वैदेही की आत्मकथा - भाग 170

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 170 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

ग्रीष्म ऋतु  के कारण मुझे पसीनें आरहे थे  ..........मैं थक भी जाती थी शीघ्र ही ..........कुश लव के साथ लौटते हुये  आश्रम से .......एक शिला में बैठ गयी ...............।

लव दौड़ा ..................कहाँ जा रहा है  अब ये  ?    मैने झुंझला कर  कुश से  पूछा ।

आपके लिये  जल लेकर आरहा है ............कुश नें मुस्कुराते हुये कहा ।

नही पीना मुझे तुम लोगों के  हाथ का जल  !    कितना दुःख देते हो मुझे ......अपनी माँ को कोई भला ऐसे दुःख देता है  ।

मैं कुश को डाँट रही थी ..........तभी मैने सामनें देखा .............

मैं  चिल्ला उठी .......लव  !     वो देखो  सिंह आरहा है    ..........।

  मैने देखा  कि  लव उधर से  जल लेकर आरहा था .........और दूसरी ओर से  सिंह   लव की  ओर दौड़  रहा था  ।

पर मैं चकित -  कुश को देख रही थी ...........वो हंस रहा था  ।

माँ !   कुछ नही होगा    उसी नें  आवाज देकर बुलाया है  सिंह को .......कुश मुझे समझा रहा था ............और देखना  माँ !   वो  सिंह के ऊपर ही बैठकर आएगा  आपके पास  ।

हे भगवान !  मैं  अपना सिर पकड़ कर बैठ गयी थी  ।

और हाँ ......जैसे कुश नें कहा  वैसे ही  ,  लव   सिंह के ऊपर बैठकर  मुस्कुराते हुए आया था  ।

"उतर पहले" .............मैने कान पकड़े लव के ................।

माँ !  जल तो पी लो ........नही तो फ़ैल जाएगा ..........अच्छा !  बाद में  कान पकड़ लेना  .......अभी जल पीयो   माँ  ! 

लव  चंचल है ............बहुत परेशान करता है .........पर मुझे चिन्ता भी इसी की ज्यादा रहती है .............सिंह से उतरा ............जल दिया मुझे ......मैने   जल तो पीया ........पर लव के  कान फिर पकड़े ..........

चल अब ?    

माँ !   पर आप थक गयी हो .......कुटिया दूर भी है .......ये सवारी आपके लिये   मैने ही तो  मंगवाई है .........क्यों  हमारी माँ को  ले जाएगा ना कुटिया तक...?    सिंह  से पूछा  था लव नें ......।

मैं चकित थी .........वो  वनराज सिंह  मेरे लव की बात ऐसे मान रहा था  जैसे बिल्ली हो ..................।

हाँ .......अब माँ ! आप इस पर बैठो  .....और  हम भी आपके पीछे पीछे आरहे हैं .............बदमाश !  मारूँगी  तुझे ...........।

मैने  फिर   उसके कान खींचें ..........माँ ! माँ !  लगती है ............

मैने तुरन्त छोड़ दिए कान ..........तुम लोग  अपनी माँ को ऐसे ही परेशान करोगे  ?      मैं वैसे ही  ग्रीष्म ताप के कारण  जैसे तैसे चल रही हूँ  ।

जा !   जा भाई ! जा.....वनराज सिंह को अपनें पैर की चोट से जानें का आदेश दिया लव नें...वो बेचारा बिल्ली की तरह  चुपचाप चला गया था ।

आपको गर्मी लग रही है ?     कितना बोलता है  ये लव ।

मेरे भाई चुप हो जा ................मैने हाथ जोड़े ।

अपनें बड़े भाई कुश से कुछ तो सीख ......देख  कितना शान्त और गम्भीर है  ये .............मैने लव को  समझाया ।

हाँ .....महर्षि भी कहते हैं   राजा राम की तरह गम्भीर हैं भैया ।

लव  नें फिर  उस दुःख के तार  को  छेड़ दिया था   ।

मैं बैठ ही गयी अब ..........मुझ से चला कहाँ जाएगा ...............श्रीराजा राम  की  बात निकाल दी .......उफ़  !     

मेरे शरीर से पसीनें निकलनें लगे थे ....................

मेरे बालकों को लग रहा था  कि मैं ग्रीष्म के ताप से  तापित होकर बैठ गयी हूँ ...........

वायव्यास्त्र   चला दिया था लव नें ................मैं सुन रही थी .............हमारी माँ दुःखी है ...........भैया !     वायव्यास्त्र से  हवा चलेगी ........हमारी माँ को अच्छा लगेगा  ।

तुम लोग पागल हो क्या  ?    ये दिव्यास्त्रों की शिक्षा  खेल करनें के लिये होते हैं  ?      मैने डाँटा   ।

आपको कष्ट हो  और  हम देखते रहें .............इस बार कुश बोला था ।

माँ !    दिव्यास्त्रों से ज्यादा महत्व हमारे जीवन में आपका है  ।

लव नें  छोड़ दिया था बाण .......वायव्यास्त्र   .......हवा चलनें लगी थी ......पर  ज्यादा हवा  चलनें लगे तो  उसे   सम्भाल भी रहा था लव ।

मैं  अब  दोनों का हाथ पकड़ कर  चल दी थी  ।

आज  महर्षि वाल्मीकि नें  कहा  कि   -   वो अश्व ,  विजयी अश्वमेध का अश्व । ..........अनेक  प्रान्तों से होते हुये  अब    वो अयोध्या की ओर बढ़ रहा है .......हाँ  एक दो स्थान पर  अश्व को रोका भी गया ......पर  श्रीराजाराम के नाम से     सबनें  छोड़ दिया .........अनेकों स्थानों पर तो  बड़े बड़े सम्मान भी हुये ...........और हाँ .....एक बात और बताई .......मेरी मिथिला जनकपुर में भी वो  अश्व गया था .........मेरे पिता  और   मेरे भाई लक्ष्मी निधि नें  बड़ा सम्मान किया ..........पूरा जनकपुर ही उमड़ पड़ा था  स्वागत के लिये  ।

अब लौट रहा है अश्व ...........महर्षि कह रहे थे  कि  इस समय   हिमालय में है वो ............और  कल तक होगा तो   तराई में उतरते हुये   गंगा किनारे किनारे    आजायेगा  अश्व  ।

माँ !   एक बात बताओ ...............कुश नें पूछा  ।

हाँ पूछ .............देखो माँ !  हमारी रामायण पूरी हो गयी ........महर्षि नें  अपनें द्वारा लिखे हुये  "रामायण महाकाव्य" हमें  सिखा दिया   ।

पर एक बात हमारी समझ में नही आई ...............वही पूछना है ।

पूछ ?      मैने कुश से कहा .....और अपनी कुटिया में प्रवेश किया । 

माँ ! राजा राम नें सीता का त्याग क्यों किया  ?   

मैं  स्तब्ध हो गयी थी इस प्रश्न से ........।

बहुत गलत किया माँ !   राजा राम नें ....उधर से लव बोल रहा था ।

मैं  मूर्छित होते होते बची ......मैने अपनें आपको सम्भाला.....।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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