"श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 27

27 *आज  के  विचार*

*( श्रीराधाकृष्ण के दिव्य विवाह की पूर्व भूमिका...)*

*!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 27 !!*


विवाह नही हुआ   श्रीराधा कृष्ण का  ?   

जब इतना ही प्रेम था  तो विवाह क्यों नही ?  

बड़ी विनम्रता से पूछा था ये प्रश्न वज्रनाभ नें  महर्षि शाण्डिल्य से ।

हँसे  महर्षि .............फिर वज्रनाभ की ओर देखकर बोले ..........

विवाह के लिए  कुछ तो दूरी चाहिये ना ?      यहाँ तो  दोनों एक ही हैं ।

विवाह के लिये दूसरा व्यक्ति चाहिये ना  !    पर यहाँ दूसरा है ही नही ।

यहाँ तो  एक ही तत्व है ......बस  प्रेम तत्व .......और वही प्रेमतत्व दो रूपों में रूपायित होकर  हम सबको दिखाई दे रहा है .......पर वस्तुतः दो हैं  कहाँ  ?    एक ही है .....प्रेम ........बस   ।

इतना कहकर वज्रनाभ की ओर  फिर देखा महर्षि नें ..........पर वज्रनाभ सन्तुष्ट नही दीखे इस उत्तर से ................

नही नही .......तुम बुद्धि से प्रश्न कर रहे हो......और बुद्धि से ही समझना चाहते हो ........पर  यहाँ  तुम जैसा उत्तर चाहते हो ......वैसा  मैं दे नही सकता ......क्यों की  प्रेम पर दिया गया  उत्तर   बुद्धि को सन्तुष्ट नही कर सकती ........क्यों की ये  प्रेम  एक अलग ही  तत्व है .....इसे हृदय से समझा जा सकता है........इसे तुम सामाजिक मान्यताओं  के आधार पर नही समझ सकते ......कि  विवाह क्यों नही किया  ?     अरे ! वज्रनाभ !  विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है ...पर प्रेम  सामाजिक व्यवस्था नही है .......ये   अलौकिक है .......ये  तत्व है .....जहाँ विवाह की व्यवस्था नही है  वहाँ पर भी  इसका प्रभाव देखा जा सकता है ..........प्रेम मात्र मनुष्यों में ही नही है ........सम्पूर्ण  प्रकृति में प्रेम व्याप्त है .......देखो !        ये जगत,  प्रेम से ही ओतप्रोत है ....देखो !  बादलों को देखकर मोर नाच उठते हैं ..........ये प्रेम ही तो है .........पपीहा स्वाति बून्द के  लिये ही प्यासा रहता है ........ये उसका प्रेम है .....मछली   जल के बिना अपनें प्राण त्याग देती है .......ये  प्रेम ही तो है ..........महर्षि  नें बताया ........इसलिये  विवाह संस्था है एक ......जिसे हम तुमनें बनाया है ......एक सामाजिक संस्था .......समाज को  व्यवस्थित रखनें के लिये बनायी गयी संस्था .......पर  प्रेम ,  प्रेम तो  प्राण है ......आत्मा है ......मर जाएगा बिना प्रेम के  ये  समस्त  ।

मैं समझ गया महर्षि !     वज्रनाभ के मुख मण्डल में सन्तुष्टि के भाव थे ।

मैं गलत था ......मैं अभी तक  ये सोचता था कि  महारानी रुक्मणि के साथ अन्याय हुआ ..............

पर ऐसा क्यों सोचते थे तुम ?  

    महर्षि नें बीच में ही टोक दिया वज्रनाभ को  ।

सौ वर्षों  से भी ज्यादा  साथ में रहे कृष्ण रुक्मणि के ........कृष्ण  का अंग संग नित्य प्राप्त होता रहा  उन लक्ष्मीस्वरूपा रुक्मणि को ........फिर अन्याय कैसा  ?       सदैव महारानी बनकर  द्वारिका में  कृष्ण के साथ रहीं .......कैसा अन्याय रुक्मणि के साथ  ?

अगर इसी दृष्टि से  सोचना है ........तो  अन्याय  श्रीराधारानी के साथ किया कृष्ण नें ..........पर  कोई शिकायत की  श्रीराधा नें ? 

इस जगत को निःश्वार्थ प्रेम क्या होता है   ये बतानें के लिये ही  श्रीराधा रानी का  प्राकट्य हुआ है .......तुम इस बात को समझो  ।

'कृष्ण सुखी रहें" .........बस यही कामना रही  श्रीराधा की .......

कृष्ण  प्रसन्न हैं  द्वारिका में ............बस   इसी बात से सन्तुष्ट हैं  श्रीराधा रानी   ..............

तुम  समझ नही पा रहे वज्रनाभ  !     श्रीराधा तत्व क्या है  ? 

सबकुछ त्यागा  श्रीराधा रानी नें .............श्री राधा रानी की होड़ कौन कर सकता है .........महर्षि  के नेत्र बरस पड़े  थे  ये सब कहते हुए  ।

तुमनें पूछा ना ........कि विवाह क्यों नही किया   ?   

श्रीराधा रानी स्वयं नही चाहती थीं   कि  विवाह के बन्धन में बांध कर मैं कृष्ण को   उनके कर्तव्य से  हटाऊँ  ?      कंसादि को मारना....यादवों को स्थापित करना .......पाण्डवों को  उनका  राज्य  दिलाना ।

और  किसनें कहाँ तुमसे  विवाह नही हुआ  श्रीराधा कृष्ण का .........हुआ ..........पर ये विवाह  स्वयं  आस्तित्व के द्वारा रचा गया विवाह था .....आस्तित्व  नें स्वयं रचना की थी उस विवाह मण्डप की ..........विधाता स्वयं  खड़े थे   विवाह करवानें के लिए ......प्रकृति  स्वयं चँदोवा तान कर  उस मण्डप को सजानें में लगी थी ........आकाश से उतरे थे भगवान शंकर ....जो डमरू बजाकर  नाचते हुए आये थे ।

नारद जी के साथ  तुम्बुरु  उनके गायक ..........उन्होंने आकर  उस विवाह के महफ़िल को सजाया था ............सखियाँ  ....अष्ट सखियां  जिनके आगे    लक्ष्मी उमा ब्रह्माणी भी  लजाती थीं   ऐसी सखियाँ थीं  श्रीराधा रानी की .........फिर  श्रीराधा रानी कैसी होंगी  विचार करो ।

आकाश जगमगा गया था .......सितारे उतर आये थे  धरती पर ......

ओह !    उस विवाह के बारे में मैं सोचता हूँ  तो मैं  आज भी  आनन्द सिन्धु में डूब जाता हूँ  वज्रनाभ  !     ओह !  क्या विवाह था वो ।

पर  ये विवाह भी  कृष्ण की इच्छा से ही हुआ था ..........श्रीराधा की ऐसी कोई इच्छा नही थी ............पर जब कृष्ण की इच्छा देखी .....तो कृष्ण के कपोल में हाथ रखते हुए  श्रीराधा नें कहा ........तुम्हारी इच्छा है प्यारे ?    तो  ठीक है ........मेरी इच्छा  तुमसे अलग रही कहाँ हैं  !

हे गुरुदेव !   मुझे उस दिव्य विवाह का वर्णन करके सुनाइये ..........हे गुरुदेव !   मुझे  उस आस्तित्व के द्वारा रची गयी .........श्रीराधा कृष्ण के विवाह को  सुनना है .......मैं  अधिकारी तो नही हूँ ...उस दिव्य विवाह  को देखनें का .........सुननें का ......पर  आप जैसे प्रेमी महात्मा चाहें .........तो मुझ जैसे अनधिकारी को भी अधिकारी बना सकते हैं  ।

वज्रनाभ नें प्रार्थना की ...........तब  महर्षि शाण्डिल्य .......श्रीराधा माधव के चरणों का ध्यान करनें लगे .....................

*******************************************************

मेरे पास में आये थे  नन्दनन्दन  श्रीकृष्ण चन्द्र जू !

क्यों की  ये सौभाग्य  मुझे ही प्राप्त था कि  - मैं उनका पुरोहित हूँ  ।

हे  महर्षि ! 

   मेरे पास आकर उन्होंने  प्रणाम किया ........सायंकाल की वेला थी ........मैं ध्यानस्थ था ............वो बैठे रहे  तब तक   जब तक मैं ध्यान में  रहा ........पर जब मैने अपनी आँखें खोलीं .......तब  श्याम सुन्दर, ..नीलमणी के समान जिनकी अंग कांति थी ........मोर मुकुटी ...बंशीधर ..........पीताम्बरी धारण किये हुए ........मेरे सामनें बैठे थे ।

मुझे   रोमांच हुआ ......उनके दर्शन करते ही .............मैं मर्यादा ही भूल गया था ............मैं  सब कुछ भूल गया .......मैं  उनके वंश का पुरोहित हूँ  ये भी भूल गया ............मैनें प्रणाम करना चाहा ......पर  स्वयं कृष्ण  चन्द्र नें ही मुझे  प्रणाम करके   मुझे सम्भाला ।

हे महर्षि !  

हाथ जोड़कर  मेरे सामनें बोलनें जा रहे थे कृष्ण ........

"मेरी प्राण बल्लभा .......मेरी सर्वस्व ......जिसके बिना ये कृष्ण अधूरा है ......उन  श्रीराधा रानी के साथ विवाह करना चाहता है  ये कृष्ण "

ये शब्द नन्दनन्दन के मुख से मैने सुना !..........मेरे आनंद का कोई  ठिकाना नही रहा..........वो बोले जा रहे थे  ।

कृष्ण में कहाँ प्रेम है ...........जो भी प्रेम दिखाई देता है ......वो सब मेरी आल्हादिनी श्रीराधा रानी के द्वारा ही प्रदत्त है ......हे महर्षि !  

वो प्रेम स्वरूपा श्रीराधा... कृपा करती हैं .........तब वही कृपा मुझ में प्रतिफलित होता है ..............मैं क्या हूँ  ?   

वे वरदायिनी , विनोदिनी  मुझे उदारता  से अपनाती हैं .......तभी तो वे चारु चरण  मुझे मिल पाते हैं ..........नही तो  मैं कठोर  हृदय का ....और वे कहाँ   कोमल हृदय,  अत्यन्त कोमल हृदय की स्वामिनी ........

मैं कहाँ  पाप पुण्य के हिसाब द्वारा स्वर्ग नरक में जीवों को भेजनें वाला ......पर  वे  तो   सहज कृपा करके ....पापियों को भी  अपनी गोद में स्थान देंनें वाली ............क्यों की समस्त  जीवों के ऊपर उनकी ममता बरसती ही रहती हैं ...........मैं तो कठोर हृदय का हूँ ........

पर  मुझ जैसे को भी  अपनें हृदय से   लगाकर  मेरी कठोरता मिटा दी है उन्होंने ............मुझे प्रेम करना सिखाया उन्होंने ............कृष्ण तो कंगाल था महर्षि !       पर  आज  ये जो  भी है  वो सब  श्रीराधा रानी के कारण ही है ..........नेत्र बरस रहे थे उस समय कृष्ण के  ।

मुझे तनिक भी अवसर नही दिया था बोलनें का ........और मुझे कुछ बोलना भी नही था ..........मेरे कानों में अमृत जा रहा था ...........उस अमृत में भी   प्रेमामृत ........मै तो धन्यातिधन्य हो रहा था   ।

कुछ देर रुके  कृष्ण ...........अपनें  नेत्रों को पीताम्बरी से पोंछा .....फिर  बोले ........महर्षि  !  आपकी कुटिया में आनें का कारण है .......

और कारण ये है कि .........मेरी प्राण बल्लभा  तो नही चाहतीं  कि विवाह जैसी कोई व्यवहारिक  बात हमारे प्रेम में हो ।

" तुम निभा न पाओगे प्यारे " 
  
बस,   जब जब मैं उनको कहता हूँ .......तब बड़े प्रेम से   श्रीराधा मेरे कपोलों को छूते हुए यही कहतीं हैं ...........

मैं फिर भी नही मानता ......तो कहती हैं ........विवाह के लिये  दो चाहिये .....पर यहाँ दूसरा कहाँ हैं  ?    वो फिर इधर उधर देखनें लग जाती हैं ......हम दोनों का विवाह राधे !   मैं  जब फिर कहता हूँ ......तब कहती हैं ........हम 'दो" नही है......हम "एक" हैं .......ये तुम भी जानते हो...।

पर हे महर्षि !   मैने जब आज  जिद्द की ........तब मुझे अपनें हृदय से लगाते हुये उन्होंने कहा ........तुम्हारी इच्छा है  तो मेरी भी इच्छा है ....ये राधा  कभी अपनें प्राणधन के   इच्छा के  विपरीत जा सकती है क्या ?   

मैं तुम्हारे लिये ही हूँ .........तुम जिसमें प्रसन्न हो .......वही करो .........मुझे उसी में अच्छा लगेगा  ।

अब मैं जो कह रहा हूँ ...उसे सुनिये  महर्षि !   ........

मैने  देखा  श्याम सुन्दर के मुख कमल में  ।

"हमारा विवाह आप करवाइये "

...क्यों की आप ही हैं हमारे कुल पुरोहित  ।

मेरे नेत्र सजल हो गए थे वज्रनाभ !..........मुझे रोमांच होनें लगा था  ....पर मैने अपनें आपको सम्भाला ................

"हे श्याम सुन्दर !  ऐसा सौभाग्य  मेरे  ललाट में नही लिखा  विधाता नें "

क्या मतलब ?  कृष्ण नें मेरी ओर देखा  ।

हाँ .....ये सौभाग्य  मुझ से छीन  लिया है.....

भाग्य लिखनें वाले ब्रह्मा जी नें ।

मैने कहा था उनसे ......हे विधाता !.....इन दोनों  सनातन प्रेमी युगलों का विवाह  मैं कराऊंगा ............पर  वो मानें नही ........बोले .....इस  सौभाग्य को मैं कैसे छोड़ सकता हूँ  महर्षि !

इसलिये  आप दोनों का विवाह तो विधाता  ब्रह्मा के द्वारा ही सम्पन्न होगा ।

मुस्कुराये  ऊपर देखकर श्याम सुन्दर...........

तभी आकाश में प्रकट होगये थे ब्रह्मा जी......उन्होंने  प्रणाम किया ......और वेदमन्त्रों  द्वारा  श्याम सुन्दर की स्तुति भी की ........

मुझे प्रणाम करके ......श्याम सुन्दर अब जानें लगे  थे .........

तब मैने भी  वज्रनाभ !   उनके चरणों में एक निवेदन किया .......

"हे श्याम सुन्दर !  इस विवाह का दर्शन मुझे भी कराना"

उन्होंने  मुस्कुरा कर .....हाँ .....कहा ......और  चले गए  ।

इतना ही बोल पाये  महर्षि शाण्डिल्य..........फिर  विवाह के  उस  दृश्य में .....जो उनके हृदय पटल पर  अंकित थे    उस में खो गए  ......।

आहा !  

"दुल्हन प्यारी राधिका दूल्हा श्याम सुजान"

शेष चरित्र कल .......

Post a Comment

0 Comments