"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 29

29 आज  के  विचार

( दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री...)

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 29 !! 



विचित्र हैं कृष्ण चन्द्र !    बढ़ते बढ़ते जाते हैं ........फिर पूर्ण होते हैं......फिर घटते घटते इतनें घट जाते हैं कि  लगता है शून्य ही हो गए ।

पर  फिर बढ़ना शुरू करते हैं.........ये विचित्रता, ये "अमृतकला"  मात्र श्रीकृष्ण चन्द्र में ही दिखाई देती है .........जैसे चन्द्रमा ......बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा को पूर्ण हो जाता है ..........पर फिर घटता है .......और घटता ही चला जाता है ......अमावस्या को शून्य ही हो जाता है  ।

महर्षि शाण्डिल्य समझाते हैं............कृष्ण चन्द्र बढ़ते जाते हैं .......आगे आगे  और आगे .........मथुरा,  फिर  द्वारिका ........सुवर्ण का साम्राज्य खड़ा कर देते हैं ......पर  फिर घटते हैं ........सब कुछ त्यागते हैं ......त्यागते चलते हैं........अपनें आपको शून्य में ले आते हैं .......अर्जुन के सारथि बनते हैं ......राजसूय  यज्ञ में जूठे पत्तल तक उठाते हैं........शिशुपाल की गाली  खाते हैं .....वो भी भरी सभा में ....गांधारी का श्राप भी सहर्ष स्वीकार करते हैं...........पर  फिर उठते हैं .............हाँ ऐसा लगता है  कि  अमावस्या को देखते हुए कि  चन्द्रमा अब गया .........अब नही  उठ पायेगा .....पर  वो फिर धीरे धीरे उठता है ...उगता है .......ऐसे  विचित्र  हैं    कृष्ण चन्द्र   ।

और ऐसे को  अपनें पल्लू से बाँध कर चलती हैं  श्रीराधा रानी .....ये किसी के बन्धन में नही बंधनें वाले .....बस श्रीराधा ही इन्हें बांधती हैं ...और  बांध सकती हैं  ।

हर स्थान पर ये श्यामसुन्दर  भ्रमर हैं ..भौरें के समान हैं ........जो हर कली में बैठता है.....पर  यहीं  वृन्दावन में ही......ये मीन बन जाते  हैं .......मछली की तरह  एक निष्ठ हो जाते हैं ......ये  मात्र यहाँ ही   अपनी श्री राधा रानी  के ही  होते  हैं ।

श्रीराधा इन्हें आँखें दिखाती हैं ......तो ये परब्रह्म थरथर काँप उठता है ।

श्याम सुन्दर के  चरणों को  कौन नही चाहता .....ब्रह्मा , इंद्र रूद्र  समस्त देव किन्नर गन्धर्व .......पर  और सब मिल जाए उन्हें  .......पर  इनके चरण बड़े  दुरूह  हैं उनके लिये .......और देखो ! यहाँ इन "प्रेम विथिन" में ......श्रीराधा रानी के चरणों को  अपनी गोद में रखकर  ये दवाते  हैं  ।

प्रेम की महिमा  इससे ज्यादा और क्या होगी  ?  

महर्षि शाण्डिल्य नें  वज्रनाभ को कहा .........और  अब उस  दिव्य  ब्याह का वर्णन करनें बैठ गए .।

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ऋतुएँ बदल गयीं ...........अभी तक वर्षा  ऋतु थी ........पर एकाएक  वृन्दावन में ऋतु नें   बरसात से छलाँग लगाई    बसन्त पर  ।

वज्रनाभ नें  सन्देह प्रकट किया  ये कैसे सम्भव है  ?   

क्यों ?     मैने कहा ना  वज्रनाभ !   कि इस ब्याह का  आयोजन स्वयं आस्तित्व नें किया है ..........और प्रकृति  इसी की तो है .....जो ब्रह्म और आल्हादिनी चाहेगी .....बस प्रकृति वही प्रकट करेगी.....अरे नही  वज्रनाभ !  ब्रह्म और आल्हादिनी की बात छोडो ......सखियाँ भी जो संकल्प कर लें ........प्रकृति को वही प्रकट करना पड़ता है  ।

........बसन्त छा गया है ......वृन्दावन में .............

हजारों नौकाएं  प्रकट हो गयीं यमुना में ........उन नौकाओं  का आकार  हँस जैसा था .........प्रत्येक नौका में    अष्ट सखियाँ बैठी थीं ..........वो बड़ी सुन्दरी थीं ...........सबनें  पीले रँग के लंहगा पहनें हुए थे ........पीली ही चूनर ओढ़ी थी .............उनकी चोटी  ऐसी लग रही थी जैसे नागिन हो ............उनके मुख मण्डल में प्रसन्नता और उत्साह था ...........उनके देह से  कमल की  गन्ध प्रकट हो रही थी ........

वो उतरीं ...............और एक आश्चर्य !      साँवरी जो सखियाँ थीं .....उन सबनें  श्याम सुन्दर को पकड़ा ..........और ले गयीं  नौका में .....और जो गौर वर्णी थीं .......उन्होनें  श्यामा जू  को पकड़ा ........वो  राधा रानी के पक्ष की थीं ......ले गयीं  उस  दिव्य नाव में  ।

हे वज्रनाभ !  मुझ में "सखी भाव" का अभाव था ......इसलिये "श्रीजी" के  श्रृंगार  को देखनें का मैं अधिकारी नही हुआ .......

हाँ ....पर मैने श्याम सुन्दर के श्रृंगार को देखा ..........दर्शन किया मैने ...उस  समय  समस्त देव और देवियाँ आकाश में लालायित हो  देखनें का प्रयास कर रहीं थीं ......पर  नही .......पर  मैनें दर्शन किये  उस  दिव्य श्याम कांति के .........आहा  ।

वो सांवरी सखियाँ    श्याम सुन्दर को  एक नाव में ले गयीं .......रँग बिरंगे पर्दे लगे थे उन नावों में  .......फूलों की पच्चीकारी थी  उनमें  ।

सखियों नें एक सुवर्ण के पाटे में बिठाया श्याम सुन्दर को ..........

शरीर में जो वस्त्र धारण किये थे  श्याम नें ......उसे  हटाया .........आहा !  मैने दर्शन किये .........इन्हीं नेत्रों से दर्शन किये वज्रनाभ  ! 

वो दिव्य श्याम आभा  .......श्याम छटा  छिटक रही थी  उनके देह से ।

उनका देह ऐसा था .......जैसे , जैसे ........कुछ सोचते हुए महर्षि उपमा खोज रहे थे .....पर  कोई उपमा उन्हें मिल ही नही रहा था .......

जैसे -    माखन में  हल्का नीला रँग मिला दो .......तो  कैसा लगेगा ......

आकाश का रँग ...........हल्का नीला रँग ...............छोडो वज्रनाभ !   श्याम सुन्दर के अंग का रँग क्या है .......कैसा है   इसकी इस जगत में कोई उपमा ही नही है ...........फिर आगे कहनें लगे  ।

उबटन लगाया सखियों नें उनके  देह पर ..............

पर वे  चंचल नेत्र इधर उधर ही देख रहे थे ...........

क्या देख रहे हो लाल ? 

   सखियों नें  उबटन उनके कपोल में लगाते हुए  छेड़ा ......।

सखी !     मेरी प्यारी कहाँ हैं  ?        

मिल लेना ....मिल लेना ..........अभी  तो   समय लगेगा ..........सखियाँ हँसनें लगी .........

सखी !  मेरा मन  अब इन सबमें नही लग  रहा .....जल्दी करो ना ......मुझे अपनी  प्राण बल्लभा को  देखना है ...........मेरा मन अधीर हो रहा है ..........मेरा मन अब मेरे वश में नही है .......कहाँ गयीं  मेरी  स्वामिनी  !   बोलो सखी  !   

श्याम सुन्दर की ऐसे स्थिति देख   सखियों नें   नौका का पर्दा तनिक उठाया .........आज आप दोनों का ब्याह है .......वो देखो  आपकी प्यारी सज रही हैं  ।

क्या उनको भी उबटन लग रहा है  ?

   कितने मासूम बन रहे थे श्याम सुन्दर ।

हाँ हाँ .........बस कुछ देर के लिए और ठहर जाओ  प्यारे !     फिर  आपकी प्यारी आपकी ही  होंगी  ।

पाटे में  बैठ गए  श्याम सुन्दर फिर .......उबटन मल रही हैं  सखियाँ .....अब केशर का जल   जो हल्का गुनगुना था ....उसमें गुलाब जल और केशर दोनों की सुगन्ध  आरही थी .............उससे स्नान कराया गया  लाल जू को .........सुन्दर कोमल रेशमी वस्त्र से  उनके सांवले  देह को पोंछा .......सखियों नें पीली धोती पहनाई .........पीले  आधे बाँह की  बगलबन्दी ..........सुन्दर  रेशमी  पीताम्बरी .............केश जो  घुँघराले थे ............उसमें  सुगन्धित तैल लगा दिया ......और  उन्हें  थोडा और बिखेर दिया ..........वज्रनाभ ! मैं क्या बताऊँ  !     वो घुँघराले  बाल जब उनके मुख मण्डल  में  आरहे थे ....तब ऐसा लग रहा था ........कि  भौंरों का  समूह  कमल पर  मंडरा रहा है  ।

रोरी का तिलक माथे में लगा दिया था .....श्याम सुन्दर के ........

छोटे छोटे मोतियों को    अक्षत के रूप में  उन तिलक पर  सजा दिया था .........

तभी एक सखी  सुन्दर और छोटा सा सेहरा लेकर आई ...........उसे  सिर में बाँध दिया .........एक सखी नें  बीरी ( पान ) श्याम सुन्दर को खिलाया ..........वैसे ही इनके अधर लाल थे ....और लाल हो गए  ।

इतना सजानें के बाद ..........सखियाँ  दूर हट गयीं ........क्यों की ज्यादा ही पास से  रूप सौन्दर्य का सही सही पता नही चलता ......इसलिये  कुछ  दूरी भी जरूरी है .............सखियाँ दूर जाकर  देखनें लगीं ........हे वज्रनाभ !    उस रूप सुधा को देखकर  कोई सखी मूर्छित ही हो गयी ......कोई अपनें आपे से  बाहर चली गयी ...........कोई सखी  भावातिरेक  में   अपनें आँखों का काजल निकाल कर श्याम सुन्दर को डिठौना   लगानें लगी ........ताकि नजर न लगे  ।

अच्छे लग रहे हो ......लाल जू  ! 

     पर हमारी  लाली तुमसे भी अच्छी लग रही हैं.....एक सखी नें कहा  ।

अब तो दिखादो  हमारी  प्रिया को ........हाथ जोड़ उठे श्याम सुन्दर ।

चलो ............नौका से उतारा  सखियों नें.......चारों और कमल के पराग उड़नें लगे थे........यमुना की बालुका उड़ रही थी .....पर  उस बालुका के रूप में  कपूर को ही  मानों पीस कर  प्रकृति नें फैला रखा था  यमुना में ।

फूलों के  पाँवड़े  बिछाये थे .......उनमें ही  अपनें चरणों को रखते हुए श्याम सुन्दर आगे बढ़े........

उधर............गौर वर्णी  श्रीराधिका रानी     नील वसन  धारण की हुयी .......माथे पर  चन्द्रिका  ...........गले में  मोतियों का हार .......मुख मण्डल ऐसा लग रहा है .......जैसे  सोनें को तपाया गया हो ........और दिव्य आभा उसमें से निकल रही हो .......उनके चरणों  में नुपुर हैं .....जब वो दुल्हन के रूप में  धीरे धीरे चल.रही थीं    तब  उसकी ध्वनि  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फ़ैल रही है........आकाश से देवों नें और देवियों नें पुष्प बरसानें शुरू कर दिए हैं......पर  उन सब पुण्यजीवी देवताओं को   मात्र आभा ही दीख रही है ..........हे  वज्रनाभ !  उन्हें  दर्शन नही हो रहे.......क्यों की ये दर्शन  और ऐसे  महामहोत्सव .....पुण्य से प्राप्त नही होते ....ये तो तब होते हैं    जब आल्हादिनी की कृपा हम पर हो  ।

तभी  श्याम सुन्दर  दौड़े ........और उधर से  श्रीराधिका जू  दौड़ीं  ।

और ऐसे मिले दोनों   जैसे बादल और  विद्युत का मिलन हो   ।

सखियों नें गायन और नृत्य शुरू कर दिया था ....

 ....और कुछ सखियाँ  जयजयकार कर रही थीं   ।

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सुन्दर मण्डप  तैयार है ....फूलों का मण्डप है ............

कुञ्ज लताओं के बीच  वह मण्डप सजा है  ..............

एक सखी गयी और  दो रतन  चौकी ले आई 

इन दोनों दूल्हा दुल्हन को बैठाना जो है  ।

पर तभी .............

"आज  आप दोनों का ब्याह होगा"  आज ही मुर्हूत है".......

सहसा  आकाश में आलोक हुआ था .........और  हँस  में बैठकर विधाता ब्रह्मा उतरे थे  वृन्दावन की भूमि में  ।

सखियाँ हँसी .......अच्छा !  हमें तो पता ही नही था ............पर आप चार मुख वाले कौन हैं   ?      

हे  हरिप्रिया की सखियों  !      मेरा प्रणाम स्वीकार करो ........मैं ब्रह्मा हूँ .....आदि सृष्टा ब्रह्मा ...............

पर यहाँ तुम्हारा क्या काम है  ?    सखियों नें पूछा ।

मैं ही  इस ब्याह का पुरोहित हूँ ....इस सौभाग्य से मुझे  वंचित न करो ।

मैने  हजारों कल्पों से इस समय की प्रतीक्षा की  है ..........और मुझे श्याम सुन्दर नें   "वर" भी दिया था कि .......मैं ही इस ब्याह को सम्पन्न कराऊंगा  ।

पर इनके "वर" देंनें से क्या होता है  ?    सखियों नें फिर ठिठोली की ।

ये तो  हमारी लाली के पल्लू से बंधे हैं .............इसलिये आप  हमारी लाली से ही प्रार्थना कीजिये .......सखियों नें  ब्रह्मा जी को कहा ।

विधाता  ब्रह्मा जी नें  हाथ जोड़कर श्रीराधा रानी  की स्तुति करनी प्रारम्भ कर दी थी   ।

"दूल्हा  दुलहनि नख सिख सोभा,  श्री हरिप्रिया निरखि मन मोहा "

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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