आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 167 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
"अयोध्या वाले कह रहे हैं कि राजा राम सीता को फिर स्वीकार करेंगें"
ये बात कहकर चले गए थे महर्षि वाल्मीकि ।
मेरे श्रीराम अश्वमेध यज्ञ करनें जा रहे हैं .......धर्मपत्नी के बिना कैसे यज्ञ सम्भव है ! एक साधारण तीर्थ यात्रा का फल भी तभी मिलता है जब अर्धांगिनी साथ हो ........और ये तो अश्वमेध यज्ञ है ।
मुझे रात रात भर नींद नही आती थी उन दिनों ..........क्या मुझे बुलाया जाएगा ? मैं फिर अयोध्या की सम्राज्ञी बनकर आर्यपुत्र श्रीराम के बाम भाग में बैठूंगी ! मैं सोचती रहती थी ............
मुझे रोमांच होनें लगता ................मैं मुस्कुरा उठती थी ..........
फिर मेरे पुत्र ये कुश लव ...........मैं उनके सिर में हाथ फेरती ........ये युवराज होंगें...........इनके जीवन का कष्ट भी समाप्त हो जाएगा ।
मेरी बहनें......मेरे देवर , तीनों देवर....और सुना है कि भरत , लक्ष्मण के भी दो दो पुत्र हुए हैं......शत्रुघ्न कुमार के पुत्र तो मैने देख लिए .......कितना आनन्द आएगा जब मैं फिर अयोध्या जाऊँगी ...और उर्मिला माण्डवी श्रुतकीर्ति के पुत्रों को अपनें हृदय से लगाउंगी ।
भले भी मैने कल महर्षि वाल्मीकि के सामनें मना किया......कि मैं अब अयोध्या नही जाऊँगी ........पर हृदय तो चाहता ही है ना हर नारी का कि वो अपनें प्राणप्रिय के बाम भाग पर सुशोभित रहे ।
मैं फिर सोलह श्रृंगार सज के अपनें प्राणधन के साथ रहूँगी ।
पर आज तीन दिन हो गए महर्षि आये नही ...........
और कोई सूचना भी नही दी कि अयोध्या में अश्वमेध यज्ञ की तैयारियाँ क्या चल रही हैं !
फल और गौ दुग्ध पिला दिया था कुश और लव को मैने प्रातः.......
माँ ! अब हम जाएँ महर्षि के पास ?
हाँ ....जाओ ..........कुश लव नें मेरे पैर छूए और जैसे ही जानें लगे ।
सुनो ! मैने उन दोनों को रोका ................
हाँ माँ ! क्या ?
मैं भी जाऊँगी आज तुम्हारे साथ ..............महर्षि के दर्शन किये मुझे भी कई दिन हो गए हैं ........मैं भी चल पड़ी थी आश्रम की ओर ।
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शस्त्राभ्यास में लगा दिया था कुश लव को महर्षि नें ।
मैं उनके चरणों में बैठ गयी थी .......और उनकी ओर ही देख रही थी ।
मुझे सुनना था ........कि अयोध्या में क्या निर्णय हुआ.........मुझे लेकर क्या निर्णय किया मेरे श्रीराम नें !
क्या मुझे लेंगें ? क्या मुझे फिर वापस ससम्मान बुलाया जाएगा ?
मेरे मन में ऐसे कितनें प्रश्न थे ........मैं देख रही थी महर्षि की ओर ।
पुत्री सीता ! इतना ही बोल पाये महर्षि, उनके नेत्र सजल हो गए थे ।
मेरे मन में भी आस थी कि मेरी पुत्री, अयोध्या में वापस जाए......पर ।
मेरे हृदय में फिर बज्राघात हुआ था .................ओह !
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पुत्री सीता ! मैने श्रीगुरुवशिष्ठ तक भी ये सूचना पहूंचाई थी.......
कि ये अवसर अच्छा है.......सीता के निर्वासन पर रोक लगा दिया जाए और उन्हें ससम्मान अयोध्या बुला लिया जाए ।
मैने गुरु वशिष्ठ से ये भी कहा था कि .........अश्वमेध यज्ञ बिना अर्धांगिनी के पूर्ण नही होता .........कोई फल नही मिलता .....ये अवसर अच्छा है ......अयोध्या को प्रायश्चित्त करना चाहिए सीता के त्याग का .....और प्रायश्चित्त यही होगा कि - सीता को बुलाया जाए ।
इतना बोल कर चुप हो गए थे महर्षि ।
महर्षि ! फिर क्या हुआ ?
बहुत देर तक जब नही बोले , तब मैने ही पूछा ।
पुत्री सीता ! गुरुवशिष्ठ जी नें मुझे सारी बातें बताईं ........जो जो हुयी थीं ........और जैसे उन्होंने राजा राम को समझाया था ।
गुरु वशिष्ठ गए थे राजा राम के पास .................
हे राम ! अश्वमेध की तैयारियाँ प्रारम्भ हो चुकी हैं ........अयोध्या में भी उत्साह है .....सैनिकों में ऊर्जा का संचार हुआ है इस अश्वमेध के कारण ..........क्यों की अयोध्या के सैनिकों का कहना था ........लंका का युद्ध सुग्रीव की सेना नें जीत लिया ........और हमें अभी तक अपना पौरुष दिखानें का अवसर कहाँ मिला है !...........!
अब हम अश्व को लेकर चलेंगें........और जो राजा राम के अश्व को पकड़ेगा उसे हम बतायेंगें कि अवध के सैनिकों में कितनी शक्ति है ।
हे पुत्री सीता ! इन बातों को सुनकर तो राजा राम प्रसन्न हुए थे .......पर गुरु वशिष्ठ जी नें अब जो बात कही ।
तो हे राम ! सीता को बुला लो वनवास से ।
क्या ! ! ! ! स्तब्ध हो गए थे राजा राम ।
क्यों ? हे राम ! तुम तो शास्त्र के नियमों के ज्ञाता हो ........फिर चौंक क्यों गए ? क्या तुम्हे पता नही.......कि कर्मकाण्ड यज्ञ पुन्यादि के कार्यों में धर्मपत्नी का होना आवश्यक है .....अन्यथा फल नही मिलता ।
इस बात को सुनकर राजाराम चुप हो गए थे .................फिर कुछ देर में बोले ............हे गुरुदेव ! प्रजा जब तक सीता को निर्दोष न मानें तब तक मैं सीता को कैसे बुलाऊँ !
कौन सीता देवी को दोषी मानता है .......? हे राम ! एक मदिरा पीनें वाला धोबी ?
पर वो है तो मेरी प्रजा ही ना गुरुदेव !
मुझे तुमसे विवाद नही करना राम ! तो फिर दूसरा विवाह कर लो !
पुत्री सीता ! गुरुवशिष्ठ नें राजा राम को कहा ।
मैं हिलकियों से रो पड़ी थी ।
क्या मेरे श्रीराम दूसरा विवाह करेंगें ? मैने बिलखते हुए पूछा था ।
नही पुत्री ! नही .........राजा राम ऐसा नही कर सकते ............
उन्होंने गुरु वशिष्ठ जी के मुख से ये सुनकर, गुरु को ही टोक दिया ।
ये आप क्या कह रहे हैं ? गुरु को तो मर्यादा सिखानी चाहिए ........हे गुरुदेव ! राम दूसरा विवाह नही कर सकता ।
राम की प्रतिज्ञा है कि राम सीता को छोड़कर अन्य समस्त नारियों में माता और भगिनी का ही भाव रखता है ................
हे गुरुदेव ! आप ही बतायेँ कोई और विकल्प ? राजा राम नें पूछा ।
फिर सुवर्ण की सीता बनाओ.......यही उपाय शास्त्रों में भी बताया है ।
महर्षि वाल्मीकि और भी कुछ बोल रहे थे ........पर मेरा देह उठ गया था वहाँ से ......मैं चल पड़ी थी अपनी कुटिया की ओर ........मुझे देह भान नही था ..........कुछ भी नही था ।
मैं अब पूरी तरह से टूट चुकी थी ........एक आस थी अश्वमेध यज्ञ .........पर आज ये भी टूट गयी .............।
शेष चरित्र कल ....
Harisharan
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