9 आज के विचार
( नामकरण संस्कार )
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 9 !!
ब्रह्म की जो आराधना करे वो "राधा" ........नही नही ...."ब्रह्म जिसकी आराधना करे वो राधा"......श्रीराधा प्रेम है......प्रेम का मूर्तिमंत स्वरूप है श्रीराधा ........प्रेम का सच्चा अधिकारी कौन ? प्रेम का अधिकारी तो वही है .....जो अपनें आपको प्रियतम में मिटा देनें की हिम्मत रखता हो .......अपना आस्तित्व ही जो मिटा सके उसे ही कहते हैं "प्रेम" ।
मात्र रह जाए ......."प्रियतम" ...........मैं मिट जाऊँ .........मैं न रहूँ .....बस तू रहे ।
हे वज्रनाभ ! इस प्रेम के रहस्य को समझना सरल नही है .......निःस्वार्थ की साधना किये बगैर ये "प्रेम साधना" अत्यन्त कठिन है .........जो मात्र "इससे क्या लाभ उससे क्या फायदा" इसी सोच से चलते हैं ..........वो इस प्रेम के अधिकारी कहाँ ?
हे यादवों में श्रेष्ठ वज्रनाभ ! "श्रीराधा" उस भावोन्माद का नाम है ......जो अपनें प्रेमास्पद के सिवा और कुछ चाहता नही ..........
इतना कहकर फिर थोड़ी देर रुक गए महर्षि शाण्डिल्य .......नही नही .........प्रेमास्पद के सुख के लिये ही जो जीवन धारण किये हैं ......वही है श्रीराधा भाव ............प्रेम का उच्च शिखर है श्रीराधा भाव ।
स्वसुख की किंचित् भी कामना न रह जाए .............रह जाए "बस तुम खुश रहो"..............तुम प्रसन्न रहो .......तुम आनन्दित हो तो मुझे परमानन्द की प्राप्ति हो गयी ........मिल गयी मुझे मुक्ति .....मोक्ष या निर्वाण ................हे वज्रनाभ ! श्रीराधा भाव ऐसा उच्च भाव है ........तो विचार करो .......साक्षात् श्रीराधा क्या हैं ? श्रीराधा कहाँ स्थित होंगीं !
मैने कह दिया ना पहले ही ........."श्री राधा" यानि जिसकी आराधना स्वयं ब्रह्म करे........हे वज्रनाभ ! श्रीराधा का नामकरण करते हुये आचार्य गर्ग नें इसका अर्थ किया था ।
श्रीराधा ! श्रीराधा ! श्रीराधा !
महर्षि शाण्डिल्य भाव में डूब गए ।
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वसुदेव नें मथुरा से अपनें पुरोहित को भेजा ......आचार्य गर्ग को ।
गोकुल में जब आये तब मेरी ही कुटिया में आये थे........मैने उनका अर्घ्य पाद्यादि से स्वागत किया.....तब बृजपति नन्द भी वहीँ आगये ।
"मैं नामकरण करनें आया हूँ...........मुझे वसुदेव नें भेजा है ........"रोहिणी नन्दन" का नामकरण करनें .........आचार्य नें बड़े संकोचपूर्वक कहा था .........मैने उनका संकोच दूर करते हुए कहा ......नही आपको "नन्दनन्दन" का भी नाम करण करना होगा ।
पर पुरोहित तो आप हैं बृजपति के.......आचार्य नें मेरी ओर देखा ।
पर आपको पता है....और मेरे यजमान को भी पता है .......मैं कर्मकाण्डी नही हूँ ........मुझे ज्यादा रूचि भी नही है कर्मकाण्ड में ......ज्योतिष विद्या तो मुझे बहुत नीरस लगती है .............
मैने हाथ पकड़ा बृजपति का .........और कहा ............हम दोनों में कोई स्पर्धा नही है ........इसलिये आप आनन्द से आचार्य गर्ग के द्वारा अपनें पुत्र का भी नामकरण करवा लें ........ये मेरी आज्ञा है ।
पर .........अभी भी संकोच हो रहा था आचार्य को ...........कि कैसे मैं दूसरे के यजमान को अपना बना लूँ !
मैने आचार्य को सहज बनाते हुये......एक हास्य कर दिया .......
आचार्य ! पूछो बृजपति से .......अन्नप्रास संस्कार के दिन ........क्या हुआ था ............प्रारम्भ में ही नवग्रह का पूजन होना था ......पर मैं तो उन ग्रहों के नाम ही भूल गया ............फिर इन्होनें ही मुझे नाम बताये तब पूजन होता रहा ..........मैं तो ऐसा हूँ ।
बृजपति चरणों में गिर गए थे मेरे, और बोले .....भगवन् ! आप जैसा महर्षि ....आप जैसा देहातीत विरक्त महात्मा और कौन होगा .......ऐसा महात्मा जो नवग्रहों में भी नारायण का दर्शन करके आनन्दित हो उठता है .........बृजपति मेरे प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं ।
पर मेरे आग्रह के कारण नामकरण संस्कार कराना आचार्य नें भी स्वीकार किया .....और बृजपति नें मेरी आज्ञा मानीं ।
"कृष्ण" नाम रखा था नन्दनन्दन का और रोहिणी नन्दन का नाम "राम".......नामकरण करके मेरी ही कुटिया में आये थे आचार्य ।
नारायण हैं कृष्ण ..........हे महर्षि ! मैने उनके चरणों में वो चिन्ह देखे ........जो चिन्ह नारायण के चरणों में हैं ............गदगद् भाव से बोल रहे थे आचार्य गर्ग ।
क्या इनकी आल्हादिनी के दर्शन नही करोगे ?
मैने मुस्कुराते हुये पूछा ।
क्या उनका भी प्राकट्य हुआ है ?
ये नारायण के अवतार नही हैं ..........ये स्वयं अवतारी हैं ...........स्वयं श्री श्याम सुन्दर निकुञ्ज से अवतरित हुए हैं .............तो वो अकेले कैसे आसकते हैं ?
आचार्य मेरे सामनें हाथ जोडनें लगे ............कृपा आपही कर सकते हैं ......वो कहाँ प्रकटी हैं ?
प्रेम की सुगन्ध को छुपाया नही जा सकता.......आप जाइए .......आपको जिस ओर से वो प्रेम की सुवास आती मिले .......बस चलते जाइए .........मैने मुस्कुराते हुए कहा .......आचार्य को शीघ्रता थी .......आल्हादिनी के दर्शन करनें की.......उस ब्रह्म के साकार प्रेम को देखनें की .......वो मेरी कुटिया से बाहर निकले ......और चल पड़े जिधर से आल्हादिनी खींच रही थीं उन्हें ।
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हे वज्रनाभ ! जब बरसानें पहुँचे आचार्य गर्ग .........तब उन्हें मार्ग में ही बृषभान जी मिल गए ..............उन्होंने आचार्य के चरणों में प्रणाम किया .........कहाँ से पधारे आप आचार्य ? आज आपके चरणों को पाकर ये बरसाना धन्य हो गया है ।
मैं तो बृजपति नन्द के पुत्र का नामकरण करवा के आरहा हूँ ।
ओह! तो फिर आपको मेरे महल में चलना ही पड़ेगा...और मेरा आतिथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा ........विशेष आग्रह करनें लगे थे बृषभान जी ।
आचार्य की इच्छा पूरी हो रही थी ......वो इसीलिए तो आये थे बरसानें में ताकि एक झलक दर्शन के मिल जाएँ "श्रीकिशोरी" के ।
वो गए महल में ........कीर्तिरानी नें प्रणाम किया ........फिर बृषभान जी नें उन्हें एक उच्च आसन में बैठाकर उनका अर्घ्य पाद्यादि से पूजन किया ...................
पर आपकी पुत्री कहाँ हैं ?
आचार्य अपनें को पूजवानें तो आये नही थे .....उन्हें तो दर्शन करनें थे ।
हे आचार्य ! मेरी और मेरी अर्धांगिनी की इच्छा है कि अगर तिथि मुहूर्त आज का ठीक हो .......तो आज ही नामकरण संस्कार आप कर दें ।
हाथ जोड़कर बृषभान जी नें कहा ।
ठीक है .......इतना कहकर मुहूर्त का विचार करनें लगे आचार्य गर्ग ।
पर कुछ ही देर में उनका मुखमण्डल प्रसन्नता से चमक उठा .......आज के जैसा मुहूर्त तो वर्षों बाद भी नही आएगा ..............
कीर्तिरानी अपनें महल में गयीं ........बृषभान जी आनन्दित हो यमुना स्नान करनें चले गए ......इधर पूजन की तैयारियाँ आचार्य नें शुरू की........सामग्रियाँ सब ला लाकर ग्वाले देने लगे जो जो माँगते गए आचार्य ।
पर नामकरण संस्कार की तैयारियों में तो बिलम्ब हो जाएगा ......क्यों की मेरे साथ यहाँ कोई विप्र भी नही है .......महर्षि शाण्डिल्य नें मुझे गोकुल में सात विप्र दिए थे .............हे वज्रनाभ ! इतना सोच ही रहे थे आचार्य की तभी आकाश मार्ग से नवयोगेश्वर उतरनें लगे बरसानें में .......उनके साथ साथ ऋषि दुर्वासा भी आगये ।
आप ? चौंक कर उठ खड़े हुये आचार्य गर्ग ............
हाँ , आल्हादिनी के दर्शन का लोभ हम भी छोड़ नही पाये ........इसलिये हम भी आगये ..........ऋषि दुर्वासा नें हँसते हुए कहा ......इनके दर्शन का लोभ स्वयं ब्रह्म नही त्याग पाते तो हम क्या हैं ।
हम को सेवा बताइये ........हम आपकी सहायता करगें आल्हादिनी के नामकरण संस्कार में ......कृपा करें ......नवयोगेश्वरों नें हाथ जोड़े ।
अच्छा ठीक है .......आप लोग अपना परिचय छुपाइयेगा ........बरसाने में किसी को पता न चले .........क्यों की प्रेम जितना गुप्त रहता है .......वो उतना ही खिला और प्रसन्न रहता है ।
बड़ी प्रसन्नता से आचार्य गर्ग की बात सबनें मानीं ........और तैयारियों में जुट गए ।
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"हो गयीं सारी तैयारीयाँ.......महाराज और रानी को बालिका के साथ बुलाया जाए" .......आचार्य नें महल के सेवकों से कहा ।
तभी सबनें देखा..........रेशमी पीले वस्त्र पहनें ........सूर्य के समान दिव्य तेज़ वाले बृषभान जी सुन्दर सी पगड़ी बाँधे ......आये ।
उनके साथ उनकी अर्धांगिनी "कीर्तिरानी" वो तो ऐसी लग रही थीं जैसे स्वर्ग की अप्सरा भी लज्जित हो जाए ।
पर सबकी दृष्टि थी कीर्तिरानी की गोद में ...............
दाहिनें भाग में कीर्तिरानी बैठीं .............कीर्तिरानी के बाएं भाग में बृषभान जी बिराजे हैं ।
पर ये क्या ? आचार्य गर्ग स्तब्ध हो गए ......मानों मूर्तिवत.......आचार्य ही क्यों महर्षि दुर्वासा और नवयोगेश्वर भी ।
वो दिव्य तेज़ ..........प्रकाश का पुञ्ज कीर्तिरानी की गोद में हिल रहा था ............चरण जब थोड़े हिलाये आल्हादिनी नें ............ओह ! समाधि सी ही लग गयी थी आचार्य गर्ग की तो ।
चक्र शंख गदा पदम् सारे चिन्ह हैं जो जो चिन्ह श्रीकृष्ण के चरणों में हैं वही चिन्ह आल्हादिनी के भी चरण में हैं ।
समाधि लग गयी .....चरण के नख से प्रकाश प्रकट हो रहा है ..........वो प्रकाश ही समस्त विश्व् को प्रकाशित कर रहा है ..........
आचार्य ! आचार्य ! आचार्य !
निकट जाकर बृषभान जी को झकझोरना पड़ा ......आचार्य गर्ग को ।
तब जाकर वो उस दशा से बाहर आये ।
नाम करण संस्कार शुरू की जाए ? हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।
हाँ ...हाँ .........सब कुछ विचार किया आचार्य नें............
मेरी गोद में एक बार लाली को ? पता नही क्यों आचार्य होनें के बाद भी कीर्तिरानी से प्रार्थना की मुद्रा में ही हर बात कह रहे थे गर्ग ।
आप आज्ञा करें आचार्य ! आप हाथ न जोड़ें .........बृषभान जी नें मुस्कुराते हुए कहा .......और कीर्तिरानी को इशारा किया ......।
कीर्तिरानी नें आचार्य गर्ग की गोद में दे दिया लाली को ।
आहा ! दर्शन करते ही .....और अपनी गोद में पाते ही देह सुध पूरी तरह से भूल गए आचार्य ।
"राधा .......राधा ....राधा"..........यही नाम होगा इन बालिका का ।
आचार्य गर्ग के मुख से ये नाम सुनकर बृषभान जी नें दोहराया .........कीर्तिरानी भी आनन्दित हो उठीं बहुत सुन्दर नाम है ......
राधा ......राधा ....राधा ................
पर इसका अर्थ क्या होता है ? कीर्तिरानी नें पूछा ।
आँखें चढ़ी हुयी हैं आचार्य की .........उनको देखकर ऐसा लगता है ....जैसे वो इस लोक में हैं ही नहीं ।
"स्वयं आस्तित्व जिसकी आराधना करे ......वो राधा" ............स्वयं "ब्रह्म जिनकी आराधना करे वो राधा"............आहा ! राधा ।
ऋषि दुर्वासा आनन्दित हो उठे .........राधा राधा राधा ....कहते हुये वो भी मग्न हो गए ......नव योगेश्वरों की भी यही स्थिति है ।
इस कन्या शील कैसा होगा ?
आर्यमाता हैं कीर्तिरानी ......उनको तो ये चिन्ता पहले रहेगी .......
अत्यधिक सुन्दरी है मेरी कन्या आचार्य ! कहीं ये शील संकोच को गुमाकर ....................
हँसे आचार्य .........श्रीराधा को कीर्तिरानी की गोद में देते हुए बोले ......विश्व् की जितनी सती हैं ...........महासती हैं ........वो सब आपकी श्रीराधा के पद रेनू की कामना करती रहेंगीं ।
और विवाह ?
पिता बृषभान की चिन्ता एक समस्त जगत के पुत्रियों के पिता से अलग नही है ।
राधा और नन्दसुत ये दोनों अभिन्न दम्पति हैं....ये दोनों अनादि हैं ।
आचार्य की बातें सुनकर बृषभान जी नें कहा ........"तो समय आनें पर आपके द्वारा ही ये विवाह सम्पन्न हो"......हाथ जोड़े ..... ये कहते हुए बृषभान जी नें ।
नही नही ....आपको हाथ जोड़नें की जरूरत नही है ............पर इस सौभाग्य से स्वयं विधाता ब्रह्मा नें ही मुझे वंचित कर दिया है ।
क्या मतलब ? बृषभान जी नें पूछा ।
इस सौभाग्य को विधाता ब्रह्मा स्वयं लेना चाहते हैं .........इसलिये वही इन दोनों का विवाह करायेंगें !
इतना कहकर आचार्य मौन हो गए.......पर ये बात भोले भाले बृषभान जी की समझ में नही आयी...........
पर इतना समझ लिया कि मैने जो वचन दिया है बृजपति नन्द को .......कि नन्दनन्दन और राधा इन दोनों का परिणय होगा ही ।
हे वज्रनाभ ! ये "राधा नाम" है.....इस नामका जो नित्य जाप करता है .....उसे पराभक्ति प्राप्त होती ही है ......वो सहज धीरे धीरे प्रेम स्वरूप बनता जाता है.....उसके हृदय में आल्हाद नित्य ही वास करनें लगता है ।
इतना कहकर महर्षि शाण्डिल्य आल्हाद और आल्हादिनी के विलास का रस लेनें लगे थे....क्यों की सर्वत्र उन्हीं का तो विलास चल रहा है ।
!! पराभक्ति प्रदायिनी करि कृपा करुणा निधि प्रिये !!
शेष चरित्र कल ....
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