30 आज के विचार
( अनादि दम्पति का ब्याह महोत्सव )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 30 !!
वर्षा ऋतु से सीधे बसन्त ऋतु ......पर वर्षा ऋतु में ही दोनों बाल रूप से चले थे अपनें घर ........क्यों कि अवतार काल की भी तो अपनी मर्यादा है ना ? बरसानें में जाकर देखा ..........कीर्तिरानी और बृषभान जी बैचेन हो प्रतीक्षा ही कर रहे थे कि "मेरी लाली क्यों नही आयी......वर्षा भीषण होनें वाली है.......कहाँ गयी "
बाबा ! बाबा ! दौड़ी भानु दुलारी .............कृष्ण देख रहे हैं ।
अरे ! कहाँ रह गयी थीं तू ? और ये ?
ये कन्हैया ! बाबा ! बृजपति मिले वृन्दावन में .........उनको गाय खोजनी थी .......तो हम दोनों को भेज दिया ......श्रीराधा नें कहा ।
बृषभान जी हँसते हुए बोले - बृजपति वृद्ध हो गए हैं .....उन्हें समझाना पड़ेगा ...देखो ! दोनों बालकों को अकेले रात्रि में ही भेज दिया !
लाला ! चलो आप भी ...........कुछ खा लो .......कीर्तिरानी नें बड़े प्रेम से कृष्ण को महल भीतर चलनें के लिये कहा ।
नही .......अब मैं चलूँ ! क्यों की बादल जिस तरह से छाये हैं .....लगता है वर्षा जोरों से होगी .....और मैं जितनी जल्दी नन्दगाँव पहुँचूँ उतना ही अच्छा रहेगा ........मेरी मैया भी उदास होगी ....कन्हैया नें कहा और जानें लगे ..........
ले श्रीदामा भी आगया ..... श्रीदामा ! तुम कन्हैया को नन्दगाँव पहुँचा दो .......और सुनो ! वर्षा अगर तेज़ हो तो तुम भी रात्रि वहीँ विश्राम कर लेना ............ठीक है ?
श्रीदामा नन्दगाँव चले कन्हैया को लेकर ।
हे वज्रनाभ ! एक रूप से श्रीराधा कृष्ण अपनें अपनें घर में आगये .........और दूसरे रूप से ........भाण्डीर वट में ब्याह की तैयारियाँ चल रही हैं ........इन अनादि दम्पति के ब्याह की तैयारी ।
हे गुरुदेव ! दो रूप कैसे धारण किये इन युगलवर नें !
ये कैसे सम्भव है ?
वज्रनाभ के इस प्रश्न को ज्यादा महत्व नही दिया महर्षि शाण्डिल्य नें ....बस इतना ही कहा .........वज्रनाभ ! दो रूप क्या दसों रूप भी बनाकर सामान्य योगी लोग भ्रमण करते रहते हैं ...........जब एक साधारण योगी भी दस रूप एक साथ बना सकता है .....तो ये ? ये तो समस्त योग के परम फल हैं ...........ये तो योगियों के ईश्वर के भी ईश्वर हैं ........ये अगर दो रूप बना रहे हैं तो क्या आश्चर्य !
छोडो इन व्यर्थ के प्रश्नों को ......
अब सुनो वज्रनाभ ! उस दिव्य ब्याह का वर्णन ।
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बसन्त ऋतु बिल्कुल पागल है ...........न वह कभी रुकता है ......न ठहरता है .....न किसी को ठहरनें देता है .......मिलन की तीव्रता को और बढ़ानें वाला है ये बसन्त .......प्रेमी से मिलनें की बेकली पैदा करता है बसन्त ..........भौरें मडरानें लगते हैं फूलों में ........जैसे उनकी बिलख ही डाल डाल और पात पात में मंडरा रही हो ......"रस की चाह" अर्धचेतन प्राणियों को भी जगा देती है .........वे भौरें रस लेनें के लिये मतवाले हो उठते हैं .........और जब रस ले लेते हैं ......तब चकरानें लगते हैं ........पागल है ये बसन्त .....हाँ स्वयं भी पागल है ....और सबको पागल बना देता है ........ऐसे बसन्त में श्रीहरि और उनकी हरिप्रिया ब्याह करनें जा रहे हैं .........उफ़ ! ऋतु भी क्या चुना है !
श्रीराधा की अष्ट सखियाँ हैं ..........और उन अष्ट सखियों की भी अष्ट सखियाँ हैं ...........मुस्कुराते हैं महर्षि !
विचित्र बात है ......कृष्ण के साथ ये सोलह का अंक जुड़ा हुआ है .....और बहुत गहरा जुड़ा है ..........गोपियां कितनी ? सोलह हजार ...पत्नियाँ कितनी सोलह हजार ........ कृष्ण में कलाएं कितनी ? सोलह कलाएं .........अच्छा श्रृंगार में श्रृंगार कितनें ? सोलह ।
कर्मकाण्ड में पूजा करनें के उपचार कितनें - सोलह ।
और आश्चर्य ! वज्रनाभ ! यह हमारे शरीर का पूरा पिण्ड ......पांच ज्ञानेन्द्रियां और पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन .....पूरे हुए सोलह ।
पर कृष्ण बड़े विलक्षण हैं .........वे सब को एक कर देते हैं .........सोलह को एक ही करके मानते हैं ..........सारे अनुमानों को गड़बड़ कर देते हैं .....सारे अनुमानों से मुक्त हो वे केवल एक पुकार बन जाते हैं अंतिम में ........ब्रह्म .....बस एक ....कृष्ण ....बस एक .......पर वो भी तड़फ़ उठता है .....पुकारनें लगता है .....और वह पुकारता है अपनें आपको .......वो "अपना" कौन ? वह अपना ....अपनी .....श्रीराधा ही हैं ।
सब सोलहों को .....जो पूर्ण है..........पर उन सबको एक करते हुए ..........वो अपनें में ही रमनें के लिये बैचेन हो उठता है .........जो अपना ही है ..........अपनें में ही है .......इतनी भी दूरी नही है .........उसी से फिर मिलनें के लिये मण्डप रचता है .........सेज सजाता है ........अपनें से ही प्रकट करता है .........फिर उसी से एक हो जाता है ....अपनें में समेट लेता है ...........बोलते बोलते महर्षि स्वयं खो रहे हैं ।
तभी एक दिव्य रथ आकर रुकता है ............
वज्रनाभ देखते हैं ......ओह ! ये तो हस्तिनापुर नरेश परीक्षित हैं ।
महर्षि, परीक्षित को देखकर आनन्दित होते हैं.........वज्रनाभ उठकर उनका स्वागत करते हैं ................
महर्षि के चरणों में सम्राट परीक्षित जब प्रणाम करते हैं ......तब आनन्दित हो महर्षि कहते हैं ......हे परम भागवत परीक्षित ! बहुत सुन्दर समय में आपका आना हुआ है ...........आज श्याम सुन्दर और उनकी आल्हादिनी श्रीराधा रानी का ब्याह महामहोत्सव है ........
इतना सुनते ही आनन्दित हो नाच उठते हैं परीक्षित .........उनके रोम रोम से प्रेम के परमाणु निकलनें लगते हैं .............
राधा ! राधा ! राधा रासेश्वरी !
राधा ! राधा ! राधा ! कृष्ण प्राणेश्वरी !
पर ये क्या ! "श्रीराधा चरित्र" की दिव्य कथा में आज ........परम प्रेमी भक्त श्रीउद्धव जी महाराज का भी प्राकट्य होता है ...........साष्टांग प्रणाम करते हुए ........वे महर्षि को आग्रह करते हैं कि हमें उस दिव्य कथा का पान कराइये ......वो कथा जो "अनादि दम्पति के ब्याह की कथा है" .....परीक्षित उद्धव जी को प्रणाम करते हैं ......वज्रनाभ दोनों को प्रणाम करते हैं........आहा ! कितना सुन्दर वातावरण ....कितना प्रेम रस पूर्ण वातावरण का निर्माण श्रीधाम वृन्दावन की भूमि में हो रहा है.........महर्षि और अधिक उत्साह से आगे की कथा सुनानें लगते हैं ।
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आदि सृष्टा ब्रह्मा जी नें हाथ जोड़कर आल्हादिनी श्रीराधा रानी की स्तुति की ........श्रीराधारानी के सहस्र पवित्र नामों का अपनें चार मुख से उच्चारण करते हुए .......उनके चरणों में नमस्कार किया ।
मैं सृष्टा ब्रह्मा !
आप दोनों के ब्याह का विधान करने आया हूँ ........कृपा करें ।
मुस्कुराईं श्रीराधा रानी !
.और अपनें प्राणधन श्यामसुन्दर की ओर देखा ।
मैं आपसे नाराज था विधाता ! ......क्यों की आपनें मेरे ग्वालवालों का अपहरण किया था ..........पर आज मेरे हृदय की बात आपनें कही है ......तो मैं आपसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ ........मेरी प्राण बल्लभा श्रीराधा रानी का कोई पूरा नाम भी नही ......मात्र "रा" भी कहे ....तो मैं उसके पीछे दौड़ पड़ता हूँ ..........और जब वह "धा" कह देता है .....तब तो मैं उसका ही होकर रह जाता हूँ ...............फिर आपनें हमारे ब्याह करानें की बात जो कही है ..........इससे मैं बहुत प्रसन्न हुआ .......
ठीक है .....आप ही ब्याह कराइये ...................
इतना सुनते ही ..........ब्रह्मा जी आनन्द से भर गए ।
अच्छा ! कन्यादान कौन करेगा ?
बड़ी विनम्रता से ब्रह्मा जी नें श्याम सुन्दर से ही पूछा था ।
पर इस रस में ब्रह्मा का ज्यादा विघ्न देना सखियों को अच्छा नही लगा .........ललिता सखी बोल पडीं .............पण्डित जी ! मन्त्र पढ़ो तुम तो बस ........इधर उधर करनें की सोचना भी मत ........तुम्हे मन्त्र पढ़ा रहे हैं ..........यही बहुत है ....कन्या दान किसे करना है ........क्या करना है .........इस सब के लिये हम हैं !
ब्रह्मा जी नें सखियों को हाथ जोडा और चुप हो गए ।
जिस के संकल्प से सम्पूर्ण सृष्टि बन जाती है .......वो ब्रह्मा स्वयं ब्याह करानें के लिये बैठ गए हैं ...........
पर रँग देवि सुदेवी सखियों नें आकर "श्रीजी" का हाथ पकड़ा ....और बोलीं आप चलिये ! पहले आपको देवी की पूजा करनी है ।
ये क्या कह रही हो .........इनसे बड़ी देवी और कौन हैं ?
ब्रह्मा जी नें बीच में बोलनें की कोशिश की .........पर सखियों नें उन्हें चुप कर दिया .......आप न बोलो ज्यादा ।
पर मैं वैदिक रीती का पक्षधर हूँ !
ब्रह्मा जी नें श्याम सुन्दर से कहा ।
धरो अपनें पास अपनी वैदिक रीती !
......हम तो "प्रेम रीती" को भी महत्व देंगी ।
इतना कहकर "श्रीजी" का हाथ पकड़ , बड़े प्रेम से सखियों नें उठाया ।
दूर कुञ्ज में ले गयीं ..........वहाँ एक देवी का विग्रह था .......
दुल्हन को पहले देवि पूजनी ही चाहिये ................
पर ये कौन सी देवि हैं ?
ललिता सखी नें कहा.....ये "नेह की देवि" हैं ....यानि ये प्रेम की देवि ।
"श्री जी" नें उन प्रेम की देवि को .....बड़े प्रेम से पूजा ............बिधि पूरी की .......फिर धीरे धीरे श्रीजी को लेकर आईँ उसी ब्याह मण्डप में ।
रतन चौकी में दोनों विराजें हैं .......पाग पहनें हुए हैं श्याम सुन्दर .....मोर पंख उस पाग में शोभा पा रहा है ..........चन्द्रिका श्रीजी के माथे में सुशोभित है ..........काजल सखियाँ लगा देती हैं .......ताकि किसी की नजर न लगे इस दोनों दूल्हा दुल्हन को ..............
ये दोनों इतनें सुन्दर लग रहे हैं ......कि इनकी शोभा देखकर ब्रह्मा भी वेद विधि और वेद मन्त्रों को भूल जाते हैं ......तब सखियाँ ही ब्रह्मा को वेद मन्त्र याद दिलाती हैं......या स्वयं पढ़नें लग जाती हैं ।
अग्नि देव स्वयं प्रकट हो गए हैं वेदी में ..................
"आहा ! देखो ! सखी ये दोनों कितनें सुन्दर लग रहे हैं ............सच में कहूँ तो इनको देखना ही इन नयनों की धन्यता है ...........सखियां दूल्हा दुल्हन को देख देख कर ..........मुग्ध हो जाती हैं ।
"गठ जोर" करो.....ब्रह्मा जी के कहनें से पहले ही सखियाँ तैयार थीं ।
"गठ जोर" किया ललिता सखी नें ...........फिर लाल जू की ओर देखकर सजल नयन बोलीं ......."हमारी लाली को कभी छोड़ना नही"
भाँवरि पड़नें लगी .....मन्त्र पढ़ रहे हैं .....ब्रह्मा जी .........गीत गा रही हैं सखियाँ .............
देखो ! देखो ! भाँवरि लेते हुए दोनों कितनें दिव्य लग रहे हैं........सखियों ! इस छबि को अपनें हिय में बसाओ ........यही हमारे जीवन धन हैं .....यही हमारे सर्वश्व हैं ।
पर एक सखी से रहा नही गया ........वो चँवर ले उठी .......और भाँवरि देते हुए "लाडिली लाल"" के पीछे पीछे चँवर ढुराते हुए चलनें लगी ।
इस छबि को ब्रह्मा देखते हैं तो बिधि भूल जाते हैं ..........इक टक बस इन दोनों को देखते ही रह जाते हैं .......सखियों को ही कहना पड़ता है ......"अब ये करो विधाता .....अब वो करो" !
ललिता सखी आगे आयीं.............अब कन्यादान !
"मैं करूंगी कन्यादान"
पर चरण प्रक्षालन का अधिकार मुझे भी मिलना चाहिये ..........ब्रह्मा मचल कर बोले थे ललिता सखी से ।
श्याम सुन्दर के हाथ काँप रहे हैं ........काँप तो लाली के भी रहे हैं ।
ललिता सखी नें अपनी लाली का हाथ लाल जू श्यामसुन्दर के हाथों में जब दिया......ललिता सखी रो गयी ....".हमारी लाली बहुत भोरी हैं ......इनका ध्यान रखना लाल ! "
सिन्दुर दान के समय तो .......श्याम सुन्दर की दशा देखनें जैसी थी.....सखियों नें सम्भाला था उन्हें .........वो बार बार अपनी देह दशा भूल रहे थे ...........सखियाँ तो सब सिद्धा हैं ..........कोई साधारण तो हैं नहीं .........वो सब अपनें आपको सम्भाले हुए हैं ......सेवा में ही इनका ध्यान रहता है ..........सेवा में मिलनें वाले "आनन्द" को भी ये ठुकराते हुए चलती हैं ........यही तो विशेषता है इन सखियों की ........तभी तो ये "श्रीजी" की सहचरी हैं ।
हे वज्रनाभ ! उद्धव ! परीक्षित ! एक गम्भीर बात जो इस ब्याह में घटित हुआ वो सुनो ..........महर्षि बोले ।
ब्रह्मा जी मूर्छित हो गए .........जब वो चरण धोनें लगे थे ...........उस समय वो पुरोहित के रूप में नही थे ..............और जैसे ही चरण धोनें लगे ..........तभी आनन्द की अतिरेकता के कारण वे मूर्छित हो गए ।
तब ललिता सखी नें एक रहस्य की बात ब्रह्मा के कान में कही थी .......
हे ब्रह्मा जी ! ये नेह की वीथी है .....ये प्रेम का मार्ग है ......इसमें अपनें आपको सम्भालना पड़ता है .......तनिक चूक से सब कुछ बिगड़नें का डर रहता है ...........हे ब्रह्मा जी ! आप अपना सुख देख रहे हैं ......आपको चरण धोते हुए आनन्द आरहा है .....तो आप उसी आनन्द में डूब रहे हैं ........पर जानते हो .......इस प्रेम मार्ग में "स्वयं के आनन्द में डूबना" ये भी उचित नही माना जाता ...........क्यों की ये भी स्वार्थ है ....हमनें अपनें आनन्द को महत्व दिया ......पर हमें अपनें आनन्द को नही, अपनें प्रिया प्रियतम के आनन्द को महत्व देना है ।
ओह ! ऐसी प्रेम रहस्य की बात जब ब्रह्मा जी नें सुनी ......तो उनकी बुद्धि चकरा गयी........वो उठे ......उन्होंने युगल सरकार के चरणों में प्रणाम किया ........फिर सखियों को भी हाथ जोड़ा .।
मुझे इस रस महोत्सव में सम्मिलित करनें के लिये आप सब सखियों का बहुत बहुत धन्यवाद ..........हे युगलवर ! इस रस को पानें का मैं कहाँ अधिकारी ? ........मैं बुद्धिजीवी .....पर ये रस बुद्धि से परे है .....इसके द्वार तो हृदय से ही खुलते हैं .............
दक्षिणा माँगो ! पण्डित जी !
सखियों नें हँसते हुए कहा ।
क्या ब्याह सम्पन्न हो गया .....?
ब्रह्मा जी नें सखियों से पूछा ।
ब्याह अभी कैसे सम्पन्न होगा ?
पर आपकी वैदिक विधि सम्पन्न होगयी ।
हमारी "नेह विधि" तो चलती रहेगी ।
ब्रह्मा जी नें अपनें चारों मस्तक धरती में रखकर प्रणाम किया ।
" आप दोनों के चरणों में अविचल भक्ति हो " यही मेरी दक्षिणा है ।
मुस्कुरा कर श्रीराधा माधव नें ब्रह्मा जी को देखा ........और दिया ।
ब्रह्मा जी तो चले गए
....पर सखियों की "नेह विधि" अब शुरू हो गयी थी ।
"तैसिये रूप माधुरी अंग अंग, तैसिये दुहुँन के नैंन विशाल"
चारों ओर आनन्द छा रहा था ...........आनन्द की धारा में बह रहे थे सब ...........महर्षि , वज्रनाभ , परीक्षित और उद्धव जी ।
"तैसिये चतुर सखी चहुँ ओरैं, गावत राग सुहाग रसाल
राधा दुल्हन दूल्हा लाल"
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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