आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 151 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
श्रीरामराज्य की स्थापना हो गयी......सूर्य नें मानों सुखद ताप बनाये रखनें का व्रत ले लिया ...ओला, अतिवृष्टि ये पुस्तकों के शब्द रह गए थे ।
नदियाँ, निर्झर सदा निर्मल नीर ही प्रवाहित करनें लगी थीं ।
अश्व, गज, गौएँ तथा अन्य पशुओं में उत्तम लक्षण युक्त शिशु ही उत्पन्न होनें लगे थे ।
पर्वतों नें स्वर्ण चाँदी ताम्रादि धातुएं देनें शुरू कर दिए ।
समुद्र की तरंगें, मुक्ता मणि माणिक्य मोती ये सब ढ़ेर के ढ़ेर किनारे पर लाकर रख देते थे ।
मनुष्यों का मन अत्यन्त निर्मल रहनें लगा था........चोरी, झूठ हिंसा ये सब बीती बातें हो गयी थीं ।
मैं क्या कहूँ - सम्पूर्ण पृथ्वी ही तपोवन के समान शुद्ध सत्व से परिपूर्ण हो रही थी ..........।
मनुष्य स्वस्थ , उसका शरीर सुपुष्ट सुन्दर रहनें लगा था ।
स्त्री पुरुष का जीवन पवित्र था .......काम मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिये ही था ....या कहूँ मैं कि - काम परिवर्तित होगया था "श्रीरामप्रेम" में ।
सब सन्तुष्ट थे .........लोभ रह नही गया था .........क्रोध आनें का कोई विशेष कारण नही था क्यों की कामना ही नही रह गयी थी ।
कुल मिलाकर मैं वैदेही यही लिखती हूँ कि ..........मेरे श्रीरामराज्य में सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणी सत्वनिष्ठ थे .....सुखी, सम्पन्न और सहज सदगुण उनमें दिखाई देते थे ......।
मेरे श्रीराम सबका ख्याल रखते ............उनकी दृष्टि में सब एक थे ....वो राजा थे .....और बाकी उनकी प्रजा ........मेरे श्रीराम एक राजा ही बन गए थे .........महान राजा .........प्रजावत्सल राजा .........उनका "निज जीवन" जैसा कुछ रह नही गया था ...........उनके लिये अब प्रजा ही सबसे प्यारी थी ........कहूँ तो - उनका परिवार विस्तृत हो गया था ........उस परिवार में सब थे ........सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणी .......चक्रवर्ती सम्राट जो थे मेरे श्रीराम ।
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आज विदाई की बेला थी ..................सबको कुछ न कुछ उपहार देकर मेरे श्रीराम विदा कर रहे थे .............।
सबसे पहला उपहार तो निषाद राज गुह को दिया ..........
वो आँखों से नीर बहाते रहे ..........मना करते रहे .........पर मेरे श्रीराम कहाँ माननें वाले थे ..........वो सुन्दर पोशाक, स्वयं अपनें हाथों से पहनाया था निषादराज को ।
"आपको सप्ताह में एक दिन के लिये भी हो, हे निषादराज ! अयोध्या में आना ही पड़ेगा ..............मेरे श्रीराम नें सुन्दर सा हार गले में पहनाते हुये अपनें मित्र से कहा था ।
आप कहें तो - नाथ ! मैं तो अयोध्या छोड़कर ही न जाऊँ !
निषादराज जी के मुख से ये सुनकर सब हँस पड़े थे ।
इसके बाद उस केवट को भी उपहार देकर सम्मानित किया मेरे श्रीराम नें ..............".नही मैं उतराई नही लूंगा" ..........केवट को अभी भी उतराई की ही याद है ............मैं हँसी ।
मैं तुम्हे उतराई दे भी नही सकता मित्र ! कन्धे में हाथ रखा मेरे श्रीराम नें ......केवट भाव विभोर हो गया था ।
अनेक निषाद , भील, कोल किराँत सबका आदर करते हुए इन सबको बहुमूल्य उपहार देकर मेरे श्रीराम नें विदा किया ।
वानरों की वारी थी अब ......................
वानरराज सुग्रीव ...........जैसे ही इनके सम्मान की बेला आई .....ये तो हिलकियों से रो पड़े .......मैं नही जाऊँगा किष्किन्धा - नाथ ! ।
नही मित्र ! वहाँ की प्रजा तुम्हारी बाट जोह रही है ...........तुम्हे जाना चाहिये ..........मैं कहाँ तुम लोगों से दूर हूँ ............मेरा स्मरण करते रहना ..........और कर्तव्य का पालन करते रहो ........।
हनुमान को तो कोई उपहार चाहिये नही ..........क्यों की ये तो जानें के लिये तैयार ही नही हुए ......"मैं इन चरणों को कैसे छोड़ सकता हूँ"...ये कहते हुये उपहार को स्वीकार नही किया पवनसुत नें ।
जामवन्त और अंगदादि को स्वर्गलोक का सुन्दर हार और अत्यन्त बहुमूल्य हीरों से जड़ा कड़ा दिया ।
अंगद तो बालकों की तरह रो रहे थे ........उन्हें अयोध्या से लौटनें की इच्छा ही नही थी .........पर मेरे श्रीराम नें सुग्रीव को बुलाकर कहा ......ये आपका ही पुत्र है ........इन्हें बाली का पुत्र समझकर इनकी अवहेलना नही होनी चाहिये किष्किन्धा में ।
और अंगद ! ये सुग्रीव तुम्हारे पिता के भाई हैं .....पिता समान ही हैं ......इनका भी आदर पिता के समान ही करना ।
अब बारी थी लंकापति विभीषण के पुत्र और पुत्रियों की ।
और स्वयं महाराज विभीषण भी खड़े थे ।
मैं तो आपको छोड़कर कहीं जानें वाली नही हूँ रामप्रिया ! ....त्रिजटा बड़े ठसक से बोली थी..........
पर मैने तो तुंम्हारे लिये ये हार मंगवाया था ............तो रामप्रिया ! ये हार किसी और को दे दो ........मैं नही लुंगी ..........।
पर त्रिजटा ! मैं कुछ बोलनें जा रही थी पर .......
"आपको पता है ना रामप्रिया ! मैं जिद्दी हूँ"
त्रिजटा की बातें सभा में सबनें सुन ली थीं ..............मैने ही कहा .....नाथ ! ये यहीं रहेगी ! मेरे श्रीराम मुस्कुराये और उन्होंने स्वीकृति दे दी ...........त्रिजटा उछल पड़ी थी ख़ुशी के मारे ।
आपका पुत्र "मत्तगयन्द" कहाँ है विभीषण जी !
वो अयोध्या नही छोड़ेगा ..............मेरे ये दोनों पुत्र और पुत्री को आपही सम्भालिये नाथ ! विभीषण नें हाथ जोड़कर प्रार्थना की ।
कुछ देर विचार कर ........मेरे श्रीराम नें कहा ........अयोध्या धाम का मैं तुम्हारे पुत्र "मत्तगयन्द" को कोतवाल बनाता हूँ ...........।
विभीषण के नेत्रों से अश्रु गिरनें लगे .......मैं धन्य हो गया नाथ !
आपको क्या दूँ मैं मित्र विभीषण ! माँगिये ना आप ?
मुझे तो आप ! चुप हो गए विभीषण ।
बोलिये ना ! आपको क्या चाहिये ? मेरे श्रीराम नें फिर पूछा ।
नाथ ! आपके जो कुलपूज्य हैं श्रीरंग नाथ भगवान ..............मुझे इनका विग्रह चाहिये .................
सब स्तब्ध होगये थे विभीषण की बातें सुनकर .......।
कोई कुलदेवता का विग्रह कैसे दे सकता है ?
पर मेरे श्रीराम अद्भुत हैं ..............उन्होंने कहा ..........आपकी लंका में सात्विक देवता का विग्रह नही हैं ना ! और कोई मन्दिर भी नही है !
नही है नाथ ! नही है ......एक भी "हरिमन्दिर" नही है ........हाँ भैरव के मन्दिर हैं ......महाकाली के मन्दिर हैं .....भूत पिशाच के मन्दिर हैं .....पर सात्विक देव श्रीहरि का एक भी मन्दिर नही है ।
तो आप ले जाएँ श्रीरंगनाथ भगवान के इस विग्रह को ।
कितनी सहजता से दे दिया था मेरे श्रीराम नें श्रीरंगनाथ भगवान का विग्रह ।
नेत्रों से अश्रु झरनें लगे थे विभीषण के .......सरजू में स्नान किया .......फिर विग्रह को हाथ में लेकर बोले - मैं स्वयं गरुण बनूंगा नाथ ! और मैं इन्हें पीठ में बिठाकर , उड़कर , इन्हें लंका ले जाऊँगा ।
मेरे श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके विभीषण श्रीरंगनाथ भगवान की मूर्ति लेकर उड़ चले थे ।
कावेरी नदी के पास ही रुके विभीषण........सायंकाल का समय हो गया था.......पूजित विग्रह साक्षात् चिन्मय होते हैं .........सच्चिदानन्दघन ही होते हैं ...........नियम ये है कि उनकी जो ....जिस समय सेवा होती है उसी समय वो सेवा होनी चाहिये ........इस बात को विभीषण अच्छे से समझते हैं ।
मेरे श्रीराम नें तो गरूण जी का आव्हान कर दूसरा विग्रह "श्री रंगनाथ भगवान का" वैकुण्ठ से मंगवा लिया था ।
पर इधर कावेरी नदी के पास .....रुके हैं विभीषण ....सायंकाल का समय हो गया है .......अब श्रीविग्रह को भोग लगाकर आरती करना आवश्यक है .........ऐसा विचार कर वहीं पवित्र स्थान पर श्रीरंग नाथ भगवान को विराजमान कर ........स्नान करनें चले गए विभीषण ।
जब आये ........तब भोग लगाया ......आरती की .............
फिर उठानें लगे तब श्रीरंगनाथ का विग्रह उठा नही ।
पूरी ताकत लगा दी विभीषण नें .......पर वो विग्रह नही उठा ।
"मैं अपनें प्राण त्याग दूँगा"...........विभीषण बिलख उठे ।
नही विभीषण ! तुम भक्त हो....इसलिये तो मैं तुम्हारे साथ चला आया !
आहा ! कितनी मधुर आवाज थी......अमृत के समान ।
अब मुझे ले जानें की जिद्द मत करो विभीषण !
मुझे यही रहनें दो ........सामनें लंका है .......मैं यहीं से तुम्हारी लंका को देखता रहूंगा ......और तुम नित्य आजाया करो ना यहाँ ।
सागर को पार करके ही तो आना है ना .......तुम्हारे लिये कौन सी बड़ी बात है .........।
बस इतनी ही आवाज आयी उस विग्रह से ..........
विभीषण नें साष्टांग प्रणाम किया ..................वहीं पर राक्षसों से एक मन्दिर बना दिया ........फिर धीरे धीरे तो एक विशाल मन्दिर बन ही गया ...........श्रीरंग नाथ भगवान का ।
** पर यहाँ अयोध्या में एक विचित्र घटना घटी........मैं उसे कल लिखूंगी........पर एक बात कह दूँ......मेरे श्रीराम नें विभीषण के पुत्र "मत्त गयंद" को अयोध्या का कोतवाल बनाया.....तो मैने भी विभीषण की पुत्री त्रिजटा को अपनें जनकपुर का कोतवाल बनाया ।
आपको पता है ना ! तीर्थ में कोतवाल के दर्शन किये बगैर तीर्थ का पूरा फल नही मिलता ।
( साधकों ! ये कथा आपनें सुनी होगी ....काशी में गो. श्रीतुलसीदास को एक रोग हो गया था .........कई दिनों तक रहा ....औषधि से भी नही गया ......तब किसी नें उन्हें कहा था काशी के कोतवाल "भैरव" का दर्शन किया ? तब उन्होंने दर्शन किया ........और रोग मुक्त हुए थे .....ये सत्य घटना है ........हर तीर्थ के अपनें कोतवाल होते हैं .......और तीर्थयात्री को उनके दर्शन करनें ही चाहिए..........नही कर सकें तो अपनी साधना , जप, तप, या दान का कुछ हिस्सा संकल्प करके उनको दे देना चाहिये । हमारे वृन्दावन के कोतवाल हैं गोपेश्वर महादेव )
शेष चरित्र कल ......
Harisharan
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