10 आज के विचार
( देवर्षि नारद नें जब श्रीराधा के दर्शन किये...)
!! "श्रीराधाचरितामृतम्" - भाग 10 !!
जानें दो ना "वेद" के मार्ग को ........क्यों बेकार में उस कण्टक पथ पर चलना चाहते हो .......कर्मकाण्ड के नीरस नियम विधि के बन्धन में बंधना चाहते हो .........छोडो ना ! इस "वेणु" के मार्ग का आश्रय क्यों नही लेते ......राजपथ है ........तुम्हे कुछ करना भी नही है .......बस इस मार्ग पर आना है ..........और चलना है ..........बाकी अगर तुम रास्ते भूल भी जाओ तो भी सम्भालनें वाला तुम्हे हर पल हर पग में सम्भालता रहेगा .......वेद का मार्ग है "ज्ञान" का मार्ग और वेणु का मार्ग है "प्रेम" का मार्ग .......तो चलो ।
महर्षि शाण्डिल्य भाव से सिक्त है ......पूरे भींगें हुए हैं .........और उसी रस में अपनें श्रोता वज्रनाभ को भी भिगो दिया है ..............
ऐसी दिव्य , ऐसी मधुर कथा आज तक मैने नही सुनी ........
सच है महर्षि ! इस प्रेम को वही पा सकता है ...जिसके ऊपर आप जैसे प्रेमी महात्माओं कि कृपा हो ।
महर्षि शाण्डिल्य नें जब अपनें श्रोता वज्रनाभ का पिघला हुआ हृदय देखा ..........तो बड़े आनन्दित हुए ।
इस प्रेम की ऊँचाई में जब कोई पहुँचता है तब धर्म भी बाधक है .......और धर्म को भी त्यागना पड़ता है .........क्यों की परम धर्म है ये प्रेम ........जब परम् धर्म की प्राप्ति हो गयी तो फिर क्यों इन संसार के धर्मों में उलझना .......सब कुछ छूट जाता है इस प्रेम में ।
अरे ! वज्रनाभ ! तुम स्वयं विचार करो .....संसार के प्रेम में भी बिना त्याग के साधारण प्रेमी नही मिलता ......ये तो दिव्य प्रेम की बात हो रही है ............उस प्रेम की चर्चा हो रही है ............जिसे पानें के लिये शिव सनकादि नारद ब्रह्मा सब ललचा रहे हैं ।
महर्षि शाण्डिल्य नें कहा .......एक दिन गोकुल में श्री बाल कृष्ण के दर्शन करनें आये थे देवर्षि नारद जी....भक्ति के आचार्य नारद जी ।
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देवर्षि नारद !
मैं प्रसन्नता से दौड़ पड़ा था उनके स्वागत के लिए ।
महर्षि शाण्डिल्य !
मुझे बड़े प्रेम से उन्होंने अपनें हृदय से लगाया था ।
मेरी कुटिया में आगये थे उस दिन देवर्षि .............
फल फूल और गौ दुग्ध मैने देवर्षि के सामनें रख दिए ।
अब कौन तुम्हारे ये फल फूल खायेगा महर्षि ! जो छक कर आया है माखन खाकर ........वो भी नीलमणी नन्दनन्दन के हाथों ।
मुझे अपनें पास बिठाया देवर्षि नें ......सुनो ! इन सब व्यवहार की आवश्यकता नही है.........मैं कुछ कहनें आया हूँ .......उसे आप सुनिये ........और आप मेरे मित्र हैं....इसलिये मेरा मार्गदर्शन भी कीजियेगा ।
अब आप ये क्या कह रहे हैं.......मैं भला आपका क्या मार्गदर्शन करूँगा.....आप की गति तो सर्वत्र है ...आपसे भला कुछ छुपा है क्या ?
पर मेरी इन बातों पर देवर्षि नें कुछ ध्यान नही दिया......वो शान्त रहे फिर गम्भीर होकर बोले ......एक बात पूछ रहा हूँ ...............मुझे आप ही बता सकते हो ..........देवर्षि नें मेरी ओर देखा ।
हाँ ...हाँ ...पूछिये ..............मैने उनसे कहा ।
मुझे यही कहना है कि .........जब "श्यामघन" प्रकट हो गए हैं .........तो "दामिनी" कहाँ हैं ? क्यों की हे महर्षि शाण्डिल्य ! घन को शोभा दामिनी की चमक से ही है ना ?
मैं मुस्कुराया ......आपका अनुमान बिलकुल सत्य है देवर्षि !........जब ब्रह्म प्रकट हुआ है तो उसकी आल्हादिनी शक्ति भी प्रकटी होंगीं ।
तो उनका प्राकट्य कहाँ हुआ है ? महर्षि शाण्डिल्य ! मैं बहुत बेचैन हूँ .....मैने बाल कृष्ण के तो दर्शन कर लिए ......पर उनकी आल्हादिनी शक्ति के दर्शन बिना .....श्रीकृष्ण दर्शन का कोई विशेष महत्व नही है ।
हे वज्रनाभ !
मेरे मित्र देवर्षि नारद नें कृपा कर मुझे एक रहस्य की बात बताई ।
हे महर्षियों में श्रेष्ठ शाण्डिल्य ! मुझे भगवान शंकर नें एक बार ये रहस्य बताया था ........उन्होंने मुझे कहा था .........ब्रह्म तभी कुछ कर सकता है जब उसके साथ शक्ति होती है .......बिना शक्ति के शक्तिमान कैसा ? इसलिये मात्र श्रीकृष्ण की आराधना तुम्हे कुछ नही देगी ......कृष्ण के साथ उनकी आल्हादिनी राधा का होना आवश्यक है ।
हे वज्रनाभ ! मुझे उस समय भगवान शंकर से ही ये युगल मन्त्र प्राप्त हुआ था .........उस समय माँ पार्वती भी वहीँ थीं .......तो उन्होंनें भी इस मन्त्र को ग्रहण किया ...................
!! राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
सोलह अक्षरों वाला ये युगल मन्त्र बड़ा ही गुप्त है ......और प्रेमाभक्ति को पानें वालों के लिये यही एक मार्ग है ..........जो इस मन्त्र का नित्य चलते फिरते सोते ........जाप करता है वह निकुञ्ज का अधिकारी बनता ही है ..........निकुञ्ज में उसका सहज प्रवेश हो जाता है ।
हे वज्रनाभ ! देवर्षि नें वह युगल मन्त्र मुझे भी प्रदान किया था ।
मैने प्रणाम करते हुये देवर्षि को कहा .............बरसानें में उनका प्राकट्य हुआ है ........पास में ही है ............बाकी , आप जाएँ और दर्शन करें ........क्यों की हे देवर्षि ! मैने सुना है अब .....कि उनके साथ साथ उनकी जो निज सहचरी थीं .....उनका भी प्राकट्य हो रहा है ।
देवर्षि आनन्दित होते हुये .........मुझे बारम्बार अपनें हृदय से लगाते हुये ....गोकुल से बरसानें की ओर चल पड़े थे ।
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दिव्य महल है बरसानें में ................बधाई चल रही हैं .......ग्वाल बाल नाच रहे हैं गा रहे हैं .....धूम मची है चारों ओर ।
देवर्षि भाव में मग्न चल दिय उसी महल की ओर .......यही महल होगा .....अवश्य इसी महल में प्रकटी होंगी ..........पर जैसे ही गए देवर्षि ।
गौर वर्णी एक बालिका का आज ही नाम करण संस्कार हुआ है .......
"ललिता" नाम है इनका ...............
देवर्षि नें हाथ जोड़कर नवजात "ललिता सखी" को नमन किया .....ये अष्ट सखियों में प्रमुख सखी हैं श्रीराधा जी की ...............
जैसे महादेव की कृपा , बिना नन्दी को प्रणाम किये नही पाई जा सकती ...........जैसे भगवान श्रीराम की कृपा बिना हनुमान के नही पाई जा सकती ......ऐसे ही श्रीराधा रानी की कृपा भी इन सखियों की कृपा बिना नही पाइ जा सकती ........और समस्त सखियों में ये ललिता सखी बड़ी हैं ........देवर्षि नें हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया ।
पर श्रीराधा के दर्शन कब होंगें ? और वो कहाँ हैं ?
बरसानें के हर भवन में देवर्षि देखते जा रहे हैं ..........हे वज्रनाभ ! जब से श्रीराधा रानी का प्राकट्य हुआ है इस बरसानें में ...........सब के भवन महल सदृश ही लगते हैं ...........
और बरसानें के अधिपति बृषभान जी नें .........सबके भवनों में हीरे और पन्नें जड़वा दिए हैं ........हँसे महर्षि शाण्डिल्य .....वज्रनाभ ! पर उनकी लाली श्रीराधा को ये हीरे और मणियाँ प्रिय नही हैं .....उन्हें तो मोर , तोता, हिरण ......घनें वृक्ष .......पुष्प ........हरियाली ये सब प्रिय है .....इसलिये स्वयं के महल में ........प्राकृतिक वस्तुओं का ही संग्रह किया था बृषभान जी नें ।
ये महल है बृषभान जी का .....जो इस बरसानें के अधिपति हैं ........एक सखी नें देवर्षि नारद जी को चलते हुए बता दिया था ।
देवर्षि नारद उस महल में गए ............सामनें से आरहे थे बृषभान जी ......देवर्षि को देखा तो तुरन्त दौड़ पड़े ...........देवर्षि के चरणों में गिर गए ..........और बड़े आग्रह से भीतर ले गए ।
ये है मेरा पुत्र "श्रीदामा"..............एक सुन्दर बालक नें देवर्षि को प्रणाम किया ............देवर्षि नें देखा......और बोले - ये तो कृष्ण सखा है ......कृष्ण का अभिन्न सखा .........इतना कहकर उठ गए ।
क्यों की देवर्षि को लगा .......इनके पुत्र मात्र हैं......जो इन्होनें मुझे बता दिया है .....पर जिनका मैं दर्शन करनें आया हूँ .........वो यहाँ भी नही हैं ।
देवर्षि वहाँ से जैसे ही चलनें लगे ..................
देवर्षि ! एक कृपा और करें .....बृषभान नें चरण पकड़े ।
क्या ? क्या चाहते हो आप बृषभान ?
मेरी एक पुत्री है .........अगर आप उसे भी आशीर्वाद दें तो ?
देवर्षि आनन्दित हो उठे ...........उस पुत्री का नाम ?
"श्रीराधा" .........बृषभान नें कहा ।
पर अपनी प्रसन्नता छुपाई देवर्षि नें .........कहाँ हैं वो कन्या ?
"मेरे अन्तःपुर में चलिये आप"........बृषभान जी आगे आगे चले और पीछे उनके देवर्षि नारद जी ।
पालनें में एक दिव्य कन्या लेटी हुयी हैं......तपते सुवर्ण के समान उनका रँग है .........केश काले काले बड़े सुन्दर हैं .......पर आश्चर्य ! माँग निकली हुयी है ........और तो और .....मस्तक में श्याम बिन्दु लगी ही हुयी है ......ये जन्मजात है देवर्षि नारद जी ! ........बृषभान जी नें कहा ।
मेरी एक प्रार्थना है ........अगर आप मानें तो ?
देवर्षि नें बृषभान जी से कहा ।
आप आज्ञा करें !
बस कुछ घड़ी के लिये मुझे एकान्त चाहिये......आप अगर ........
देवर्षि नें ये बात प्रार्थना की मुद्रा में कही थी ।
हाँ हाँ ......मैं बाहर खड़ा हो जाता हूँ.....पर मुझे बताइयेगा कि मेरी पुत्री का भविष्य कैसा होगा ! ये कहते हुये बाहर चले गए बृषभान जी ।
श्रीराधा रानी के पास आये नारद जी ...........हाथ जोड़कर जैसे ही वन्दन किया ..........बस देखते ही देखते मुस्कुराईं श्रीराधा ।
उनके मुस्कुराते ही ...............दिव्य निकुञ्ज वहाँ प्रकट हो गया .......एक दिव्य सिंहासन है .........उस सिंहासन में वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा रानी विराजमान हैं .......उनके अंग से प्रकाश निकल रहा है ......उनके पायल की ध्वनि से ओंकार नाद प्रकट हो रहा है .........
देवर्षि नें देखा .................धीरे धीरे लक्ष्मी , सरस्वती, महाकाली इत्यादि अनेकानेक देवियां चँवर लेकर ढुरा रही हैं ..............
फिर मुस्कुराईं श्रीराधा रानी .......इस बार तो श्रीराधा के ही दाहिनें अंग से श्रीश्याम सुन्दर प्रकट हो गए .................
इन दोनों की छबि अद्भुत थी .............प्रेम नें ही मानों ये रूप धारण कर लिया था .....अद्भुत रूप था ..............
हे वज्रनाभ ! देवर्षि नारद जी स्तुति करनें लगे ................
हे राधे ! आपही सृष्टि, पालन, संहार करनें वाली हो ...........पर इतना ही नही ........आप तो अपनें प्रेमास्पद श्रीश्याम सुन्दर को ही आल्हाद प्रदान कर स्वयं आल्हादित होती हो ......आपका अपना कोई संकल्प नही है ...........आप बस अपनें प्रेमास्पद के सुख के लिये ही सब कुछ करती हैं .........हे प्रेममयी देवी आपकी जय हो !
हे कृष्ण प्रिये ! आपकी जय हो !
हे हरिप्रिये ! आपकी सदाहीं जय हो !
हे श्यामा ! आपही इस सृष्टि की मूल हैं ।
हे प्रेमरस वर्धिनी ! आपकी जय हो ।
हे राधिके ! आपकी जय, जय, जय हो ।
मुस्कुराईं श्रीराधा देवर्षि की स्तुति सुनकर ..........पर ये क्या श्रीराधा रानी के मुस्कुराते ही .....सब कुछ बदल गया .............न वहाँ निकुञ्ज था .....न वहाँ श्याम सुन्दर थे .....न वहाँ रमा थीं न वहाँ उमा थीं ......।
एक सुन्दर सा पालना है .............उस पालनें में श्रीराधारानी बाल रूप में खेल रही हैं .......नारद जी नें अपलक नेत्रों से दर्शन किये ..........बारम्बार श्रीराधा रानी के चरणों को अपनें माथे से लगाया .........और बाहर आगये ।
कैसी है मेरी पुत्री ? कैसा उसका भविष्य ? इसका विवाह ?
कितनें प्रश्न थे एक पिता के ........और ये प्रश्न पहली बार नही किया था .....आचार्य गर्ग से भी यही प्रश्न करते रहे थे बृषभान जी ।
"ये तो नन्दनन्दन की आत्मा हैं"..........इतना ही बोल पाये थे और चल पड़े इसी युगल मन्त्र का उच्चारण करते हुए देवर्षि ।
राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
पर हे वज्रनाभ ! देवर्षि नारद कौतुकी हैं ..........कंस के पास चले गए थे सीधे बरसानें से .............।
हँसे वज्रनाभ .........कंस के पास क्यों ?
अब इस बात को तो श्रीश्याम सुन्दर ही जानें ......क्यों की देवर्षि नारद जी उनके "मन" के ही तो अवतार हैं ।
शेष चरित्र कल ........
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