39 आज के विचार
( "कृष्णोहम्" - प्रेम में अद्वैतावस्था )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 39 !!
"ब्रह्म विद् ब्रह्मैव भवति"........यही नियम है वज्रनाभ !
जो जिसका चिन्तन तन्मय होकर करता है ....वह वही बन जाता है ।
ब्रह्म का चिन्तन करनें वाले यह कह उठते हैं ........मैं ही ब्रह्म हूँ ।
पर ज्ञानी को उस स्थिति में पहुंचनें में समय लगता है ......प्रेमी को ?
प्रेमी तो सहजता में ही उस स्थिति को पा जाता है ............क्यों की प्रियतम का चिन्तन प्रेमी पर आरोपित नही है........सहज है ।
प्रेमी, अपनें प्रिय के चिन्तन को छोड़ना चाहे फिर भी छोड़ नही पाता .........ये गंडे ताबीज़ ऐसे ही नही बाँधे इन प्रेमियों नें ........पर प्रियतम छूटता कहाँ है ? प्रियतम का स्मरण छूटता कहाँ है जी !
देखो ! देखो ! कैसे पागलों सी बहकी बहकी बातें करता है वो प्रेमी .....
बेमतलब, बिल्कुल बेमानी ..............अजी ! एकाएक खिलखिलाके हँसना .........कभी आँसुओं कि धार लगा देना ..........कौन जानें वह किस लिये रो रहा है .......पर हाँ इतना अवश्य जानते हैं की ........उस प्रेमी की वह मौज है .............हँसना भी उसका मौज है तो रोना भी उसका निजानन्द ।
वह देह कहाँ सम्भाल पाता है ..........वह पागल प्रेमी देहातीत हो अपनें आपको ही प्रियतम समझ प्रियतम को अपना प्रेमी समझ उठता है .........ये स्थिति बड़ी विचित्र है ।
देह को न सम्भाल पाना ..........आँसुओं की धार न टूटनें पाये .......कभी गीत गानें लगता है ........कभी मौन ही हो जाता है ........कभी पुकार उठता है ..........कभी विरह इतना असह्य हो जाता है कि ...........मूर्छित ही हो जाता है .......वह किसी का साथ नही चाहता .......वह अकेले में रहना पसन्द करता है..........इस तरह से प्रेमी अपनें "प्रेम" के चिन्तन में इतना तल्लीन हो जाता है ......कि दो की अब कोई गुंजाइश ही नही बचती......दो समाप्त ........बस एक ही ......मैं नही अब बस "तू" ।
नही नही ....ऐसे प्रेमी का मन कबका मर गया होता है ......उसका मन तो कबका प्रियतम के पास ही चला गया होता है .........मन नही ....बुद्धि नही ........चित्त नही .........अहंकार नही ........कुछ भी तो नही .....बस तू ........सिर्फ तू ।
हे वज्रनाभ ! एक बात मैं कहना चाहता हूँ .......ध्यान से सुनो ......
जो प्रेम में उन्मत्त है .........जिसे स्वार्थ नें तनिक भी छूआ नही है ......जिसकी वाणी गदगद् हो जाती है ............भाव और प्रेम के कारण जिसका चित्त पिघला रहता है ............वह रोता है कभी .....कभी हँसता है .........ऐसे प्रेमी को धीरे धीरे सर्वत्र अपना प्रिय ही दिखाई देनें लगता है ...........अरे ! ये क्या ! सारे भेद मिटाकर वो प्रेमी अपनें को ही प्रियतम मान बैठता है ...........ऐसे धन्य प्रेमी जहाँ से होकर गुजरें .......वहाँ के वातावरण को पवित्र कर देते हैं ......उनकी उपस्थिति ही पाप ताप सन्ताप को दूर कर शान्ति की ऊर्जा प्रवाहित करनें लग जाती है ....ऐसा महाभाग ही संसार को पवित्र करनें की हिम्मत रखता है ।
"मैं एक प्रेमोन्माद के सागर का डूबता उबरता लहर हूँ ...........मेरे ही लहरों में सारा संसार घिरा हुआ है ........मेरी भावनाएं जिन्होनें इस जगत को परेशान कर रखा है .........मेरे प्रियतम की उलझी हुयी अलकावलि के समान है " महर्षि शाण्डिल्य नें ये पंक्ति कहीं ।
जय जय हो........हे गुरुदेव ! कितना बड़ा रहस्यवाद है ये प्रेम जगत का ....कौन उलझनें जाएगा ऐसे प्रेमियों से ......मुझे तो लगता है गुरुदेव ! स्वयं परमात्मा और प्रेमी में भेद ही खतम हो जाते होंगें ..उस स्थिति में
वज्रनाभ की बातें सुनकर महर्षि शाण्डिल्य अब आगे "श्रीराधा चरित्र" को सुनानें लगे थे ।
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हमारे प्यारे ! अंतर्ध्यान हो गए ?
गोपियों को इस बात का असह्य दुःख हो उठा था ।
मेरे कारण .........ये सब मेरे कारण हुआ है ललिता सखी बोल उठी ।
हाँ .....मैने ही श्याम सुन्दर से कहा था मेरे बाल बना दो .........अरे ! वो हमारे साथ नाच रहे थे क्या ये कम था ?
नही नही ....सखी ललिता ! दोष तुम्हारा नही है .....दोष तो मेरा है ....तुम तो श्रीराधा रानी की सखियाँ हो ...........जैसे स्वामिनी होती हैं वैसी ही उनकी सखियाँ भी होती हैं .......तुम्हारी स्वामिनी .......वो तो सरल सहज करुणा की मृर्ति ..........वैसी ही तुम सभी हो .......पर दुष्टा तो मैं हूँ .............इतना कहकर वो चन्द्रावली रोनें लगी थी ।
मैने ही उनसे कहा था मेरे पैर दवा दो .......ओह ! मेरा अहंकार कितनें चरम पर पहुँच गया था .....नन्द नन्दन को मैने अपनें पैर दवानें के लिए कहा ! अपना सिर पटकनें लगी थी चन्द्रावली ।
नही .....तुम अपनें आपको कष्ट क्यों दे रही हो.....अपराधिनी तो हम सब हैं.....वो तो "कमल नयन" सदैव हम सब को प्रेम ही देते हैं ....पर हम ?
नही ......मुझे मारो तुम सब लोग मिलकर......श्राप दो मुझ पापिन को ।
चन्द्रावली फिर चीत्कार उठी थी ।
पर ऐसे रोनें बिलखनें से क्या होगा ..........चलो ! उनको ढूढ़ें .....वो किधर गए इस रात्रि में .................ललिता सखी नें ही सम्भाला सबको ....और आगे चलीं श्याम सुन्दर को खोजते हुए ।
हे पीपल ! तू तो बता कहाँ गए हमारे श्याम सुन्दर !
हे वट, पाकर ! तू तो अवश्य जानता होगा .....क्या इधर से गए हैं हमारे प्राणधन ?
अरे ! कदम्ब ! तुझ से तो बड़ा प्रेम करते हैं श्याम सुन्दर ! बता ना ! किधर गए हमारे प्राण नाथ !
पर इन वृक्षों नें भी कोई उत्तर नही दिया........तब गोपियाँ और उन्मादिनी हो उठीं............
तुम लोग इतनें बड़े हो .......अपना सिर ऊपर की ओर करके खड़े हो .........मत करो अहंकार पीपल ! कि लोग तुम्हे पूजते हैं कहकर अहंकार दिखा रहे हो ......मत अहंकार में फंसो ...........देखो ! हमें भी अहंकार हो गया था ........हम भी अपनें आपको बड़ा समझ बैठी थीं ......कृष्ण के हृदय की रमणी ...............कृष्ण की प्रेयसि .......हमारी हर बात कृष्ण मानता है ..........क्या क्या नही समझ बैठी थीं .....पर क्या हुआ ? देखो ! आज छोड़ दिया हमें हमारे कृष्ण नें ..........तोड़ दिया हमारा अहंकार ...............ऐसे ही तुम भी ज्यादा अहंकार न दिखाओ ............बता दो ......कहाँ है हमारा प्यारा !
दूसरी गोपी तुरन्त बोल उठी .........
अरे वट वृक्ष !....तू तो बता कहाँ हैं हमारे प्राण.......बता ना !
छोड़ ! किससे पूछ रही है .............इस वट नें देखा भी होगा तो इसको याद रहेगा ? देख ! कितना बूढ़ा हो चला है ये ........इसकी लम्बी लम्बी दाढ़ी तो देख ............छोड़ इन सबको ।
तभी एक गोपी भागी आगे ..............अरे ! कहाँ भग रही हो ?
पीछे की गोपियों नें पूछा ।
ए मल्लिका ? ए मालती ! ए गुलाब !
बता ना हमारे श्याम सुन्दर कहाँ गए ?
क्या इसे पता होगा ? दूसरी गोपी नें उससे पूछा ।
क्यों नही पता होगा इसे ...........इन फूलों को जहाँ हमारे प्रियतम देखते हैं ........छूते जरूर है ..........इन्हें भी छूआ होगा ...............
क्या इन्हें भी छूआ होगा हमारे प्रिय नें ?
सब गोपियों दौड़ीं ............फूलों को चूमनें लगीं ...........फूलों को अपनें देह से लगानें लगीं .........इन फूलों को छूआ है हमारे कृष्ण नें ।
तुम्हे कैसे मालुम कि कृष्ण नें इन फूलों को छूआ होगा ?
चन्द्रावली बैठी रही और पूछती जा रही थी ।
हाँ .......तभी तो इन फूलों में इतनी प्रसन्नता आयी है ..........देखो ! बिना श्याम सुन्दर के छूए क्या ये फूल इतने प्रसन्न होते ?
पर ये कुछ बोल नही रहे .......आम ! नीम ! तमाल ! भैया ! तुम तो कुछ बोलो .............बोलो ना ! हमारे कन्हैया कहाँ गए ?
किन्तु ये भी कुछ नही बोल रहे ...........अरे ! तुम तो सन्त हो ......तुम तो परोपकार करनें वाले सन्तों से भी महान हो .....हे वृक्षों ! तुम तो कुछ बोलो ......हमारे ऊपर कुछ तो उपकार कर दो ..........गोपियाँ फिर रोनें लगीं ।
नही नही .....इन वृक्षों को परेशान न करो तुम लोग........एक गोपी फिर उठ आई .......और वह सबको समझानें लगी ।
देखो ! ये हैं इस वृक्ष के आँसू ..............इसका मतलब ये वृक्ष भी कृष्ण के वियोग में दुःखी हैं .........ये हमारा ही साथ दे रहे हैं .....हमारे दुःख से इन्हें भी दुःख हो रहा है ..............इसलिये इन्हें अब ज्यादा परेशान न करो .................उस गोपी के ऐसे वचनों को सुनकर ....अन्य गोपियाँ माफ़ी माँगनें लगी थीं उन वृक्षों से ।
वो देखो ! वृन्दा ! तुलसी ! हाँ वो तो हमारे कृष्ण की प्रिया है .....
अब सब गोपियाँ भाग कर तुलसी के पास आगयीं ।
अरी ! कृष्ण प्रिया तुलसी ! तू तो बता ! कहाँ गए हमारे प्राण .......
तू तो अवश्य जानती होगी ..........बता ना ! कहाँ गए ? किस ओर गए हैं ? हमारी स्थिति अब ठीक नही है ......तू ही हमारी सहायता कर तुलसी !
पर उस गोपी की बात का तुलसी नें भी कोई उत्तर नही दिया ।
चन्द्रावली फिर आगे आई .....अजी ! छोडो इसे .........तुम लोगों को पता है ये हमारी क्या लगती है ........सौत है, हमारी सौत है ये तुलसी ।
इसे पता भी होगा ना ....तो भी हमें नही बताएगी ...........इसलिये इससे बात ही मत करो ......चलो आगे ।
हे धरित्री ! तुम तो कुछ बता दो ............कुछ गोपियाँ अब चल नही पा रही हैं ............उनके शरीर में कम्पन होनें लगा है ............उनके अश्रु इतनें बह रहे हैं कि लगता है नहा ही रही है अश्रु धार से ...........
ऐसी गोपियाँ बैठ गयीं ............तुम्हे देख कर तो नही लगता कि हमारी तरह तुम भी विरह से भरी हो ?
नही .....देखो इन्हें इस पृथ्वी को ..............हरे हरे घास उग गए हैं ......ये क्या है ? ये प्रसन्नता है इस पृथ्वी की ...........अपनें कोमल चरण इस पृथ्वी में वे रख रहे होंगें ना ......इसलिये ये प्रफुल्लित है ।
ए पृथ्वी ! बता ना ! कहाँ गए हमारे श्याम सुन्दर ।
पर ये क्या ?
आगे कुछ गोपियों का समूह चला गया था ...............उन्हीं गोपियों नें एकाएक चीत्कार करना शुरू कर दिया ......कृष्ण ! हा श्याम ! हा गोविन्द ! चिल्लानें लगीं ..............
पर कुछ ही समय बाद ..............मैं कृष्ण हूँ ..........मैं कृष्ण हूँ ।
हँसी आने लगी उसी कुञ्ज से ......................
हँसती गोपियाँ कह रही थीं "मैं हूँ कृष्ण" .........तुम लोग रोओ मत .....आओ मेरे पास ........मत रोओ मेरी प्यारी !
गोपियाँ कहती जा रही थीं ......कौन तुम्हे दुःख दे रहा है ..........ये काली नाग ...? तो लो मैं इस काली नाग को नथ देता हूँ .........एक गोपी की चोटी पकड़ कर उसे घुमा दिया ।
क्या हुआ ? क्या हुआ ? तुम रो रही हो ? दूसरी गोपी दौड़ी .....
क्या इन्द्र नें बृज डुबोंनें के लिये ............वर्षा कर दी है ?
डरो मत .....आओ ! मेरे पास आओ ........इतना कहते हुए अपनी चूनरी उठा दी ...............और कहाँ इसके नीचे आजाओ ।
मैं हूँ कृष्ण ! मैं ही कृष्ण ! मैं हूँ कृष्ण !
हे वज्रनाभ ! कृष्ण के चिन्तन नें, कृष्ण के गहरे चिन्तन नें गोपियों को कृष्ण बना दिया .......गोपियों को अब ये लग ही नही रहा कि हम गोपी हैं ...........सब कृष्ण बन गयीं ...........बनना ही था, कृष्ण में इतना तादात्म्य भाव हो गया था इन गोपियों का ।
अद्वैत सिद्ध हो गया गोपियों का .......ये प्रेम का अद्वैत है .....
इसे ही कहते हैं प्रेमाद्वैत.........महर्षि शाण्डिल्य इस भाव रस में डूब गए थे ........कहते हैं ......हे वज्रनाभ ! इस अद्वैत स्थिति में पहुंचनें के लिये ज्ञानियों को कितना कुछ करना पड़ता है ..........पर देखो ! प्रेमीजन कितनी सहजता से उस स्थिति को पा जाते हैं ।
इतना कहकर महर्षि मौन हो गए .....उनकी भी वाणी अवरुद्ध हो गयी ।
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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