"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 28

28 आज  के  विचार

(  भाण्डीरवट में ... )

!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 28 !! 



आज महर्षि शाण्डिल्य अति मत्त लग रहे हैं ....वज्रनाभ का हाथ पकड़ कर वो  वृन्दावन के "भाण्डीर वट" में ले गए......और वहाँ जाकर   बैठ जाते हैं ........उनके  नयन रसीले हैं आज .........वो मन्द मन्द अपनें में ही मुस्कुरा रहे हैं.......वो कुछ कहते हैं......समझना बड़ा कठिन है .......पर    वज्रनाभ समझनें की कोशिश करते  हैं......आश्चर्य ! जितनी  कोशिश उनकी  होती है .....बात  और रहस्यमयी  होती जा रही है .....वज्रनाभ  नें अब  छोड़ दिया है   और सहजता में  सुन रहे हैं ,  महर्षि को ..........हाँ ....सहजता में ही प्रेमरहस्य प्रकट होता है..........वज्रनाभ  चकित से   बस अनुभव करते जाते हैं.....और ऐसे अनुभव करते  हैं ......जैसे  गूँगा  गुड़  के स्वाद को अनुभव करता है ......हाँ  ये प्रेम है ......ये प्रेम का ब्याह  महामहोत्सव है  ही ऐसा ।

हे वज्रनाभ !   कृष्ण  इस ब्याह महोत्सव के नायक नही है .........नायक नायिका जो भी हैं .....वो  सिर्फ हरिप्रिया श्रीराधारानी ही हैं  ।

कृष्ण   श्रीराधारानी को कहीं ले जाते नही हैं ......वो ले जा सकते भी नही हैं ...........ले जाती हैं  तो स्वयं श्रीराधा रानी ........हाँ .......कृष्ण उनके पीछे पीछे चलते हैं.....आगे आगे श्रीराधा चलती हैं  मार्गदर्शक बनकर । .........महर्षि शाण्डिल्य  कुछ अटपटे ढंग से   पर प्रेम में भींगें,   आज  इस चरित्र को सुना रहे हैं  ।

"कितनी विचित्र बात है ना !.....श्याम सुन्दर को  अपनी श्यामता से ही डर लगता है.....वो डर जाते हैं .......पता है वज्रनाभ !  वो क्यों डरते हैं ?   वो इसलिये डरते हैं  कि ....उन्हें स्वयं के खोनें का डर है .....मैं कहाँ हूँ ........घना बादल छा गया है वृन्दावन में........अन्धकार चारों ओर फैल गया है........घुप्प अन्धकार ......

और  फिर वृन्दावन की भूमि  तमाल वृक्षों   से पटी पड़ी है ..........उसनें  और भी   अन्धकार की सृष्टि कर दी है ..............

कृष्ण डर जाते हैं ...........श्यामता का ऐसा विस्तार ?     श्याम सुन्दर  का भयभीत होना स्वाभाविक है .........मैं अपनें को कहाँ खोजूँ ? 

क्यों की  मैं भी तो  इसी रँग का  हूँ  ..............मैं तो खो रहा हूँ  इस अंधकार में ............

मुस्कुराते हैं ...महर्षि शाण्डिल्य ........तभी,   तभी   श्रीहरिप्रिया श्रीराधा रानी प्रकट हो जाती हैं ..........मानों  बादलों  में बिजली .......गौर वर्णी ......मानों   बिजली चमकी ........और उस बिजली के प्रकाश  में श्याम सुन्दर   नें अपनें को पा लिया ...............खुश हो गए श्याम सुन्दर ......दौड़े ........"चलो अब"  कह देती हैं  श्रीराधा रानी   और आगे आगे चल देती हैं............बैचैनी श्याम सुन्दर की है .........बादल की बैचैनी  चंचला बिजली से एक होनें की है .....अपनें में समा लेनें की है ............पर इसके लिये  अभी कुछ प्रतीक्षा करनी पड़ेगी .........हाँ .....प्रेम  ऐसे ही तो नही मिलता ..........कुछ तो तडफ़ो .......कुछ तो बैचेन हो .........कुछ तो बेकली पैदा करो ..........प्रेम  का साकार रूप  श्रीहरिप्रिया इस बात को समझती हैं  ।

हँसते हैं   महर्षि  शाण्डिल्य ............ये श्रीराधा  स्वयं प्रेम हैं ..........ये प्रेम की शिक्षिका हैं   श्याम सुन्दर की ......ये नही समझेंगीं  ?

महर्षि  आज  "प्रेम सूत्र" में बातें  करते करते   भाव सिन्धु में डूब गए   ।

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हे महर्षि शाण्डिल्य !   मैं  एक  संसार के मोह माया में लिप्त जीव हूँ ....

जो आप बता रहे हैं ......उसे  जीवन मुक्त महापुरुष भी नही समझ पाते तो मैं क्या हूँ ...........आप नें मुझे पूर्व में कहा था  कि  "निःस्वार्थ की साधना"  किये बिना  ये दिव्य प्रेम समझ  से परे है .............पर मेरा मानना ये है कि आप जैसे महापुरुष अगर चाहें  तो  मुझ कैसे स्वार्थ से भरे  जीव में भी   प्रेम के अंकुर  दे सकते हैं..........जिस अंकुर के फूटनें से ये प्रेम पल्लवित और पुष्पित होता जाएगा .........प्रेम के फूल खिलेंगें  और मुझे विश्वास है उस फूल  का सुगन्ध लेनें  स्वयं  श्रीराधा माधव   मेरे हृदय बाग़ में अवश्य पधारेंगें .............मुझ में योग्यता नही है उस प्रेम को सुननें की ........पर  योग्यता आप दे सकते हैं ........आप  देंगें  ।

इतना कहते हुए  वज्रनाभ नें  महर्षि के चरणों में प्रणाम किया ..........साष्टांग प्रणाम किया .....उनके  पद रज   को अपनें माथे में और सम्पूर्ण शरीर  में लगाया  .........और  फिर   युगल मन्त्र का जाप एवम् ध्यान करते हुए बैठ गए  .......इस प्रतीक्षा में  कि .....प्रेम समाधि से कभी तो उठेंगे  महर्षि शाण्डिल्य  ।

उठे ..........नयन खोले   और   वज्रनाभ को देखा  ।

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"तुम प्रेमी हो वज्रनाभ ! .......परमभागवत उद्धव के बाद अगर कोई तुम्हारे यदुवंश में प्रेमी हुआ है ......तो वह तुम ही हो   ।

आनन्दित हो उठे थे महर्षि शाण्डिल्य  वज्रनाभ की स्थिति देखकर.... ........फिर  आगे की कथा सुनानें लगे ......वही कथा ......जो सूत्र के रूप में पहले  सुना चुके हैं  ।

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आज बिलम्ब हो गया है श्यामसुन्दर को  खेलते खेलते  वृन्दावन में ......वृन्दावन में भी  "भाण्डीर वट" इनका प्रिय स्थल है ........जब भी अवसर मिलता ....ये  यहीं  आजाते ...............

पर आज     एकाएक वर्षा हो गयी ....काले काले बादल छा गए वृन्दावन में ..........गौएँ  कहाँ चली गयीं  पता नही ........श्याम सुन्दर इधर उधर देखते हैं.........

"अरे !  गाय कहाँ गयीं  ?    तुम लोग देखो ना "

   गाय कहाँ गयीं !   श्याम सुन्दर को गाय की चिन्ता है........सखा खोजनें के लिये  निकल गए ..........चिल्लाते हुए जा रहे हैं.........गाय का नाम पुकारते हुए जा रहे हैं ......गौरी , धौरी ,  गंगा,  इत्यादि .....

श्याम सुन्दर  अब अकेले रह गए हैं वहाँ .....घना अन्धकार छा गया है ।

तभी  बृजपति नन्द वहाँ आपहुँचे......उन्होनें देख लिया था नन्दगाँव से ही   कि वर्षा भीषण होनें वाली है......कहीं मेरा कृष्ण  फंस न जाए......

चाहे बड़े हो गए हों कृष्ण ......पर  माता पिता को देखकर बालक  बालक ही बना रहता है ........अपनें पिता नन्द बाबा को देखकर कृष्ण  नें जोर से पुकारा ........बाबा ! बाबा ! ......नन्द बाबा को भी कृष्ण दिखाई नही दे रहे.....क्यों कि   कृष्ण भी काला और  अंधकार भी......

तू कहाँ है ?   कृष्ण !  तू कहाँ है ?     

अब कृष्ण  रोंनें लगे ..........रोनें की आवाज के साथ साथ  नन्द बाबा बढ़ते चले गए .....बढ़ते चले गए ........कृष्ण  टकराये थे अपनें बाबा से .........ओह ! मेरा लाला !    नन्द राय नें  अपनी गोद में उठा लिया ........अपना सिर  बाबा के कन्धे में रख लिया था कृष्ण नें  ।

पुत्र !   कृष्ण !     गौएँ कहाँ गयीं  ?    और तुम्हारे सखा ?  

 बाबा !  पता नही गाय किधर गयीं ........उनको ही खोजनें सारे सखा चले गए हैं ............मैं यहाँ अकेला .......कृष्ण नें  कन्धे में सिर रखे  रखे ही बताया  ।

बाबा !  चलो ना घर.........मुझे घर जाना है .........कृष्ण जिद्द करनें लगे थे ............नन्द राय  संकट में फंस गए ......कैसे जाएँ  घर ......गौए हैं .....उनको छोड़ कर कैसे जाएँ ..........और ग्वाल बाल  वो भी तो बालक ही हैं ......उन्हें भी कैसे छोड़ा  जा सकता है  ।

नन्द   कृष्ण को लेकर  घर लौट नही सकते थे ......और  साथ में कहाँ तक ले जायेंगें .......और  ऊपर  से बिजली भी चमक रही थी .........

पर ये क्या !    कुछ  आँखों में चौंधा सा पड़ा .........प्रकाश का चौंधा .....पहले तो नन्द राय को लगा .......आकाश की बिजली चमक रही है ......पर नही .................

सामनें   बृषभान नन्दिनी  हरिप्रिया  श्रीराधा रानी खड़ी थीं ........

ये नित्य तो आती थीं.........अपनें प्राण धन से मिलनेँ वृन्दावन ........तो आज कैसे न आतीं ?

नन्दराय नें पहले पहचाना नही .............सामनें एक  गौर वर्णी   अत्यन्त आभा से भरी हुयी ....सौन्दर्य की साक्षात देवि  ।

कौन  है  लाली तू   ?  नन्द बाबा नें पूछा  ।

"मैं  बृषभान जी  की बेटी  राधा"

मानों वीणा बज  उठी हो  ऐसी मधुर  आवाज  ।

तू इधर कैसे बेटी ?    अंधकार हो गया है  ..........नन्द बाबा को  राधा की भी तो चिन्ता लगी...........

"मैं घर ही जा ही रही थी"..........श्रीराधा रानी नें कहा  ।

फिर कुछ सोचकर बृजपति नें...अपनें लाला  से कहा .....

 श्याम सुन्दर  !   तू राधा लाली  के साथ चला जाएगा घर   ?   

हाँ ...खुश होते हुए......झट्  से कूद पड़े  नन्द बाबा की गोद से कृष्ण   ।

लाली !  लगता है हमारी  गायें  कहीं भटक गयीं हैं .......और उनके साथ ग्वाल बाल भी हैं .....मैं उन्हें देखनें जाता हूँ .....तू मेरे लाला को ले जा ।

और सुन ! इसका हाथ पकड़ कर ले चलना ......ये  बड़ा हो तो गया है ....पर  अभी भी   अन्धकार से डरता है  ।

"मैं घर तक पहुँचा दूंगी" 

बृषभान नन्दिनी नें सिर झुकाये ही  उत्तर दिया  ।

नन्द बाबा अब निश्चिन्त हो .........गायों को खोजनें आगे  बढ़ गए थे  ।

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मेरा हाथ तो पकड़ो ..........बाबा नें कहा था मेरा हाथ पकड़ना .......

कृष्ण नें  मुस्कुराते हुए  श्रीराधा रानी को कहा  ।

क्यों इतनी लीला करते हो........तुम्हे डर लगता है ?     

हाँ ....हमें बहुत डर लगता है .......इस अन्धकार से डर लगता है ......क्यों की इस अंधकार का रँग भी काला और मेरा भी .......कहीं मैं इसमें ही खो न जाऊँ ........अपनें आपको खोनें का डर लगता है .....कृष्ण ने कहा ।

"लो पकड़ लिया  हाथ".........श्रीराधा रानी नें  कृष्ण का हाथ पकड़ लिया ......."अब डर नही लग रहा ?......नही अब क्यों डर लगनें लगा ......अब तुम जो हो ना ........मैं खो भी गया .....तो तुम मुझे  खोज लोगी .....क्यों की तुम बिजली हो ............और तुम क्या हो ? 

मैं बादल .........बादल में बिजली चमकती है ना ........तभी   बादल की शोभा होती है.......अगर बिजली नही ....तो  बादल की क्या शोभा ?

तभी बिजली चमकी ..........डर गए कृष्ण .........और  श्रीराधारानी के  हृदय से लिपट गए .........अब शोभा पा रहा है  बादल ........जब बिजली से उसका अभिसार हो ..........अब  अभिसार होगा ...........कृष्ण मुस्कुराये ...............

और  तभी  भाण्डीर वट में  एक दिव्य  ब्याह मण्डप  तैयार होनें लगा .......रुमझुम करती हुयी   अष्ट सखियाँ प्रकट हो गयीं ........उन अष्ट सखियों की भी अष्ट सखियाँ थीं..................

.....तैयारियाँ शुरू .....प्रकृति स्वयं इस दिव्य ब्याह की तैयारियों में जुट गयी थी  ।

शहनाइयाँ बजनें लगीं ...

"श्रीराधा दुल्हन , दूल्हा लाल"

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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