वैदेही की आत्मकथा - भाग 166

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 166 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

हे सीता पुत्री !   शम्बूक का वध करनें के बाद  राजा राम का  मन ग्लानि से भर गया था ......देवर्षि नारद नें बहुत प्रयास किया ....पर   श्रीराम का मन शान्त नही हो  पा रहा था  ।

महर्षि वाल्मीकि मुझे  ये घटना सुना रहे थे  ।

देवर्षि  !   यहाँ से ऋषि अगत्स्य का आश्रम निकट  लग रहा है मुझे ......अगर आपकी आज्ञा हो  तो मैं  ऋषि के दर्शन करता हुआ  अयोध्या जाना चाहता हूँ ।.............हे पुत्री !    देवर्षि नारद जी से आज्ञा लेकर  राजा राम  अगत्स्य आश्रम में आ गए  थे ।

ऋषि अगस्त्य बहुत प्रसन्न हुए .....उनकी धर्मपत्नी  लोपामुद्रा  उनके भी आनन्द का ठिकाना नही था ......।

हे राम !   क्या कारण है  आपका मुख मण्डल उदासी से भरा हुआ है ?

तब राजा राम नें  "शम्बूक वध" की पूरी घटना सुनाई  ऋषि अगत्स्य को.........तब  ऋषि अगत्स्य नें   प्रेम से  राजा राम को  झिड़का -

अज्ञानी के समान कैसे  तर्क कर रहे हो  हे राम !   

तुम तो स्वयं  आत्मज्ञान से भरे हुये हो ......सच्चिदानन्द स्वरूप तुम्हारा है  फिर  अज्ञ की तरह बातें  करना   शोभा नही देता  आपको  ।

शम्बूक के तप से   देवता भी दुःखी थे ........वो जबरन  उनके स्वर्ग में जाना चाहता था .......देवताओं के भोगों में  अपना अधिकार  जमाना चाहता था ............क्या ये उचित था  ?     ऋषि अगत्स्य नें  राजा राम से ही पूछा  ।

पर राजा राम  कुछ नही बोले ......बस हाथ जोड़कर बैठे रहे  ।

इस तरह म्लान मुख बनाकर बैठनें से  हे राम !   कुछ लाभ नही होगा ....इसलिये  इस दुर्बलता को हटाइये  ।

आप सत्य कह रहे हैं..........हे भगवन् !      पर  मानव की मर्यादा तो यहाँ टूटती है ना  ?      एक तपस्वी का वध  !    भले ही वह शुद्र हो ....पर वो था तो  तपश्वी ही    ..........।

राजा राम नें ऋषि अगत्स्य को अपनें हृदय की बात बताई  ।

हे राम ! ये क्यों भूल रहे हो  कि  आप एक राजा भी हो ....प्रजा का मंगल देखना     ये भी तो आपका कार्य है ना  !    

एक सामान्य मानव के लिये ये भले ही अमर्यादित हो ........पर आप तो सम्राट है ........और वो भी चक्रवर्ती सम्राट   ।

क्या भूल गए  उन  दो ब्राह्मण  बालकों को ..........जिनकी मृत्यु इसी के कर्म से हो रही थी .......और ऐसे ही कितनें  अनिष्ट ,  आपदा ,  का सामना करना पड़ता  आपकी प्रजा को .......ये क्या उचित होता ।

ऋषि अगत्स्य समझाते जा रहे थे .......हे राम !    दुरात्मा का वध करनें से  हजारों   पुण्यात्माओं की रक्षा होती हो .......तो  उस दुरात्मा के वध को ही  हमारे  शास्त्रों में  उचित कहा है  ।

हे पुत्री सीता !      ऋषि अगत्स्य समझा रहे थे  राजा राम को ........पर श्रीराम का  हृदय अत्यन्त कोमल है.......वो    शम्बूक के वध का   प्रायश्चित्त करना चाहते थे......इस बात को ऋषि अगत्स्य ने समझ लिया ..............

हे राम !    शम्बूक  के वध की ग्लानि  आपके मन से जा नही रही .....इसलिये  अब मैं तो यही कहूँगा कि आप  "अश्वमेध" यज्ञ करें  ।

इससे  आपकी प्रजा भी प्रसन्न होगी .........और    आपके राज्य में सबकुछ  अनुकूल रहेगा ...............

इस बात से   सन्तुष्ट दीखे    राजा राम ।

और हाँ शम्बूक वध की ग्लानि भी आपके मन से निकल जायेगी ।

ये बात मुस्कुराते हुये  ऋषि अगस्त्य नें कहा  था  ।

राजाराम का चित्त अब प्रसन्न हो गया था ..................

मैं  अब "अश्वमेध" करूँगा  ऋषि !  आपकी आज्ञा का पालन  करूँगा ।

सिर झुकाकर श्रीराम नें  ऋषि को प्रणाम किया  और वापस अयोध्या लौट  आये थे  ।

पुत्री सीता !      अयोध्या आकर    गुरु वशिष्ठ जी को सारी बात बताई ..........आप आज्ञा दें  गुरुवर !    मैं अश्वमेध करना चाहता हूँ ।

राजा राम नें  प्रार्थना की ...........।

बहुत प्रसन्न हुए   गुरु वशिष्ठ ...............हाँ अश्वमेध   करना ही चाहिये  राघवेन्द्र   आपको  ........।

प्रसन्नता पूर्वक अपनें महल में चले आये थे  राजा राम  ।

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क्या  अश्वमेध यज्ञ करनें जा रहे हैं  आर्य  श्रीराम ,   लक्ष्मण के प्रसन्नता का ठिकाना नही था .........आप सच कह रहे हैं प्राणनाथ ! 

उर्मिला  पहली बार  नाच उठी थी ........श्रुतकीर्ति ...माण्डवी  सब  प्रसन्न हो गयी थीं .......आर्य  ! यज्ञ कर रहे हैं   ।

पर तुम लोग इतनी प्रसन्न क्यों हो   ?   लक्ष्मण  नें  पूछा  ।

यज्ञ बिना  धर्मपत्नी के कैसे सम्भव है  ?      

तो क्या हमारी जीजी  आयेगीं  अयोध्या  ?       श्रुतकीर्ति नें उछलते हुए पूछा ..............।

और क्या  !  आएँगी ही .......उनके बिना आये  यज्ञ कैसे सम्भव है ?   

पुत्री ! सीता !     ये बात   अयोध्या     में फ़ैल गयी है ............कि राजाराम यज्ञ करेंगें ............और  अपनी धर्म पत्नी सीता को  वनवास से बुलवायेंगें .............।

महर्षि वाल्मीकि   प्रसन्नता से ये बात बता  रहे थे ........पर मुझे नही लग रहा था कि  अब मैं  अयोध्या जाऊँगी ...........अब  मुझे लग क्या  रहा था   ?       मैं  बिना कुछ बोले बैठ गयी थी  धरती पर .....और  अपनी माँ धरती को  सहला रही थी .........।

शेष चरित्र कल .....

Harisharan

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