आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 164 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
उस सन्ध्या को एकाएक शत्रुघ्न कुमार आये थे ।
12 वर्ष के बाद आये ........मथुरा से आये थे ।
कुश लव नही थे आश्रम में .............वो अल्हड़ , वो अभय बालक ज्यादा रहते ही कहाँ हैं मेरे पास ..........
मैं अनाज पीस रही थी ....तभी मैने देखा महर्षि के साथ कुमार शत्रुघ्न ।
महर्षि स्वयं लेकर आये थे उन्हें मेरे पास .............कुमार शत्रुघ्न को मेरे पास छोड़कर चले गए ......."आज रात्रि मेरी कुटिया में ही विश्राम करना कुमार ! " इतना बोलकर जानें लगे तो कुमार नें हाथ जोड़कर कहा .....क्षमा करें महर्षि ! ......मुझे रात्रि में ही अयोध्या पहुँचना है ।
.महर्षि नें ज्यादा आग्रह नही किया ......"राजाओं से प्रजा प्रार्थना ही कर सकती है कुमार !"
मुस्कुराते हुये इतना कहकर वो चल दिए थे ।
मैने देखा कुमार शत्रुघ्न को और पूछा..........कैसे हो कुमार ?
मेरे सामनें साष्टांग दण्डवत की मुद्रा में थे .......भाभी माँ ! आपके आशीर्वाद से सब ठीक है ............।
मैने कुशासन सामनें रखा शत्रुघ्न कुमार के ।
मैं आया था जब ये आश्रम प्रफुल्लित था ......हमारे आर्य को पिता बनानें के लिये आपका धन्यवाद ।
श्रुतकीर्ति कैसी है ? मेरा पहला यही प्रश्न था ।
सजल नयन से मेरी ओर देखा कुमार नें .......फिर कुछ देर चुप रहे .......वो भी आयी है .......रथ में बैठी है ।
यहाँ क्यों नही आयी ?
वो आपको इस अवस्था में देख नही सकेगी.............इसलिये ।
मैने आग्रह नही किया.......इसलिये नही किया कि उस छोटी को मैं जानती हूँ.......मेरी लाड़ली बहन है वो.......उसे दुःख होता, मुझे वनवासिनी के रूप में देख कर............मैं चुप हो गयी ।
अब कहाँ जाना है मथुरा या अयोध्या ?
नही भाभी माँ ! मथुरा राज्य मैने 12 वर्ष तक संचालित किया .......वो भी आर्य की आज्ञा से .......श्रुतकीर्ति को भी मैने वहाँ रखा था अपनें साथ ........पर ............कुमार शत्रुघ्न बोलते बोलते रुक गए ।
पर ? पर क्या कुमार ?
उसे महारानी बनना अच्छा नही लगता ..............वो कहती है महारानी तो एक मात्र मेरी जीजी हैं.........मुझे नही बनना ये महारानी ।
मथुरा का राजा मैं था.........पर श्रुतकीर्ति महारानी के रूप में कभी सिंहासन में नही बैठी........भाभी माँ ! मेरा भी मन नही लगता था मथुरा में ..........मैने आर्य श्रीराम के चरणों में प्रार्थना की ........बार बार प्रार्थना की .......तब जाकर उन्होनें मुझे अयोध्या में बुलाया है ।
मेरे पुत्रों की और से आपके चरणों में प्रणाम .....कुमार नें सिर झुकाया ।
मैं चहक उठी, तुम्हारे पुत्र हुए हैं ? मेरी छोटी श्रुतकीर्ति माँ बनी है !
मुझे आनन्द आ रहा था.........क्या नाम रखा है ? मैने पूछा ।
"सुबाहु और श्रुतसेन"........कुमार नें संकोच के साथ उत्तर दिया ।
कितनें बड़े हैं ?
एकादश वर्ष के हैं..........अपनें अग्रज "कुश लव" से एक वर्ष छोटे ।
कुमार नें मुझे बताया ।
पर भाभी माँ ! कुश लव दिखाई नही दे रहे ? कहाँ गए है ?
कुमार ! वनवासी हैं ये बालक तो ...........अल्हड़ हैं और अभय हैं ......इसलिये कब आयेंगें कहाँ गए मुझे पता नही रहता ।
महर्षि ही शिक्षा दे रहे हैं उन बालकों को .................और बड़ा वात्सल्य है उनके मन में .................।
आपका मैने वनवासिनी के रूप में चित्रकूट में दर्शन किये थे भाभी माँ ! .......पर वहाँ आप मुझे तपश्विनी लग रही थीं !
यहाँ कैसी लग रही हूँ कुमार ?
मैने सहजता में पूछा ।
यहाँ आप मुझे जगत्जननी लग रही हैं........महिमामयी लग रही हैं ।
सजल नयन हो गए थे कुमार शत्रुघ्न के .............
"अपनें प्राणधन श्रीराम के वियोग की अग्नि को अपनें हृदय में छुपाये आप विश्व् को प्रकाश बाँट रही हैं भाभी माँ ! "
कुमार और भी बहुत कुछ कहनें जा रहे थे .............पर मुझे कहाँ प्रिय थी अपनी स्तुति ..........।
"सम्राट का मंगल हो" मौन होकर मेरी ओर से प्रणाम निवेदित कर देना आर्य श्रीराम के चरणों में........कुछ मत कहना मुझे कोई शिकायत नही है उनसे ।
कुमार शत्रुघ्न रोते रहे मेरे पाँव में ही उनकी दृष्टि थी ।
एक बार देख लेता अपनें कुश लव को ........मेरी बहुत इच्छा थी ।
कुमार से मैने इतना ही कहा .......आज रात्रि रुक सको तो ही उन्हें देखना, मिलना सम्भव है .......वो बालक अरण्यवासी हैं कुमार ।
कुमार शत्रुघ्न का रुकना सम्भव नही था .......उन्होंने अपनें आर्य को बता दिया था कि वो रात्रि तक अयोध्या पहुँच जाएंगे ।
फिर आर्य प्रतीक्षा करें ये तो उचित नही होगा ना माँ ?
नही तुमको जाना ही चाहिये .........जाओ कुमार, जाओ !
इतना कहकर मैं उठी ..........कुमार शत्रुघ्न मुझे प्रणाम करनें लगे ।
पर मैने सामनें देखा ...........रथ पर बैठी श्रुतकीर्ति को ।
वो मुझे देख रही थी ..........मेरी छोटी बहन श्रुतकीर्ति !
मेरे कदम बढ़ चले रथ की ओर .............
ये क्या वो अपनें हार , गहनें सब उतार रही थी ...........और गंगा जी में फेंकती हुयी मेरी ओर बढ़ी ............
मर्यादा मेरी बहनों को अच्छे से आता है .....मुझ वनवासिनी के सामनें कैसे गहनों से लदी वो आती .............
मैं दौड़ पड़ी उसके पास...............मुझे कुछ सुध नही थी .......बस मेरी "छोटी" मुझे दीख रही थी मेरे सामनें ............
उधर से वो दौड़ी .......जीजी ! जीजी ! वो चिल्लाती हुयी दौड़ी थी ।
पगली है ..........मेरे गले से आकर लग गयी ............हम दोनों बहुत रोये .....बहुत ............हमारे साथ पूरा "अरण्य" भी रो उठा था ।
कैसी है तू ? मैने आँसू पोंछते हुए उसे चूमते हुए पूछा ।
जीजी ! आपके बिना कैसी होंगी मैं !.........आप नें जब से अयोध्या छोड़ा है .....तब से अयोध्या अयोध्या कहाँ रहा .......मसान से ज्यादा और कुछ नही है अयोध्या अब ।
जीजी ! हमारी हँसी खतम हो गयी है .............हँसें वर्षों हो गए .......हर समय आपकी याद आती रहती है .......हिलकियों से रोते हुये बोले जा रही थी ........।
अयोध्या में माण्डवी हैं .......उर्मिला हैं ..........हम सब अब जड़वत् हो गयी हैं ........आपकी चर्चा भी नही करती .........मन ही मन में घुटती रहती हैं ........क्यों की जीजी ! आपकी चर्चा होगी तो आँसुओं की बाढ़ आजायेगी ........डूब जाएगी इन रघुवँशियों की अयोध्या ।
फिर रहें आर्य राजा राम वहाँ ..................
इससे ज्यादा वो कुछ बोल न पाई ..............उसकी हिलकियाँ रुक नही रही थीं..........जीजी ! आपनें कितना दुःख सहा ..........आपको दुःख के सिवाय कुछ नही मिला ।
मैनें श्रुतकीर्ति को चुप किया ..............छोटी ! वो दोनों कौन हैं ?
मैने देखा - सामनें दो बालक हैं.........खड़े हो गए हैं रथ से उतर कर ।
आओ ! इधर आओ...........श्रुतकीर्ति नें अपनें आँसू पोंछे ।
बालक बड़े सुन्दर थे ..............ये दोनों तो कुमार शत्रुघ्न और तेरे बालक लग रहे हैं ? हैं ना ?
मेरे मुख मण्डल में प्रसन्नता फ़ैल गयी थी ................
वो बालक आये ...........मेरे पैर छुये बड़ी श्रद्धा से ।
मैने उनके सिर में हाथ रखा ........आयुष्मान् भवः ।
ये सुबाहु और ये श्रुतसेन ..........श्रुतकीर्ति नें बताया ।
जीजी ! इनके बड़े भाई कहाँ हैं ? अयोध्या के युवराज कहाँ हैं ?
मुझे उनसे मिलना है .......जीजी बताओ ना !
मैं कुछ बोलती कि उससे पहले ही एक सुमधुर आवाज अरण्य में गूँज उठी .......
"मिथिला की राजकुमारी की हम कथा सुनाते हैं"
कुश और लव गा रहे थे ...........वो आवाज मुग्ध कर देनें वाली थी ।
"मिथिला की जनक दुलारी की हम कथा सुनाते हैं"
पक्षी शान्त सुन रहे थे .........गंगा नदी मानों रुक सी गयी थी उनकी मोहक वाणी सुनकर .......हिंसक पशु भी प्रेमपूर्ण हो गए थे ।
पर शत्रुघ्न कुमार को आज्ञा थी आर्य की, उन्हें पहुँचना ही था अयोध्या रात्रि में ही .......न चाहनें के बाद भी रोती हुयी श्रुतकीर्ति गयी ....मैं छोटी को देखती रही .....उनके प्यारे बालकों को देखती रही !
शेष चरित्र कल.....
Harisharan
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