31 आज के विचार
( रसोत्सव )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 31 !!
श्रीराधा माधव, दोनों ही भौरें हैं , पर दोनों ही कमल भी हैं ....दोनों ही चकोर हैं तो दोनों ही चन्दा भी हैं ......दोनों ही प्रेम हैं तो दोनों ही प्रेमसिन्धु भी हैं .........
सृष्टि के आदि अंत तक एक दूसरे को देखते रहनें पर भी .......इनका अभी तक अच्छे से परिचय भी नही हुआ है ...........ये एक दूसरे को निहारते रहते हैं.........तब कितनी ही सृष्टियाँ बदल जाती हैं ......कितनें ब्रह्मा और रूद्र बदल जाते हैं ......पर ये अघाते नही ............श्याम सुन्दर तो बस यही कहते हैं .........."राधे ! तेरो मुख नित नवीन सो लागे" ।
रस उछलता है .....रस ही रस में "रस" समा जाता है ..........फिर रस, रस को ही चखनें के लिये उतावला दिखाई देता है ......।
हे वज्रनाभ ! तुम्हे क्या लगता है ............राधा कोई स्त्री हैं ? .......कृष्ण पुरुष हैं ? ........सखियाँ कोई नारी हैं ? नही वज्रनाभ ! नही ।
इस निकुञ्ज की केलि में........न कोई स्त्री है ....न कोई पुरुष है .....सब तरफ "रस ही रस" का विस्तार है .........
तुमनें सुना होगा ना ......वेदों नें कहा है ...."रसो वै सः "...."सः" यानि ."वह" वह यानि ब्रह्म .......ब्रह्म रस रूप है ।
तो यहाँ राधा के रूप में "रस" ही प्रकट है ...कृष्ण के रूप में "रस" ही उछल रहा है ........सखियों के रूप में भी वही 'रस" सेवा में तैयार है .......अरे ! इतना ही नही ....इस श्रीधाम वृन्दावन के वृक्ष भी "रस" रूप हैं ......यहाँ की लताएँ भी .........उसमें खिलनें वाले पुष्प भी .....यमुना भी ......रज कण भी.....पक्षी भी...अरे ! श्रीराधा रानी की चन्द्रिका भी....उनकी करधनी, हार, नुपुर ये सब भी ...."रस" का ही विस्तार हैं ।
कृष्ण का मुकुट .....बंशी ......पीताम्बरी ..........गूँजा की माला .........सब कुछ "रस" ही है .........
समझे वज्रनाभ ! सब कुछ रसमय है इस वृन्दावन में.......यानि सब कुछ ब्रह्ममय है .......रस ही रस है यहाँ तो ।
क्यों न हो ....."रसराज" स्वयं दूल्हा बनें बैठे हैं .....और उनकी आल्हादिनी श्रीराधा रानी दुल्हन के रूप में सजी हुयी हैं ........
ये सामान्य घटना नही हैं........ये रस का ही उत्सव है......मात्र रस ही रस .....वाह ! आनन्दित हो उठे थे ये सब कहते हुए स्वयं महर्षि ।
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गारी देने की बारि थी अब सखियों की श्याम सुन्दर को ।
...श्रीराधा रानी के पक्ष में खड़ी समस्त सखियाँ ब्याह की रीत समझाती हुयी गारी देनें लगीं ।
पर ललिता सखी नें चौंसर सामनें रख दिया .............दूल्हा दुलहिन को चौंसर खिलाया जाए ......और गारी भी देती जाएँ ...........
पर जो हारेगा उसे क्या करना पड़ेगा ? सखी नें पूछा ।
तब रँगदेवी सखी आगे आईँ और हँसते हुए बोलीं ......लाडिली ही ये निर्णय करें कि जो हारेगा उसे क्या करना होगा ?
लाडिली नें लाल की ओर देखा .........श्याम सुन्दर तुरन्त बोल उठे ......."मैं हारा तो मैं इनका हो जाऊँगा .......और ये हारीं तो ये मेरी हो जायेगीं" ......सारी सखियाँ ताली बजाकर हँस पडीं ......बड़े चतुर हो ........चित्त भी मेरी , पट् भी मेरी ?
शरमा गयीं श्रीराधा रानी ........घूँघट में से मन्द मन्द मुस्कुरा रही थीं ।
चौंसर खेला जानें लगा..........सब बड़े आनन्दित हैं .......जब पासा फेंका जाता है ......तब तो उस निकुञ्ज के पक्षी भी शान्त हो जाते हैं .....वह भी देखनें लग जाते हैं ....कि कौन जीत रहा है ...........
तुम बड़े गोरे हो प्यारे ! एक सखी छेड़ती है ............
अब ज्यादा मत बोलो ..खेलनें तो दो !
.....श्याम सुन्दर सखीयों से कहते हैं ।
तभी सुदेवी सखी आईना ले आती है .... सब सखियाँ हँसती हैं ।
हमारी बात का भरोसा नही है ........स्वयं ही देख लो ...........आईना दिखाती है सुदेवी ।
श्याम सुन्दर को क्यों छेड़ रही हो तुम लोग ?
श्रीराधा रानी जब देखती हैं श्याम सुन्दर कुछ परेशान से हो रहे हैं तब सखियों से कहती हैं ।
आज के दिन आप कुछ मत कहो लाडिली !
हमें यही दिन तो मिला है ।
श्रीजी अब कुछ नही कहतीं......सखियों का ये अधिकार है आज तो ।
देखो ! कितनें गोरे हो आप श्याम सुन्दर !
आईना फिर दिखा दिया ............श्याम सुन्दर नें आईना देखा ......फिर पासा फेंक कर चौंसर खेलनें लगे .........
क्या हुआ ? गोरे नही हो ?
नही नही प्यारे ! आप तो गोरे ही हो ....काला तो हमनें तुम्हे बना दिया है ...........ये हमारा दोष है .........आपका क्या दोष ?
चौंसर रोक दिया .......हँसी फूट पड़ी श्रीजी की भी ।
कैसे ? धीरे से वो भी बोलीं ।
हम आँखों में कजरा लगाती हैं ना ...........और इन्हें ही दिन रात देखती रहती हैं ............बस इसी से ये काले हो गए ।
इस बात पर तो श्यामसुन्दर भी हँस पड़े ....श्रीजी भी हँसी....सखियाँ तो हँस ही रही थीं ......और पक्षी भी सब हँस पड़े थे ।
चौंसर खेलना शुरू हुआ फिर .......सखियाँ गारी दे रही हैं ।
तभी श्याम सुन्दर हार गए .....हारना ही था.......यही तो श्रृंगार रस का नियम है .....नायक जब नायिका से हारता है ........तभी श्रृंगार रस पुष्ट होता है ।
सिर झुकाये बैठे हैं अब श्यामसुन्दर ।
"हम तो अब इनके हो गए" श्रीजी की ओर देखते हुए बोले ।
श्याम सुन्दर इससे ज्यादा और क्या कहते !
नही ..नही ..ऐसा कहनें से काम नही चलेगा
......सखियाँ इकजुट होकर बोलीं ।
तो क्या करना पड़ेगा हमें .? धीरे से बोले श्याम सुन्दर ।
सब सखियां आपस में काना फूसी करनें लगीं .......उन सखियों की बातें सुननें के लिये ....तोता मैना कोयल ये सब भी पास में ही आगयी थीं ।
हाँ ..यही ठीक है ।
ललिता सखी गयीं ..........और एक चाँदी की थाल .......रेशमी वस्त्र से
ढँककर ...ले आईँ ..............
ये हमारी प्यारी जू की कुल देवि हैं .........इन्हें प्रणाम करो लाल !
पर हम तो सब जानते हैं ..........इनकी जितनी कुल देवि हैं उन सबसे हमारा पुराना परिचय है ............
नही नही ........ललिता सखी को कहना नही आया .....ये आपकी कुल देवि हैं ........हमारी नही .........आपकी ....आपके नन्द बाबा के कुल की देवि हैं .........आप प्रणाम करो अब ।
पर ........श्याम सुन्दर कुछ कहते कि........उससे पहले ही ....सखियों नें कहा .....आप हारे हो .........इसलिये आपको ये बात माननी ही पड़ेगी .......इनको प्रणाम करो ।
श्याम सुन्दर नें बड़े प्रेम से सिर झुकाकर जैसे ही प्रणाम किया .........
वहाँ तो पादुका श्रीजी की थी .......मस्तक श्याम सुन्दर का "श्रीजी " की पादुका में नवा........सखियां हँस पडीं ........तालियाँ बज उठीं ।
श्रीजी आगे बढ़ी .....और बड़े प्रेम से अपनें प्राण धन श्याम सुन्दर को हृदय से लगा लिया ।
क्या गारी दें प्यारे तुम्हे ! ......तुम्हारी ये छबि ........तुम्हारे ऊपर पानी वार कर हम पीती हैं ..........ताकि नजर न लगे तुम्हे ।
नजर न लगे इस जोड़ी को ....नजर न लगे......सखियाँ भावुक हो उठीं ।
अरी पगलियों ! थोड़ा इन युगल पर कुछ तो तरस खाओ ......देखो ! इनके मुख चन्द्र कैसे हो रहे हैं ........इनका मुख कुम्हला रहा है ।
इनको अब कुछ खिलाओ ..............चलो !
हे वज्रनाभ ! सखियाँ नाना प्रकार के पकवान , मिष्ठान्न , सूप, ओदन ... सुन्दर सुन्दर शताधिक थालियों में नाना व्यंजन......सजा कर रख दिया .....
और सब हँसती हुयीं .....गीत गानें लगीं ............
श्याम सुन्दर पहले श्रीजी को खिलाते हैं.
........फिर उनका जूठन स्वयं पाते हैं .........।
हे वज्रनाभ ! इस रस को समझना बुद्धि से सम्भव नही है ।
ये प्रेम रस का उछलता एक अद्भुत रूप है.......इसमें जो डूब जाता है वही इसे समझता है .........इतना कहकर महर्षि मौन हो गए थे ।
"नयो नेह नव रँग नयो रस, नवल श्याम बृषभान किशोरी"
शेष चरित्र कल -
Harisharan
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