कोई नही है ............इधर उधर देखकर  सखियों नें यही उत्तर दिया  था  ।

नही .....तुम झूठ बोलती हो .......वे आये थे ........वे यहीं कहीं हैं ......तुम  अच्छे से नही जानती उन्हें ..........वे तुमसे छुप रहे हैं .....शर्माते होंगें ना !   

श्याम सुन्दर !    प्राण !    प्यारे !      प्रिय  !    आओ ना !  

श्रीराधा रानी  फिर  पुकारनें लगीं  थीं  ।

पर -

तू चुप रह !    तू  मेरी नकल क्यों कर रही है  ......तू चुप कर  !

हे वज्रनाभ !      कुञ्जों  से  श्रीराधा के  पुकार की प्रतिध्वनि हो रही है ....

जैसे  -  श्रीराधा  पुकार रही हैं .....हा श्याम सुन्दर !   तो  कुञ्जों से भी यही आवाज आरही है   हा श्याम सुन्दर  !

बस  अपनी  प्रतिध्वनि को सुनकर  श्रीराधा  चकित हो जाती हैं ......वो प्रेम  के आवेश में ................।

कौन है  तू ?    कौन ?   

मत कर मेरी नकल........देख !   दुःखी जनों का  कभी मजाक नही बनाना चाहिये ......और मैं  तो  इस संसार कि सबसे बड़ी दुखियारन हूँ .......मेरा "प्राण"  मुझे छोड़ गया ......पर  मैं जिन्दा हूँ .........यही  तो बात है ना !     कि   राधा  अभी तक जीवित कैसे है ? 

मैं मर जाऊँ ?    हाँ मुझे मर ही जाना चाहिये ना ?     

ये कहते हुए  फिर  इधर उधर देखनें लगीं ............ललिता बिशाखा  ये सब  वहीँ बैठी हैं ...............

नही ..............मैं मर नही सकती ...........वैसे मैं मर जाऊँ  तो अच्छा होता .........पर मैं मर नही सकतीं ...............

क्यों कि ......मेरी ये सखियाँ कहती हैं .........मैं अगर मर गयी   तो कन्हाई को अच्छा नही लगेगा.......वो दुःखी हो जाएगा.....उसे लगेगा  मेरे कारण  मेरी राधा मर गयी ........वो जीवन भर अपनें को अपराधी समझता रहेगा .......नही .....मैं मर भी नही सकती ।

क्या दशा बना दी मेरी तुमनें  श्याम !     

श्याम !     आओ ना !        रोते हुये  फिर पुकार निकली  श्रीराधा के ।

फिर प्रतिध्वनि .......!

तू फिर बोल रही है .......मेरी  नकल कर रही है.........मत कर ऐसा  तू भी कभी दुःखी होगी .......ना ना !    भगवान ऐसा दुःख किसी को न दे ।

इतना कहकर  फिर  मौन हो गयीं  कुछ देर के लिए .........

तुम कौन हो ?     मैं जैसे पुकारती हूँ .......जैसे रोती हूँ  तुम  भी वैसे ही रोती हो ...कौन हो तुम  ?     श्रीराधा रानी  कुछ देर में बोलीं थीं ।

अच्छा  अच्छा !   तुम वृन्दा सखी हो ?     तुम इस वृन्दावन की देवी हो ........अधिदैवी   ।      पर तुम क्यों दुःखी हो  ?     

हाँ  दुःखी क्यों नही होगी तुम ?   तुम्हारा ये वन अब कितना उजाड़ सा लगता है ........है ना ?       और कहीं  तुम्हे भी उस नटखट से प्यार तो नही हो गया  ?      क्यों नही  हो सकता ...बिलकुल हो सकता है .....क्यों की  अरी ! वृन्दा सखी .........दुनिया में प्यार करनें जैसे  अगर कोई हैं तो  वे ही  तो हैं ........इसलिये तुम्हे भी उनसे प्यार हो गया ,  ये सुनकर मुझे कोई आश्चर्य नही है .......आओ ! मेरे पास बैठो ......मुझ से अपना दुःख कह सकती हो .......क्यों की तुम और हम  अब एक ही व्याधि से ग्रस्त हो गए हैं ।

.श्रीराधा रानी  का बोलते बोलते  कण्ठ सूख गया है.......पर उन्हें भान कहाँ है.......वो तो    बस  बोलती जा रही हैं......कृष्ण के बारे में .....कृष्ण ....कृष्ण ...कृष्ण.....अब इसके अलावा रह क्या गया है   यहाँ  ।

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नन्दगाँव चलें ?   नन्दभवन को निहार आवें ................

श्रीराधारानी  नें  अपनी सखियों से कहा   ।

सखियों नें  सीधे "हाँ" नही कहा .........क्यों की क्या पता  वहाँ  जाकर  फिर कुछ उन्माद प्रकट हो जाए  श्रीराधा रानी को ।

पर प्रेम जिद्द का  दूसरा नाम है.........उफ़ !  प्रियतम की गली  ।

जिद्द  की  कीर्ति की लाली नें....फिर  तो सबको बात माननी ही पड़ी ।

नन्द गांव .........

एक गोपी ....नन्दगाँव की.....यमुना से घर में आयी.......पर  तुरन्त ही  रोती हुयी बाहर  आगई....और  बैठकर हिलकियों से  रोनें लगी थी  ।

क्यों रो रही हो  सखी ?    क्या हुआ  ?     श्रीराधा रानी उसके पास गयीं  और बड़े प्रेम से  उससे पूछा  .............उस गोपी नें जो उत्तर दिया .....अपनें रोनें का कारण बताया ...........उफ़  !

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मैं आज गयी थी   यमुना जल भरनें ।.........कन्हाई के गए  एक मास से भी ज्यादा हो गए ............पर  उनके मथुरा जाते ही ....मैं  बीमार पड़ गयी थी .........पता नही क्या हुआ था मुझे ........मै बस उन्हें  ही चारों ओर देखती रहती थी .............

कल   सपना देखा था    ....सपनें में उन्हें  देखा  ।

गोपी   श्रीराधा रानी को   अपनी बात बता रही है    ।

वो मुझे कह रहे थे ......"तू यमुना में आज कल क्यों नही आती .......पता है     मैं तेरा इन्तजार करता हूँ"..........गोपी  आँखों में  आँसु  भरकर  भर्राई आवाज में कहनें लगी ......हे राधे !     मैं  जब उठी  तब  स्वस्थ हो गयी थी ......सपनें में अपनें "प्राण धन" को जो देख लिया था  ।

फिर ?   श्रीराधा जी नें पूछा  ।

मैं  बड़ी ख़ुशी ख़ुशी  यमुना तट गयी  ..............

वहाँ जल भरा..........पर मुझ से  मटकी उठाई नही गयी ........

जब कन्हाई यहाँ था  तब रोज मेरी मटकी उठा देता था .............पर ।

मैं रोनें लगी ............मैं बैठी बैठी रोनें लगी ................

साँझ हो गयी ............पर वो नही आया ............

जैसे तैसे  मैने ही  मटकी उठाई  और रोते हुए  चल पड़ी घर की ओर ।

बार बार  मैं रुक जाती थी ............मेरे पैर ठहर जाते थे ...........

मुझे लगता था   कि पीछे से  मेरा  कन्हाई आगया ......अब कंकड़ मारेगा और मटकी फोड़ेगा ........जैसे अन्य दिनों में करता था  ।

पर  .................

न वो आया ,  न  मटकी   फूटी...........रोती हुयी  बोली  वो गोपी  ।

पता नही क्यों .............जब गोपाल वृन्दावन में था ना .......तब  रोज मेरी एक मटकी फोड़ता ही था.........पर मुझे आनन्द आता था ....मुझे अच्छा लगता था ..........घर में आकर  जब मेरी सास मुझे डाँटती थी  कभी कभी मारती भी थी......तब भी मुझे  अच्छा लगता था ....

पर आज ?    वो गोपी हिलकियों से रो पड़ी .........

हे श्रीजी !   आज......मेरी मटकी भी नही फूटी .....मेरी सास नें मुझे डाँटा भी   नही ।

पर मुझे आज बहुत बुरा लग रहा है........रोते हुए गले लग गयी थी  श्रीजी के  वह  गोपी  ।

ओह ! नन्दगाँव की ऐसी स्थिति ?      

उस गोपी को   सम्भालकर  नन्दभवन की ओर जब श्रीराधा  गयीं  ।

कौन ?   कौन आया  ?   दौड़कर  द्वार पर आगयीं थीं बृजरानी यशोदा ।

ओह ! आजा राधा बेटी !  आजा !      अपनें हृदय से लगा लिया था यशोदा नें    और  महल में ले आयी थीं ................

कोई नही आता  अब इस महल में .............रो गयीं  यशोदा भी ।

पहले कितनी रौनक रहती थी ना ?      गोपी गोप इन सबसे ये महल भरा रहता था .....पर  अब कोई नही आता ......"कन्हाई है नही" ....कोई क्यों आएगा  ?      इतना कहते हुए  हिलकियाँ फूट पड़ी थीं  नन्दरानी की  ।

हे वज्रनाभ !        मुझे डर लगनें लगा था कि  इन गोप गोपियों के अश्रु सागर में  ये वृन्दावन कहीं डूब न जाए  ।

बृजरानी और  श्रीराधिका  दोनों रोते रहे  और गले मिलते रहे थे   ।

शेष चरित्र कल ....

Harisharan

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