वैदेही की आत्मकथा - भाग 163

आज  के  विचार 

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 163 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे - 

मैं वैदेही !

मेरे पुत्रों नें संगीत की शिक्षा शुरू कर दी थी ........मैं सुनती तो मन्त्रमुग्ध हो जाती .....कितना सुन्दर गाते थे  मेरे  कुश लव  ।

वर्षा कर देते .....शीतल हवा चलनें लगती .....कोयल से प्रतिस्पर्धा करते ......अल्हड़ थे ........गाते गाते डूब जाते स्वर लहरी में  ।

रामायण का गायन मेरे पुत्रों का .......मुझे रोमांच कर देता  ..........अरण्य वासी थे  इसलिये   सहज थे .....।

ये जब गंगा किनारे या किसी सरोवर में बैठकर गाते .....तब इनके श्रोता होते पक्षी .....अनगिनत पक्षी .........तोता, मोर कोयल   और हाँ ..मोर तो नाचते थे   जब मेरे पुत्र गाते  ।

मैं सुनती रहती ...........मेरे श्रीराम के जन्म की कथा का गायन ..........फिर ऋषि विश्वामित्र का  उनको लेकर जाना............।

तुम लोग आगे का प्रसंग क्यों नही सुनाते ...?      मैने एक दिन पूछा .......

हमें अभी तक  गुरुदेव नें यहीं तक सिखाया है ..............पर माँ !  आपको क्या सुनना है    ?       मैं  उनकी बातें सुनकर इतना ही कहती .....नही ,   ठीक है ........मुझे कुछ नही सुनना  .....लो  भोजन कर लो ।

मैं फिर शाक ,  दाल और  चावल  उनके पात्र में रख देती .........वो  खाते  मैं  उन्हें देखती रहती ........कुश मेरे  श्रीराम की तरह ही खाता है .....नीचे दृष्टि करके ......शान्त  .......झुककर .........वो एक भी दाना अन्न का गिराता नही था ..........हाँ थोडा चंचल था लव .........।

माँ !     हमें ऐसा क्यों लगता है  कि  आप हमसे कुछ छुपा रही हो  ?

बड़ी हिम्मत करके कुश नें मुझ से पूछा था ।........अब माँ ! रो देगी !

लव बोला  ।  मैने  लव की ओर देखा ......चुपचाप भोजन कर ।

माँ !   एक बात बताओ ना  ?     कुश नें फिर  पूछना शुरू किया ।

मेरा हृदय काँप रहा था ........क्या पूछना चाहते हैं  ये बालक   आज ।

साग लोगे ?     थोडा चावल  ?     मैने बात को  बदलनें के लिये पूछा ।

नही मेरा तो पेट भर गया ........लव अपना पेट दिखानें लगा था .....माँ ! देखो मेरा पेट  ....कितना बड़ा हो गया .............तू पेट फुला रहा है ......बड़ा बातूनी है तू !    ले थोडा और खा .......मैने उसके पात्र में थोडा चावल और डाल दिया था ।

माँ !    बताओ ना !       "कुश" का  पूछना जारी  था  ।

अब क्या बताऊँ  तुझे ?     चुपचाप भोजन कर  और दूध पीकर सो जा ।

पर  मेरे ब्रह्मचारी  मित्र   मुझ से पूछते हैं .......और  हमारे पास इसका कोई उत्तर नही होता..........हमें चुप हो जाना पड़ता है ............माँ !  बताओ ना !        भैया के प्रश्न का उत्तर आपको देना ही पड़ेगा .....मुझ से भी  पूछते हैं ......लव अपनें भाई कुश  की और से बोल रहा है ।

अच्छा पूछ !  क्या पूछना है  ?      मुझे लगा था   ये बालक  रामायण सीख रहे हैं  तो  श्री राम के बारे में ही पूछेंगे .......हृदय को मजबूत किया मैने ......और  अपनें पुत्रों  से कहा   ।

माँ !  हमारे पिता कौन हैं   ?      

मैं  स्तब्ध हो गयी.....मैने सोचा नही था ये प्रश्न करेंगें मुझ से ये बालक  ।

माँ !   बताओ ?   आज बताना ही पड़ेगा आपको ............हमारे पिता का नाम क्या है  ?        हमारे कौन हैं पिता  ?   

माँ !     हमारे मित्र कहते हैं .......तुम्हारे पिता  कौन हैं  पता नही ।

माँ !   सबके पिता हैं   हमारे पिता  कहाँ हैं   ?    

क्या हमारे पिता नही हैं ?........कुश नें आज कितनें प्रश्न कर डाले थे ।

मुझे लगा मेरा हृदय फट् जाएगा आज........मैं क्या करूँ ?  मैं क्या उत्तर दूँ  ?   मैं  भागी....माँ !  चिल्लाते हुए  मेरे पीछे  मेरे बालक दौड़ पड़े थे  ।

मैं  दौड़ी..........मैं  दौड़ते हुये  महर्षि वाल्मीकि की कुटिया में गयी ...।

महर्षि  ! महर्षि  !    मैं चिल्लाई ..........महर्षि  कुटिया से बाहर आये   पुत्री !   क्या हुआ  ?    तुम इस समय यहाँ  ?

मैं  उनके चरणों में गिर गयी थी.........महर्षि !  अब सहन नही होता ।

मैं क्या करूँ ?      मुझे बताइये  मैं क्या करूँ  ?     मैं अपनें मस्तक को पटक रही थी भूमि में  ।

पुत्री सीता !     पर हुआ क्या ?...........मेरी दशा देखकर सजल नेत्र हो गए थे महर्षि के भी  ।

महर्षि !    मेरे पुत्र  पूछ रहे हैं ...........उनके पिता कौन हैं ?       

महर्षि ! मेरे पुत्र पूछ रहे हैं  उनके पिता का नाम क्या है ?

महर्षि ! मेरे पुत्र पूछ रहे हैं     उनके पिता उनसे मिलनें क्यों नही आते ?

मैं क्या कहूँ  ?  अब मुझ में सहन करनें की शक्ति नही है  .........आप मेरे पिता तुल्य हैं .......आप मेरे पिता ही हैं ........बताइये महर्षि !  आपकी पुत्री क्या करे   ?         मैं रोये जा रही थी ..........महर्षि मेरी दशा देखकर  वो भी  अपनें  आँसुओं को रोक न सके थे  ।

मेरे पुत्र आगये थे  मेरे  सामनें ............मेरे पीछे पीछे ही आगये थे ।

पुत्री !   कुछ समय और सहन कर लो.....क्या करोगी !    समय आने दो......उस समय की प्रतीक्षा के सिवा हम कुछ नही कर सकते ।

देखो !   उठो   और देखो... अपनें पुत्रों को.....तुम्हारे सामनें खड़े हैं ।

मैने  अपनें आँसू पोंछे   और जब लड़खड़ाते उठी  तो  .....

कुश लव  रो रहे थे ........और  अपनें दोनों कानों को पकड़े हुए थे  ।

माँ ! क्षमा कर दो .......हम आज के बाद तुमसे कुछ नही पूछेंगें .......

माँ !  हमसे गलती हो गयी ..............कुश और लव हिलकियों से रो रहे थे    मैने उन्हें देखा ...........मैं दौड़ी  उनके पास ....और उन्हें अपनें हृदय से लगा लिया .......हम तीनो ही रो रहे थे अब  .......।

महर्षि  वाल्मीकि   ऊपर की ओर देखकर  विधाता से कह रहे थे ........कितना दुःख लिखा है  इस  सीता के भाग्य में तुमनें  !  

और कितना ?       वो भी रो  रहे थे  ।

 अपनी माँ का ध्यान रखना चाहिये  वत्स !  

पास में आकर  मेरे बालकों के सिर में हाथ रखा महर्षि नें ।

चलो !  जाओ अब  अपनी माँ को कुटिया में लेकर ....... सेवा करो वत्स ! .........माँ का ध्यान रखो !

जाओ पुत्री  !  जाओ !   जल्दी ही वो समय आएगा  जब  तुम्हारे सारे दुःख दूर हो जाएंगे ........महर्षि नें  मुझ से  वात्सल्य में कहा था ।

मैं  चल पड़ी थी ............मेरा हाथ पकड़े मेरे दोनों पुत्र चल रहे थे ।

माँ !   ये कुश भैया हैं ना .......ये आपको रुलाते हैं ..............

लव  इतना ही बोला......पर जब मेरा कोई उत्तर नही मिला  उसे   तब वो  चुप हो गया .....मैं देख रही थी ......कुश उसे चुप रहनें को बोल रहा था ।

शेष चरित्र कल .........

Harisharan

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