"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 36

36 आज  के  विचार

( वेद पुरान हमें नही सूझे ..)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 36 !! 



बाँसुरी का स्वर बदल गया था अब ..........कामदेव फिर चौंका ।

क्यों की पहले  किसी "राधा" से ये प्रार्थना कर रहा था .......पर अब यह किशोर   भिन्न भिन्न नारियों को बुलानें लगा है.......बाँसुरी में नाम ले लेकर बुला रहा था   अब  ये   ।

ये है क्या ?    ये स्वयं  स्त्रियों को  आमन्त्रित कर रहा है  ! 

कामदेव  तुरन्त आकाश से देखनें लगा......वृन्दावन की ओर तो हजारों हजार नारियाँ दौड़ पड़ी थीं......"मैं कितना मुर्ख था......अप्सराओं को लानें की सोच रहा था .....पर ये बृज नारियाँ तो  मेरी अप्सराओं से लाखों गुना  सुन्दर  हैं.......मेरी अप्सरायें तो   इन गोपियों की  पैर धूल भी नही हैं ......ओह !  कितनी सुन्दर हैं ये सब गोपियाँ  ।

कामदेव के हाथ से धनुष छूटनें लगा ........छूट ही गया था  ।

क्यों की अब इसे  भी लगनें लगा   कि  इन गोपियों के कटाक्ष से  तो मैं भी मूर्छित हो जाऊँगा .......ये हैं ही इतनी सुन्दरी ...........फिर  इस किशोर को  मेरा बाण क्या कर पायेगा  ?

कामदेव नें सब छोड़ ,   अपना ध्यान केंद्रित  करना शुरू किया था  इन गोपियों के ऊपर .........ये  आ कहाँ से रही हैं   ? 

कामदेव नें देखा -  सब अस्त व्यस्त सी भागीं  आरही थीं..........कोई भोजन करा रही थी अपनें पति को ......छोड़ दिया  भाग गयी  कृष्ण की ओर........किसी नें  अपना श्रृंगार छोड़ दिया ............

किसी नें   दूध को अग्नि पर रखा था .....पर बाँसुरी सुनी  जब,   तब दूध की किसे परवाह   ?    

कोई गोपी तो अपनें बालक को दूध पिला रही थी ........प्रेम की बाँसुरी कान में गई.........बालक  को रख दिया जमीन में ही .........चल पड़ी  वह गोपी भी   कृष्ण की ओर ..............

कोई गोपी बाल बना रही थी ...............बाँसुरी सुनी  तो  सब छूट गया ..........वस्त्र  अस्तव्यस्त हैं ...............बेणी ठीक से बनी भी नही है ।

काजल  लगाया है.......पर  जहाँ  लगाना चाहिये  वहाँ नही .....

होठों में काजल  और आँखों में लाली ...............

नुपुर गले में बाँध लिया है .......गले का हार  पैरों में ही  लटका लिया है ।

पर कामदेव देख रहा है ......इतनी अस्तव्यस्त  होनें के बाद भी .......इनकी सुन्दरता और बढ़ ही रही है .......मादक लग रही हैं ये सभी गोपियाँ ................

तभी - अरे  मत जाओ !  पागल हो गयी हो क्या  मत जाओ ! 

पति  चिल्ला उठे थे ...... इन गोपियों के पति ......"रात में क्यों वन में जानें की जिद्द कर रही हो" .......मत जाओ  ।

किसी के पति नें  तो अपनी पत्नी को पकड़ ही लिया .....उसकी पत्नी मान नही रही........वो अपनें में ही नही है   ।

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ये तो गलत है ना ?     अपनें पति की आज्ञा न मानना ....ये पाप है  !

वज्रनाभ नें बीच में टोक दिया  महर्षि शाण्डिल्य को  ।

पाप है ?       अरे !  वाह !    तुम अभी तक पाप पुण्य में उलझे हो ? 

महर्षि  शाण्डिल्य हँसें   ।

अच्छा एक बात बताओ वज्रनाभ !  ......पाप पुण्य किसे लगता है .....मन के कारण ही ना  ? 

जहाँ मन होगा  वहीँ स्वर्ग और नरक होगा ना ?     पाप पुण्य मन के कारण ही होता है,   है ना ?    

पर  मन  नही है गोपियों के पास ......महर्षि नें समझाया ।

मन नही है  ?   वज्रनाभ नें  चकित हो पूछा  ।

हाँ ....मन नही है .....बाँसुरी बजाकर  गोपियों के मन को  पहले ही चुरा लिया कृष्ण नें......अब मन ही नही है .....तो पाप भी नही है और पुण्य भी नही है........नरक नही है स्वर्ग भी नही है......क्यों की इन सबका कारण मन ही होता है........समझा दिया था महर्षि ने  वज्रनाभ को  ।

वज्रनाभ  !    इसी बात का तो  आश्चर्य हुआ  कामदेव को .........

कि  इस किशोर नें  गोपियों के मन को ही अपना बना लिया ।

हँसे   महर्षि  शाण्डिल्य  ।

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गलत बात है ....गलत बात है .........सिर हिलाया  कामदेव नें कृष्ण को देखकर .......ये  ठीक नही है  ।

क्या ठीक नही है कामदेव ?   कृष्ण नें  कामदेव से ही पूछा ।

इन गोपियों का मन ही नही है.....तो मैं "वासना" किस में प्रकट करूँगा ?

वाह ! कृष्ण !  ये अच्छी बात है ..........बेटे से युद्ध करना है तुम्हे ......इस बात को जानते हुए ......मेरे  पिता को ही अपनें वश में कर लिया ? 

कामदेव की बात सुनकर कृष्ण हँसे...........तुम्हारे पिता ?   

तुम सब जानते हो ............मेरी उत्पत्ति  "मन" से हुयी है ..........इसलिये तो मुझे लोग "मनोज"  भी कहते हैं ...........पर तुम  बहुत चतुर हो ......तुमनें तो मेरे पिता मन को ही  अपना भक्त बना लिया......गोपियों का मन तुम्हारा भक्त है .......ऐसे नही होता  !  कामदेव बोला ।

तो कैसे होता है ?      कृष्ण मुस्कुराये  ।

इन गोपियों के मन में  अभिसार की इच्छा प्रकट करो ..........तुमसे मिलनें के लिए ये तड़फे .........मिलन की  कामना  जगाओ ........मुझे जगह दो इन के हृदय में.........कामदेव नें कहा ।

ठीक है ........तुम जैसा चाहो .....करो ........करो .....मैं तैयार हूँ मनोज  !      कृष्ण नें इतना कहकर ........गोपियों के मन में  मिलन की तीव्र इच्छा को  प्रकटा दिया .......अब ठीक है ?     कृष्ण नें पूछा ।

हाँ ....अब ठीक है ....कामदेव नें कहा ...और वह फिर देखनें लगा ।

पतियों नें रोक दिया है पत्नियों को.....नही जानें दूँगा  तुम लोगों को ।

पर  उन गोपियों की स्थिति .....ओह !  कामदेव देखकर स्तब्ध हैं ।

पतियों नें जब रोक दिया अपनी गोपियों  को .......तब  वह गोपियाँ वहीँ बैठ गयीं .......कृष्ण के वियोग में उनका शरीर काला पड़नें लगा .....उन गोपियों नें अपनें नेत्रों को बन्द कर लिया ...हा कृष्ण ! हा कृष्ण  !  कहते हुए  उनके   पूर्व जन्म के जितनें कर्म संस्कार थे वे सब जल उठे .......पर  आश्चर्य !  ये क्या  ?       अब तो  इनका शरीर दिव्य हो गया था .....सुन्दरता  मानों इनके अंग अंग में समा गयी थी ........ये इतनी सुन्दर लग रही थीं .........मानों    स्वयं कृष्ण हों .....हाँ .....उनके ध्यान का प्रभाव ही तो था ये सब  ।

इस आश्चर्य को देख  कामदेव  मूढ़ सा हो गया .........एक देह  से गोपियाँ  अपनें पतियों के पास ही थीं ........पर दूसरे दिव्य देह से ......वो सब कृष्ण की ओर बढ़ रही थीं ..........उनके देह से  ज्योति निकल रही थी .......वो सर्वत्र  फैलती जाती थी  ।

ये सब क्या हो रहा है कामदेव की  समझ से परे था  ।

सब सौन्दर्य की साकार देवियां  छुपते छुपाते ........उसी स्थान पर पहुँच गयी थीं ........उसी शिला के पास ........जहाँ बैठे मुरली मनोहर   मुरली बजा रहे थे  ।

घेर लिया  उस शिला को........हजारों गोपियों नें  ।

ये इतनी सुन्दरीयाँ  हैं ........इनमें से तो  एक भी काफी थीं   इस कृष्ण का मन हरण करनें के लिये ....अब  देखना होगा  ये कृष्ण कैसे मुझ से पराजित नही होते   ?   कामदेव हँसता है  ।

पर ये क्या !    बाँसुरी बन्द कर दी कृष्ण नें !     

और शान्त गम्भीर ...........कामदेव पूर्ण चन्द्रमा को देखता है .....वृन्दावन की शोभा को देखता है ..........यमुना और  गिरिराज को देखता है ........कमल के फूलों को देखता है ...........फिर इन सुंदरियों को देखता है ..........इतना सब होते हुये  भी ये शान्त है ?    इतना शान्त तो कोई योगी भी नही रह सकता  इस  बनी हुयी परिस्थिति में  ! 

"आप सब का स्वागत है,  हे महाभागा गोपियों ! "

इनकी मधुर वाणी गूँजी  वृन्दावन में  ।

वे ऐसे स्वर  में बात कर रहे थे गोपियों से ......जैसे गोपियों से इनका  परिचय ही न हो  ।

आप कैसे  आईँ ?    अरे ! इतनी रात में  अकेले  ?   

बोले जा रहे थे कृष्ण .................

कोई संकट तो नही  आ पड़ा  तुम्हारे यहाँ ?   

ओह !   वृन्दावन की शोभा देखनें आयी हो ?     पूर्णिमा में,  वह भी शरद की पूर्णिमा में   अलग ही छटा होती है इस वन की ....यही देखनें आयी हो ?     

तो देख लिया होगा.....अब जाओ !  जाओ !  नही  तुम्हे जाना ही होगा  ।

कितना बोल रहे थे आज ये कृष्ण  ।

अरे !  तुम अभी तक गयीं नहीं  ?    क्यों ?  जाओ ना ! 

अच्छा  !   बैठो !   मैं तुम्हे  आज एक बात बताता हूँ .

.ये तो उपदेशक बन  गोपियों को उपदेश देनें लगे  थे ।

ध्यान रखना .....हे गोपियों !  पत्नी का पति ही देवता होता है ।

पत्नी को छोड़कर किसी को मानना ये भी अपराध है ....पाप है  ।

पति ही  देवता है ....पति ही ईश्वर है .......पति की सेवा ही  सबसे बड़ी सेवा है ..........और हाँ ...........पति चाहे जैसा हो .......शक्ति हीन हो ....भाग्य  हीन हो ....धन  हीन हो .........भले ही संसार उसकी निन्दा करती हो .....पर  पत्नी को चाहिये   ऐसे पति को भी छोड़े नही .....उसकी सेवा करके उसे प्रसन्न रखे  ।

कृष्ण बोले जा रहे हैं ......कामदेव  बड़े ध्यान से सुन रहा है ........

पर गोपियों नें  अपनें मस्तक को झुका रखा है ..........

तुम कुछ बोलती क्यों नहीं  ?      और मेरी ओर देखो ! 

जैसे ही कृष्ण नें कहा ......गोपियों नें  कृष्ण की ओर देखा .......

उनके आँखों का काजल सब बह गया था आँसुओं में.....उनकी हिलकियाँ बंध गयी थीं....अपनें पैर के अँगूठे से धरती को खोद रही थीं.......।

ये क्या कर रही हो ?       कृष्ण नें पूछा ।

सीता जी के लिये धरती फ़टी थी ना......आज हमारे लिए भी फट जाए ।

ये क्या कह रही हो ?     कृष्ण नें  समझाना चाहा  ।

क्या कह रही हैं हम ?    सही तो कब रही हैं .........

पर शास्त्र में लिखा है ये सब .........कृष्ण नें कहा ।

भाड़ में जाए शास्त्र ! 

 कृष्ण !   जो शास्त्र तुमसे हमें अलग करे   उस शास्त्र से हमें क्या लेना देना  ।

धर्म कहते हैं ऐसा.......  कि पति ही सब कुछ होता है पत्नियों का  ......

कृष्ण फिर समझाने लगे  ।

क्या सबके पति तुम नही हो ?  क्या सब  पतियों की भी आत्मा तुम ही नही हो !      अरे ! पतियों के ही क्यों  समस्त जीव चराचर की आत्मा तो तुम्ही हो ना !       और  हमें तो यही लगता है  कि     सबसे बड़ा धर्म यही है  ........तुम्हारे चरणों को  अपनें  वक्षस्थल में धारण करना  ।

क्यों की प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है ............तुम  समस्त आत्मा की प्यास हो ..........सब जो जीव चराचर भटक रहे हैं ........वो  मात्र तुम्हे पानें के लिये ही भटक रहे हैं.............तुम ही सबकी  चाह हो ......

और जब तक तुम्हे कोई पा नही लेता ......उसका सब पाना व्यर्थ है ।

तुम प्रेम हो .........हम सब प्यासे हैं ............हे कृष्ण !    ये प्यास जन्मों की है ........जन्म जन्मांतर की है ये प्यास .............फिर हमें कर्तव्य के नाम पर इस संसार में मत भटकाओ ...........धर्म के नाम पर  फिर संसार के बन्धन में मत  बाँधों ....हे कृष्ण !    हमें   स्वीकार करो  ।

गोपियों नें  रो रो कर  ये सब  विनती की थी  ।

कृष्ण   नें  फिर भी कहा.............धर्म कहता है  ...........

गोपियों नें कहा .....हम तो कहती हैं .....तुम अगर मिल जाओ  तो  सम्पूर्ण धर्मों को भी त्याग देना, यही श्रेष्ठ है.....यही सबसे बड़ा धर्म है ।

प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है .....हे कृष्ण ! 

प्रेम ही सबसे बड़ा सत्य है ....हे कृष्ण !

प्रेम ही सबसे बड़ा कर्तव्य है ...हे कृष्ण ! 

इतना कहकर गोपियाँ सुबुकनें लगीं ............

कृष्ण देख रहे हैं  गोपियों को ........

कामदेव आकाश से  आश्चर्यचकित हो बस देखे जा रहा है  ।

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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