50 आज के विचार
( "चौं रे लंगर ! एक झाँकी होरी की )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 50 !!
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देखो प्रेम का प्रभाव ! वज्रनाभ ! फागुन का महीना आया ......
होरी का त्यौहार आया......ये प्रेम का त्यौहार है ।
इस दिन सबसे गले मिला जाता है.......हाँ कर्मकाण्ड के शास्त्रों में भी उल्लेख है कि इस दिन ब्राह्मण चांडाल को भी गले लगा सकता है ...कोई दोष नही लगेगा........ये होरी का त्यौहार प्रेमपूर्ण है ।
न कोई गरीब न कोई अमीर, न कोई ब्राह्मण न कोई शुद्र......सब बराबर कर देता है ये फागुन..........
मैं तुम्हे ये इसलिये बता रहा हूँ कि श्रीराधा रानी का चरित्र हो .....और उसमें "बरसानें की होरी" की चर्चा न हो........कुछ अधूरा सा लगेगा .....है ना वज्रनाभ !
इतना गुलाब उड़ा था बरसानें में.........कि आकाश लाल हो गए ।
आश्चर्य है ना ! बादल लाल हों, समझ में भी आता है .....पर आकाश ही लाल हो गया .........?
जी ! बादलों का लाल होना कोई बड़ी बात नही है ........शरीर प्रेम रँग में रँग जाए क्या बड़ी बात है ? पर बड़ी बात है जब चित्त भी प्रीति के रँग में रँग गया हो .........यहाँ मात्र देह के रँगनें की बात नही हो रही .........प्रेम रँग में देह का रँगना - सब रँगाते डोलते हैं ...........पर बड़ी बात तो ये है कि - हमारा चित्त ही जब रँग जाए ।
क्या चले थे बरसानें की होरी में - पिचकारी की बौछार ......
गुलाल और अबीर के उड़ानें से चारों ओर लाल ही लाल ........
केशर की कीच और टेसू के रँग से जमीन भी लाल हो गयी थी ...........
बड़े विचित्र से बनें नन्द गाँव से बरसानें की ओर चल दिए थे नन्द के लाला .......उनकी मण्डली पीछे आरही थी ..............
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पास की ही एक गोपी बरसानें में व्याही थी .........
सुन्दर थी........और जल्दी ही परिवार की प्रिय भी हो गयी ।
उसका शील स्वभाव बड़ा ही सुन्दर था........और इस बहु नें जल्दी ही ससुराल को अपनें वश में कर लिया था.....अच्छे स्वभाव के चलते ।
उसकी सास , ननद, जेठानी, सब कहते इतना काम मत करो .......पर ये बहु बहुत अच्छी थी .......मुस्कुराती रहती और अपना काम करती रहती ।
पर बाहर मत जा ! बहू अभी तू छोटी है बाहर मत जा ..........सासू मना करतीं.......पर "गोप वधू" को बिना बाहर गए कैसे चलेगा ?
अजी ! गोबर उठाना ही पड़ता है......गाय के लिये सानी लगानी ही पड़ती है.......कण्डे बनानें ही पड़ते हैं....अब बाहर न जानें से कैसे होगा ?
जानें लगी बाहर भी ..............गाय को घेरना .............घास काटना ......कार्य तो होते ही हैं घर में .........धीरे धीरे उस नई गोप वधू नें इन कार्यों में भी अपनी दक्षता का परिचय दिया ।
पर अब तो फागुन का मस्त महीना आ लगा था .............
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बरसानें के लिये चले थे कन्हाई ...............
फागुन की हवा में कुछ मत्तता होती ही है ..........युवा की क्या बात करें .....वृद्धों में भी यौवन छलकता हुआ दिखाई देता है ......समस्त प्रकृति ही एक नवीन चेतना, नया उमंग, नई स्फूर्ति का उन्मुक्त - वितरण करनें लग जाती है.......और फिर होरी ? ओह ! ये होरी तो बृजवासियों का निजी त्यौहार है ......सर्वाधिक प्रिय महामहोत्सव है ।
आज जिधर देखिये काजल लगाये, ललाट और कपोल पर चन्दन से चित्रित किये, अटपटे वस्त्रों से सुसज्जित .......पान चबाते हुए , गारी गाते हुये.........गलबैंया दिए ग्वाल बालों की टोली मस्तानी अदा से घूम रहे हैं ।
कहीं दूर बरसानें की पहाड़ियों में कोई बृजवासन मधुर कण्ठ से होरी गा रही है.........कहीं परस्पर मीठी नोक झोंक हो रही है ।
बरसानें में मीठी छेड़छाड़ - ऊधम - हाँसी"
जिधर देखो उधर ही चल रही है ।
अरी बहू ! तू कहाँ जा रही है ? देख ! आज होरी है .........आज हमारे बरसानें की होरी है .........इसलिये तू मत निकले ।
सासू नें अपनी उसी नवोढ़ा बहू को समझाया ।
माँ ! कुछ नही होगा मुझे ............मुझे बरसानें में सब जानते हैं मैं बहुत मर्यादित हूँ .......मेरी ओर इस बरसानें का कोई ग्वाला भी देखनें की हिम्मत नही करता ......डरता है ........बहू बोलती गयी ।
पर वो नन्द का लाला ? सासू जानती है कि ये नन्दगाँव वाले कितना ऊधम मचाते हैं.......पिछली साल का पता है ........पर इस नई बहू को नही पता......न ये माननें वाली थी......तो इस ऊधम भरे होरी के माहौल में, वो मना करने पर भी घर से निकली यमुना जल भरनें ।
अरे ! ये कौन है ऊधमी ! टक्कर मार के चलो गयो ।
गुस्सा तो बहुत आया ........पर कोई बात नही .........उलझनें से लाभ भी नही था ........बहू आगे बढ़ती गयी ............
भाभी ! देवर ते घूँघट कैसो ?
बड़ी मीठी आवाज थी ...........मिश्री से भी मीठी ।
बड़ा प्यारा सा अधिकार जता दिया था ,
रसिक शेखर नें उस बाला के प्रति ।
उस वधू के मन में भी आया कि .....देखूँ तो कैसा है ये मेरा देवर ?
जैसे ही घूँघट थोड़ा सा हटाया .........बस ...........तुरन्त कन्हाई नें फेंट से गुलाल लेकर गालों में मसल दिया .......और हँसी ........खिलखिलाती हँसी.........दूर जाकर हँसनें लगे जोर जोर से ।
पर इस वधू को आश्चर्य हो रहा है ......कि मैं कहाँ मर्यादा में रहनें वाली .....कोई परपुरुष मुझे देख भी ले तो नजर झूका ले ......मैं इतनी मर्यादित ..........पर ये कौन मेरे रँग लगा गया ......और लगा भी नही गया ...........मेरे कपोल को ............
और आश्चर्य ये कि ........मुझे अच्छा लग रहा है ! मुझे बुरा नही लग रहा ............मुझे क्रोध नही आरहा ।
और हे वज्रनाभ !
उस वधू के कानों में साँवरे की हँसी ही गूँज रही है ।
क्या वो गया ? देखूँ तो ! ऐसा विचार करके जैसे ही घूँघट को फिर हटाया ..................
भाभी ! मेरे गेंद तो दे जा ! ओह ! ये तो यहीं खड़ा है ।
और पीछे पड़ गया .......मैं घूँघट करके हँसनें लगी .........मुझे अपनें हँसनें पर भी आश्चर्य हो रहा था कि ये कोई लड़का अभद्रता कर रहा है और मुझे हँसी आरही है ? पर है बड़ा सुन्दर ! प्यारा सा छैला ।
भाभी ! मेरी गेंद चुराई है तूनें .........अजीब लड़का है ये तो ।
अब बहु को लगा बनावटी क्रोध करना ही पड़ेगा ..........
घूँघट को हटाकर ......वो वधू चिल्लाई .........झूठ बोलते हो ........मैने तुम्हारी गेंद देखि भी नही है ...............झूठे ! कौन हो तुम ?
ओह ! मेरी दोनों गेंद चुराई हैं तुमनें भाभी !
अब तो भाभी की विचित्र स्थिति हो गयी .......पर तब तक ......
बहु ! तू ठीक तो है ना ? सासू और इस वधू का पति दोनों दूर से आते हुये दिखाई पड़े ...........बहू तो बैठ गयी थी जमीन में ............तलाशी लेनें ही वाले थे श्याम सुन्दर ........कि तभी ........"बहु ! किसी नें रँग तो नही लगा दिया".......
बस जैसे ही श्याम सुन्दर नें देखा ......इसके पति और सास आगये हैं ......वे भागे ...............
हे वज्रनाभ ! श्याम सुन्दर को दुःख हुआ कि नही पता नही .......पर उस बेचारी बहू को बड़ा दुःख हुआ ......कि ये सास और खसम क्यों आगये ? उस वधू की वेदना को कोई संवेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है ।.........श्याम सुन्दर तलाशी ले रहे थे ....पर .......अपना माथा पकड़ कर बैठी है ये वधू ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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