वैदेही की आत्मकथा - भाग 168

आज के विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 168 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

पुत्री सीता !  मुझे अश्वमेध यज्ञ में  ऋषि अगत्स्य का और गुरु वशिष्ठ का निमन्त्रण आया है ........पुत्री !   मुझे अयोध्या   जाना होगा ।

एक दिन आगये थे महर्षि मेरी कुटिया में ............मैं  अनाज पीस रही थी .........जैसे ही   मैने सुना   महर्षि की वाणी    मैं उठकर खड़ी हो गयी ।

आप जाइए  महर्षि !     मैने  प्रणाम करते हुये  महर्षि से कहा ।

वो कुछ कहना चाहते थे ...........पर   कुछ कहा  नही  ।

कुश लव !.........रामायण का अभ्यास बनाये बनाये रखना ........समय आरहा है  तुम्हारा वत्स !    

कुश लव नें  चरणों में प्रणाम किया.........मेरे पुत्रों को आशीर्वाद देकर  महर्षि चले गए थे  अयोध्या  ।

मैं  सोचती रही........कैसे होंगें मेरे श्रीराम.......क्या मेरी उन्हें तनिक  भी याद नही आती !        मेरे नेत्रों से  अश्रु बह चले थे  ।

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आज  दो दिन बाद अयोध्या से  महर्षि वाल्मीकि  लौटे हैं.........

उस समय मैं  आश्रम में ही थी ...अपनें पुत्रों के साथ ......वो शस्त्राभ्यास कर रहे थे  .....फिर रामायण का गान भी उन्हें करना था  ......मैं इसलिये उनके साथ आज आश्रम आगयी थी  ।

मैने देखा -  रघुकुल का रथ महर्षि को  छोड़नें आया है ......मैने अपनें मुँह को छुपा लिया  ताकि वह अयोध्या वासी मुझे न पहचान ले ।

जब  वह रथ गया वहाँ से .......तब मैं उठी  और  महर्षि को मैने प्रणाम किया  ।

पुत्री सीता !    अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ   हो चुका है........फिर  स्नानादि से शुद्ध होकर सन्ध्या किया .....उसके बाद   उन्होंने मुझे जो बताया  -

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पुत्री !    मैने गुरुवशिष्ठ से चर्चा की ...............

पता नही महर्षि  !   राजा राम   किसी का कोई तर्क सुननें को तैयार नही हैं........उन्हें प्रजा वत्सल के रूप में जाना जाए  .....अब वो यही चाहते हैं ........राजा के आदर्श का पालन करना ही   राम नें अपना  लक्ष बना रखा है ..............गुरु .वशिष्ठ  नें  मुझ से इतना ही कहा ........।

तो फिर   धर्म पत्नी के बिना यज्ञ ?     मैं सब जानता था कि "सुवर्ण सीता" बना ली है  राम नें  ........फिर भी मैं सुनना चाहता था  ।

हाँ  महर्षि !     मुझ से ही पूछा था राजा राम नें ...........कि फिर विकल्प क्या है  यज्ञ में पत्नी का  ?    तब मैने कहा था दूसरा विवाह  ! 

पर  राजा राम ऐसे नही है .......वो सीता के  अलावा किसी को अपनी पत्नी स्वीकार नही करेंगें ...........।

तब मुझे ही कहना पड़ा .......हे राम  !  सुवर्ण की सीता बनाओ  और  अपनें दाहिने भाग में उसे रखो ...........।

ये विकल्प  राजा राम को  प्रिय लगा .....बड़े बड़े  कलाकार बुलाये गए ....सुवर्ण की प्रतिमा बनानें वाले.....पर उनमें से एक को चुना गया ।

मैं सुन रही थी ................महर्षि मुझे बता रहे  थे  ।

पुत्री सीता !  गुरु वशिष्ठ नें मुझे बताया कि   राम  स्वयं  खड़े होकर  कलाकार को बताते रहते थे ....पाँच दिन लगे  तुम्हारी प्रतिमा बनानें में ।

बहुत प्रेम करते हैं  सीता से  राजा राम !   

मेरे शरीर में  एक ऊर्जा का संचार हुआ  ये सुनकर ।

हाँ  पुत्री !    गुरु वशिष्ठ नें मुझे कहा   ।

आप कैसे कह सकते हैं  गुरु वशिष्ठ !   मैने पूछा  था  ।

मैं  यज्ञ की तैयारियों जुटा हुआ था .....मुझे सप्तऋषियों को ........और अन्य   ऋषियों को    इस यज्ञ में बुलाना था .....ये "अश्वमेध"  इतिहास बनानें जा रहा था .......मुझे उत्साह था   .......इसलिये मैं  बिना आज्ञा लिये ही उस कक्ष् में चला गया  ....जहाँ सीता की प्रतिमा बनाई जा रही थी .....और  राजा राम स्वयं कलाकार को निर्देश दे रहे थे ।

"नही .........उनके  कपोल ऐसे नही हैं.......नही"........

राजा राम निर्देश दे रहे थे  कलाकार को ।

वो कोशिश कर रहा था .......पर ...........

नही ......मेरी   वैदेही के कपोल ऐसे नही हैं ............ऐसे हैं ..........।

पर  राजा राम भी शब्दों में  नही बता पा रहे थे  ।

मैने उस समय देखा -
......शून्य में आँखें टिक गयी थीं राजा राम की .....और   सीते ! सीते ! सीते !    यही  उच्चारण करते हुये  धरती पर गिर पड़े थे  ।

मैनें  ही जाकर सम्भाला था  राजा राम को , हे  महर्षि !      गुरु वशिष्ठ नें मुझे बताया .............।

पुत्री सीता !     गुरु वशिष्ठ  व्यस्त थे ......सत्य लोक तक के ऋषि  वहाँ पधारे थे  उन सबका स्वागत ..........उन सबका यथोचित सम्मान ......उन सबको भाग ! ...............मैने इससे ज्यादा समय लेना गुरु वशिष्ठ का उचित नही समझा  ।

महर्षि !   यज्ञ कहाँ हो रहा है  ?       मैने  पूछा ।

सरजू के किनारे  ही   विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया है .........

ऋषि अगस्त्य  यज्ञ के ब्रह्मा बने हैं .....और यज्ञ के  पुरोहित गुरु वशिष्ठ हैं ........कौन नही आया  उस यज्ञ में  पुत्री !   देवर्षि नारद , भृगु , अंगिरा , परशुराम , च्यवन , गौतम,   कपिल, ......ये तो ऋषि हुए ........ब्रह्माण्ड के  अनगिनत लोग आये ।

यज्ञ की वेदी को मणि माणिक्य से  सजाया गया था ...........सुन्दर सुन्दर  चँदोवा   ऊपर  लगाये गए थे ...........हाँ  पुत्री !    राजा राम यज्ञ में विराजे थे यजमान के रूप में .......और उनके दाहिनें भाग में  तुम्हारी सुवर्ण की प्रतिमा थी ..........पर पुत्री !   कहते हैं   विश्वकर्मा के शिष्य नें तुम्हारी प्रतिमा बनाई थी ........पर  नही ...........तुम्हारी तरह नही बना सका था वो कलाकार भी ........वो विश्वकर्मा का शिष्य भी  ।

कुछ देर चुप रहे  महर्षि ........फिर  बोले .........एक सुन्दर  अश्व  .....जिसका रँग सफेद था ....दूध की तरह  सफेद......उसको सजाया गया था ......सुवर्ण से ......हीरे  पन्नों से.......उसके  ऊपर एक छत्र था  छोटा छत्र.....जो  मणि माणिक्य की  पच्चीकारी से जड़ा हुआ था  ।

उस अश्व के दोनों ओर  चँवर लेकर  दो  सभ्य सुन्दर पुरुष  खड़े थे ।

यज्ञ की शुरुआत होनें ही वाली थी  कि ...........

वो अश्व  दौड़ता हुआ आगया .............और यज्ञ मण्डप में आकर उसनें अपनें दो  पैर  रगड़े ..........बस  समस्त राजाओं नें तालियाँ बजाईं .....और वेदपाठी विप्रों नें  मन्त्रों का उच्चारण किया ।

अश्व का पूजन हुआ ..........रोरी  तिलक उसे  स्वयं राजा राम नें  लगा दिया था ........फिर उसके बाद  कुमार शत्रुघ्न  के मस्तक में भी  राम नें  तिलक किया ............।

पर कुमार शत्रुघ्न के भाल पर तिलक क्यों ? 

मैने महर्षि से जिज्ञासा वश पूछ लिया था ।

क्यों की अब अश्व निकलेगा  और उस अश्व के साथ होंगें कुमार शत्रुघ्न ।

पुत्री !   उस अश्व  के मस्तक पर   सुवर्ण की  एक पट्टिका भी  है ....जिसमें लिखा है ................

" यह अश्व  विजय के लिये निकला है .......जो अपनें को वीर   माननें का गर्व रखते हों  वो ही इसे पकड़ें .........और युद्ध के लिए तैयार रहें ...........जहाँ से ये अश्व जाएगा  वह भूमि अयोध्या नरेश की मानी जायेगी ।   सावधान !    अश्व पकड़नें वाले का  अहंकार चूर्ण करके अश्व को  फिर प्राप्त किया जाएगा "

मैं उठ गयी थी..........पुरुष की अपनी  महत्वाकांक्षा होती है .....पर हम नारियों का क्या   ?    पुरुष को विश्व् विजय करना है .........पर हम ? 

मैं  चल दी थी  अपनी कुटिया की ओर.....सन्ध्या का समय हो रहा था ।

पर मेरे कदम रुक गए चलते चलते ..........मेरे पुत्र  रामायण का अभ्यास कर रहे थे ........वो गा रहे थे   -

"मिथिला की राजदुलारी की  हम कथा सुनाते हैं"

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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