वैदेही की आत्मकथा - भाग 169

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 169 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

चक्रवर्ती सम्राट  श्री राजा राम  का "विजय अश्व" सम्पूर्ण भारत वर्ष में घूम रहा था .............अश्व की सुरक्षा में  कुमार शत्रुघ्न थे .........और मुझे जानकर अतिप्रसन्नता हुयी कि .....भरत भैया के बड़े पुत्र "पुष्कल"  जिनसे कुमार शत्रुघ्न अतिस्नेह करते थे ........उनको भी साथ में ले लिया था .........पवनपुत्र हनुमान तो थे ही .....सुग्रीव की सेना नें भी साथ चलनें का  आग्रह किया  श्रीराजा राम से ..........।

मैं  यहाँ से  अब  उन्हें  "श्रीराजा राम" कहकर ही सम्बोधित करूंगी ।

अब वो  वैदेही के नही हैं .........वो  अपनी प्रजा के हैं .......हाँ  ।

मुझे महर्षि वाल्मीकि   बताया करते थे .......जब जब मैं अपनें पुत्रों को लेकर कभी कभार उनके आश्रम में जाती थी तब  ।

श्रीराजा राम नें  अश्व को विजय के लिये भेजनें से पहले .......कुमार शत्रुघ्न को सावधान किया था ।...........कुमार !   किसी से   स्वयं युद्ध न करना .........जब तक  अति आवश्यक न हो ....तब तक युद्ध को टालना ........कुमार !        अश्व  को कोई पकड़ ले .....तो उसे  पहले समझाना ........हाँ अगर नही मानें  तब युद्ध का विकल्प देखना ।

इतना कहते हुये  श्रीराजा राम नें पान  आगे किया था .........कुमार शत्रुघ्न नें उस पान को लेकर ......अश्व के पीछे चल पड़े थे ।

अश्व  स्वतन्त्र था .......वो कहीं भी जा सकता था ................

वेद मन्त्रोच्चार के साथ अश्व को विदा किया गया  था .......।

चलो  सन्ध्या हो गयी है  अब  आज  शस्त्राभ्यास इतना ही .............कुश लव को  सावधान किया महर्षि नें ..............अब जाओ वत्स ! 

प्रणाम किया   कुश लव नें ................मैने भी महर्षि को प्रणाम किया और अपनी कुटिया में लौट आयी थी  ।

इस तरह  मैं  नित्य जाती थी  महर्षि के आश्रम में  अपनें पुत्रों को लेकर .........मुझे  जानना था कि  श्रीराजाराम का अश्व कहाँ तक पहुँचा  ।

महर्षि   मुझे सब बताते रहते .......कि  आज यहाँ है  अश्व ..........और इस तरह  से यह अश्व  जा रहा है  ।

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आसाम पहुँचा  था  विजयी अश्व ....................

पुत्री !    कुमार शत्रुघ्न नें   भगवती कामाख्या का पूजन अर्चन किया ।

और इतना ही नही .....भगवती ,  कुमार से इतनी प्रसन्न हुयीं कि प्रकट होकर  साक्षात् दर्शन भी दिये ..............।

अश्व को पकड़ने वाला अभी तक कोई नही था .............कई महिनें बीत चुके थे ...........कोई कोई राजा तो   अश्व   राजा राम का है ये सुनते ही  उस अश्व के पैरों में ही गिर जाते ......अश्व की आरती उतारी जाती .....उसका आदर सम्मान होता  ।

पर    आगे   उत्कल प्रान्त के शुरू होते ही  एक घटना घट गयी थी ।

महर्षि नें मुझे बताया ......।

पर क्या घटना घटी महर्षि  ?       मैने जिज्ञासा की   ।

उत्कल प्रान्त के राजा  सुबाहु ..........उनके पुत्र    जो अति वीर थे .......

उन्होंने  अश्व के मस्तक में लिखी  पट्टिका पढ़ी .................

ओह !  ये तो हम क्षत्रियों के लिये चुनौती है  ।

पकड़ लिया अश्व को  ।

साथ में चल रहे  सैनिकों  को मार दिया उस राजकुमार नें   ।

कुमार शत्रुघ्न तक   जब ये बात पहुंची .....कि  अश्व को  यहाँ के राजा सुबाहु के पुत्र नें पकड़ लिया है ....और छोड़नें को वो तैयार नही है......सुनते ही क्रोध से भर गए  थे    ।

पर भरत पुत्र  पुष्कल नें कहा ............काका !  वह राजकुमार है ......छोटा है .....आप उससे युद्ध करनें जाएंगें  ये उचित नही होगा  ।

आप आज्ञा दें   मैं जाना चाहता हूँ .....और उसे मैं पराजित करके ही आऊंगा  ......पुष्कल की ये वीरोचित भाषा सुनकर  कुमार शत्रुघ्न नें उसे भेज  दिया  ।

और पुत्री सीता !       पुष्कल नें उस राजकुमार को मूर्छित भी कर दिया था ........पर  बात जब राजा सुबाहु तक पहुंची ..........तब  राजा सुबाहु नें    अश्व  देनें से मना कर दिया ........और अपनी समस्त सेना को लेकर  आ खड़ा हुआ  था  ।

कुमार शत्रुघ्न  अब तैयार हुए .............पवन पुत्र  हुंकार भरते हुए आगये थे ...........पर पुत्री !    तुंम्हारे भाई  लक्ष्मी निधि   वहाँ थे .......।

भैया लक्ष्मी निधि ?    मैं चौंक गयी   ।

हाँ पुत्री !  वो  किसी कारण वश  उत्कल प्रान्त में  राजा सुबाहु के  पास में ही गए थे ........उन्होंने जब देखा ........तब  राजा सुबाहु को समझानें  वहीं  युद्ध भूमि में ही पहुँच गए थे  ।

पुत्री सीता !       राजा सुबाहु  कोई साधारण राजा नही थे .........वो परम वीर और धर्मपालक  राजा थे ......वो भगवान नारायण के परम भक्त थे .........इसलिये  पुत्री सीता !   तुम्हारे भाई लक्ष्मी निधि का वहाँ आना जाना था ...........।

आज  ऐसी स्थिति जब देखि  तब  "जनकनन्दन लक्ष्मी निधि"  वहाँ गए  और उन्होंने इस युद्ध को  रुकवाया ।

मुझे अच्छा लगा ये सुनकर कि मेरे भैया नें कितना बड़ा कार्य किया है ।

अश्व लाकर  ससम्मान   राजा सुबाहु नें  कुमार शत्रुघ्न को सौप दिया था ......और  राजा राम को प्रणाम निवेदित भी किया .........।

कुमार शत्रुघ्न   अब  अश्व को लेकर  आगे के लिये बढ़  रहे थे  ।

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ये इन बालकों नें   क्या किया  ?  

    एकाएक  महर्षि  उठे थे ........मेरे पुत्रों ने ही कुछ किया था ......मैं काँप गयी थी   कोई अपराध न बन गया हो  मेरे पुत्रों से ।

महर्षि दौड़ पड़े थे ............और चकित थे  ।

इन ताल के वृक्षों को एक साथ किसनें गिराया ..?     

कुश और लव के सामनें खड़े होकर महर्षि नें प्रश्न किया था ।

मैं भी चली गयी थी  वहाँ ................

कुश और लव नीचे मस्तक किये  खड़े थे ।

बताओ !   सात वृक्षों को एक बाण से किसनें  गिराया  ?

कुश भैया नें गिराया है .........वैसे मैं भी गिरा सकता हूँ  ।

लव ज्यादा बोलता है ..........वही आगे बढ़कर बोला था ।

आनन्दित हो उठे थे महर्षि !      ये कार्य  राजा राम के सिवाय कोई नही कर सकता ..........ये कार्य कुश नें किया है ।

महर्षि ! ये क्या बड़ी बात है  ?   मैने सहजता में पूछ लिया था ।

पुत्री !   ये बहुत बड़ी बात है......इस अवस्था में  !   राजा राम के समान  होना.......राजा राम के समान वीरता प्राप्त हो गयी है तुम्हारे पुत्रों को   ।

मैं तो राजा राम से भी ज्यादा शक्तिशाली हूँ.....लव नें आगे बढ़कर कहा ।

मैने उसे चुप कराया ......और  लेकर चल पड़ी  थी   कुटिया की ओर ।

न जानें क्या क्या विचार आरहे थे मन में ....................

माँ !  राजा राम  क्या ज्यादा ही शक्तिशाली हैं  ?     कुश नें पूछा था ।

माँ !   मेरी तो इच्छा है  कि  राजा राम से मैं युद्ध करूँ  ! 

नही .....ऐसा नही बोलते !     ये क्या कह रहा तू  !

मैने  दो तीन चपत उन बालकों के गाल में भी   लगा दिए थे .......।

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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