"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 38

38 आज  के  विचार

(  प्रेम में  "मैं"  कहाँ ? )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 38 !!



प्रेम में  "मैं" कहाँ ?  और  जहाँ  "मैं"  वहाँ प्रेम कहाँ ?  

हे वज्रनाभ !   प्रेमसाधना का सबसे बड़ा विघ्न  यही तो है  "मैं".....अहंकार  .......जब  प्रेम पथ में अहंकार आजाये  तब  उस  उपासक का पतन ही होता है  ........

महर्षि शाण्डिल्य  वज्रनाभ को समझा रहे थे  ।

ओह ! कितना दूर है प्रियतम का महल .......सम्भल कर चलना होगा ........बड़ा सम्भल सम्भल कर जीने पर चढ़ना होगा .......अजी !  थोडा भी चूके  की  गये......ऐसे  गिरोगे  हड्डी पसली का पता भी नही चलेगा .....सारी साधना  धरी की धरी रह जायेगी ...........

ये प्रेम का पन्थ है ...........कोई  योग या ज्ञान मार्ग नही  ।

ज्ञान मार्ग की ऊँचाई है  "तत्वमसि"  यानि "तुम वही हो".........पर प्रेम की  विलक्षणता तो देखो ..........जब अपनें प्यारे की याद में प्रेमी डूब जाता है  तब   एक अलग ही अधिकार जन्म लेता है ..उसके हृदय में ........प्रेमी  अपनें प्रियतम में  इतनें  अपनत्व से भर जाता है .......कि ......."तुम"  और "मैं"    ये भी छूट जाता है .......क्यों की सब कुछ उस  प्रेमी के ही चरणों में समर्पित है ..........सब कुछ .....अपना कहनें को कुछ बचा ही नही .........ये देह भी नही .....ये मन भी नही ....ये चित्त भी नही ....और ये अंतिम अहंकार  यानि "मैं"  भी नही  ।

 हे  वज्रनाभ !    जब   प्रेम में  "मैं" आता है ......अहँकार आता है ....तब इसे हटानें के लिये  स्वयं प्रेमदेवता  आगे आकर,   विरह और वियोग देकर  उन आँसुओं  से  "मैं"  को निकाल देते हैं ....बहा देते  हैं  ।

 सावधान रहनें की आवश्यकता भी  है  इस प्रेम मार्ग में  ।

वह साँवरा,  हमारा सजन  तो युगों से हमारे द्वार पर ही खड़ा है ......खटखटा रहा है.......हम कभी  उस तरफ ध्यान ही नही देते ।

वो "प्रिय" हमारी प्रतीक्षा में खड़ा है .....सदियों से खड़ा है.........पर - उसका ध्यान है......उसका ध्यान तो  सदैव हमारी तरफ ही रहता है ...हम चूक जाएँ  पर  वो हमारा सजन नही चूकता....वो हमें नही भूलता ।

हाँ  वज्रनाभ !  वो दुःखी हो जाता है .............वो द्वार  में खड़ा खड़ा  उस समय दुःखी हो जाता है ......जब ये जीव   "मैं"  "मैं" "मैं"  की बेसुरी राग  अलापता रहता है.......अहँकार से   इतना घिरा रहता है जीव... ....इसे कुछ याद नही रहता.......ये अहंकार  बहुत बुरी चीज है.......इसी से साधना की ऊंचाई तक पहुँचे साधक भी गिर जाते हैं......ये देखा गया है ।

महर्षि शाण्डिल्य नें   वज्रनाभ को समझाया ....

....अहंकार बाधक है प्रेम मार्ग में  ।

तो क्या गोपियों  के मन में  अहंकार आया  ?   

हाँ  वज्रनाभ !   महर्षि नें  कहा ।

कैसा अहंकार गुरुदेव ?     और  फिर  क्या  श्रीश्याम सुन्दर नें उन्हें छोड़ दिया......त्याग दिया  ?      एक ज्ञानी और योगी की भाँती इन प्रेमियों का भी पतन हो गया  ? 

नही  वज्रनाभ !  नही ........योगियों की तरह और ज्ञानियों की तरह प्रेमियों का पतन नही होता ......क्यों की प्रेमियों को सम्भालनें वाला स्वयं उसका प्रेमास्पद उसके साथ होता है ....उसके पीछे होता है ।

वो गिरनें नही देगा तुम्हे.........अगर गिर भी गए  तो  वह तुम्हे अपनी  बाँहों में भर  लेगा.......हाँ वज्रनाभ !  

पर   उस अहंकार के रहनें तक    वो इतना  रुलाएगा ......कि  तुम्हारा समस्त  "मैं" भाव......बहा देगा.......निर्मल बना देगा तुम्हे  वो ।

पर ऐसा हुआ क्या था    उस रास मण्डप में  ? 

वज्रनाभ के प्रश्न बार बार पूछनें पर  महर्षि आगे का चरित्र सुनानें लगे ।

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श्याम सुन्दर !   ओ श्याम सुन्दर !    

हाँ  क्या है  ?   

श्याम सुन्दर !  मेरे केश बिखर गए हैं  इन्हें  बाँध दो  !

श्याम सुन्दर !  ओ !     फिर दूसरी गोपी नें पुकारना शुरू किया ।

मेरे नाचते नाचते  पसीनें आरहे हैं......अपनी पीताम्बरी से हवा कर दो !

श्याम सुन्दर उस गोपी को हवा करते हैं ....
..पहली गोपी के बालों को सुलझा देते हैं ।

"मेरे तो पैर दूख रहे हैं......मुझ से नही नाचा जाएगा "

बोलो !  बोलो !  नाचना है क्या  मुझे ?

.श्याम सुन्दर से ही पूछती है वो गोपी  ।

हाँ .....तुम अच्छा नाचती हो ........श्याम सुन्दर मुस्कुरा के कहते ।

तो मेरे पैर दवाओ !   गोपी कहती  ।

.....मैने मना किया कब,   लाओ  दवा दूँ पैर ।

"पर मैने तुमसे पहले कहा था........तो  मेरी बेणी पहले गुँथों "

नही .....पहले मैने कहा था ......इसलिये  मुझे  पँखा करो पहले ।

ये क्या हो रहा था  उस रासमण्डप में  !       गोपियों का ध्यान  अपनें प्रिय श्याम सुन्दर से हट कर अपनें शरीर पर आ टिका था ।

मैं सुन्दर......मैं सुन्दरी !   मेरी सुन्दरता  सबसे ज्यादा है....मेरा हाव भाव कृष्ण को लुभाता है.....मेरा गौर वर्ण कृष्ण को  मेरी और खींचता है  । 

हे वज्रनाभ !     गोपियों में  परस्पर  ईर्श्या नें भी,  अपनी जगह बनानी शुरू कर दी .....हे कृष्ण ! मेरी बात मानों  नही तो मैं तुमसे बोलूंगी नहीं ।

हे श्याम !  मेरी बात न मान कर तुम  उस गोपी के पास गए .....जाओ अब मैं तुमसे बात ही नही करूंगी ..............

पर  हे वज्रनाभ !  गोपियों के इतना कहनें के बाद भी  कृष्ण मुस्कुराते हुए  किसी के बालों को सुलझा रहे हैं .......किसी को अपनी पीताम्बरी से हवा कर रहे हैं .........किसी  गोपी के पैर तक दवा रहे हैं ............।

पर   गोपियाँ  कितना विवश   कर रही थीं  कृष्ण को .............कृष्ण भी मानते रहे  कुछ समय तक उनकी बात.........पर  वो  "पूर्णपुरुष"  कब तक विवश  रहेगा... .........अंतर्ध्यान हो गए  ।

हाँ  वज्रनाभ !  एकाएक अंतर्ध्यान हो गए  कृष्णचन्द्र ।

ओह !   उन बृज कुमारियों  नें सोचा भी नही था ........कि   कृष्ण इस तरह उन्हें  छोड़ कर चले जायेगें   ।

आर्त क्रन्दन गूँज उठा  गोपियों का.........विलाप कर उठीं  सब गोपियाँ.....यमुना ,  वृक्ष ,  पक्षी   सब   इस आर्त नाद में साथ  थे  ।

हाय !   हमारी जैसी अभागिन और कौन होगी ?   अहंकार किया हमनें ?

श्याम सुन्दर को अपनी  बाँहों  में भरनें के बाद भी  हम देह भाव से चिपक गयीं ..........श्याम सुन्दर को देखनें के बाद भी इस तुच्छ देह को देखना .....धिक्कार है  हमें ........धिक्कार है  ।

हे वज्रनाभ !   वो पुकार , वो विलाप बड़ा आर्त था .........ओह ।

याद रखें  वज्रनाभ !   ये "प्रेम"  साधारण मार्ग नही है .......सिर जब तक धड़ पर है  तब  तक अहंकार है ........सिर काटकर  चरणों में चढाया जाता है  प्रियतम के .........तब "महारास" होता है   ।

यानि अहंकार  चढ़ाना पड़ता है ......"मैं मैं मैं"  को   "तू तू तू"   में बदलना पड़ता है ......और ये  हृदय से होना चाहिये.........सहज ।

शेष चरित्र कल -

Harisharan

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