आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 150 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
एक दिव्य रत्न जटित सिंहासन अंतरिक्ष से उतरा .........
आकाश से सुमन वर्षा होनें लगी थी....देवता जयजयकार कर उठे थे ।
गन्धर्व बजानें और गानें में मग्न थे .............
श्रीराजाराम की जयजय जय ........
श्रीराघवेंद्र सरकार की जयजय जय.....
श्रीरघुवंश मणि श्रीरामभद्र की जय जय जय .......
दशकन्धर रावनारि श्रीरघुनाथ जी की जय जयजय ......
श्रीसीतापति राजराजेंद्र श्रीरामचन्द्र जी की जय जय जय .......
इस प्रकार नभ और थल से जयघोष चलता ही रहा ...........
और ये बात तब की है जब मेरे श्रीराम सिंहासन में विराजे और वाम भाग में मैं बैठी थी .........हमारा राज्याभिषेक हुआ था ।
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गुरुदेव ! ये भरत आपके चरणों में आज उपस्थित हुआ है ........मेरी एक प्रार्थना है आप अवश्य स्वीकार करेंगें ।
भरत को प्रणिपात होते हुये जब गुरु वशिष्ठ् जी नें देखा ......तब भाव विभोर होते हुये उठा कर अपनें हृदय से लगा लिया था ।
भरत ! क्या कहनें आये हो ?
गुरुदेव ! मुहूर्त शीघ्र निकालिये ना ! मेरे श्रीराम इस अयोध्या के सिंहासन में विराजमान हो जाएँ .......वो मुहूर्त !
बहुत प्रसन्न हुए थे गुरु वशिष्ठ जी ............और दूसरे ही दिन का मुहूर्त निकाल दिया ..............शुभ कार्य में बिलम्ब क्यों ?
पर ..........कुछ सोच में पड़ गए थे गुरुदेव ।
अब क्या सोच ? अब कैसी सोच ?
भरत ! सातों समुद्र का जल कल तक ही कैसे मिल पायेगा ?
और इतना ही नही......भारतवर्ष की समस्त पवित्र सरिताओं का जल..........भरत ! तुम्हारे अश्वारोही इतनी शीघ्रता ये व्यवस्था नही कर सकते ।
तभी सुग्रीव और हनुमान उधर ही दिखाई दिए भरत को ।
गुरुदेव ! ये हैं श्री हनुमान जी !
.......प्रसन्नता से अपनें पास बुलाया हनुमान को भरत भैया नें ।
हनुमान जी ! एक काम करना है ............और ये काम सिर्फ तुम ही कर सकते हो.........भरत भैया नें कहा था हनुमान से ।
आज्ञा करें भैया आप ! हनुमान नें आज्ञा सुननी चाही ।
सातों समुद्र का जल .....और समस्त पवित्र नदियों का जल ..........ये कल ही ब्रह्ममुहूर्त की वेला में - हमें चाहिये ।
भरत भैया ! क्या कल ही राज्याभिषेक है हमारे स्वामी का ?
हनुमान नें उछलते हुये पूछा ।
हाँ हनुमान जी ! कल ही मुहूर्त है इसलिये कल ही होंगें हमारी अयोध्या के राजा - श्रीराम ।
आप चिन्ता न करें भरत भैया !.....मैं अभी घड़ी भर में ही, सातों समुद्र का जल और सरिताओं का जल भी ..... लेकर उपस्थित होता हूँ ........
आनन्दित होते हुये......हनुमान उड़ चले थे पवित्र जल लानें के लिये ।
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कौन नही आया था मेरे श्रीराम के राज्याभिषेक में ..............
समस्त पृथ्वी के शासक उपहार लेकर उपस्थित थे ............
देवराज इन्द्र स्वयं अपनी महारानी शची के साथ सफेद एहरावत हाथी में बैठ कर पधारे थे ।
सरजू के किनारे आगत नरेशों के लिये नई अयोध्या पुरी ही बसा दी गयी थी ...........दूर दूर से कलाकार आये थे .........उन्होंने आकर सम्पूर्ण अयोध्या को ऐसे सजाया था कि देवराज भी चकित थे ।
ऋषि मुनि - जो किसी सांसारिक व्यवहार में उपस्थित न होनें वाले भी, इस "श्रीरामराज्याभिषेक" में उपस्थित थे ....अपनें शिष्यों के साथ ।
और हाँ ये ऋषि मुनि भी उपहार लाये थे... ...मोर के पंख ........गज मुक्ता.......कस्तूरी .......सुकोमल मृगचर्म ......व्याघ्रम्बर...... शुद्ध मधु ........ये उपहार थे ऋषि मुनियों के ।
मेरे पिता श्रीजनक जी - एक अद्भुत मणि लाये थे .....जो उन्हें महादेव भगवान शंकर नें प्रदान किया था ........उसे एक अत्यन्त सुन्दर स्फटिक की माला जो माता सरस्वती नें उन्हें दिया था.......उसमें उस अद्भुत मणि को लगाकर तैयार करके लाये थे.....लानें के लिये तो वो हजारों बैल गाडीयों में सुवर्ण, मणि माणिक्य......क्या क्या नही लाये थे !
अयोध्या को भर दिया था मणि माणिक्य से मेरे पिता जी नें ।
भारत वर्ष के व्यापारी भी आये थे.........अन्य द्वीपों से भी व्यापारियों को बुलाया गया था.......वो सब काले कान वाले घोड़े ....और सफेद कान वाले हाथी......और दुर्लभ दुर्लभ पक्षी जो मनुष्यों की भाषा बोलते थे .......ऐसे हजारों की संख्या में उपहार स्वरूप लेकर आये थे ।
शत्रुघ्न कुमार सबकी व्यवस्था में लगे थे......सबको आवास देना और भोजन की समुचित व्यवस्था करना ........शत्रुघ्न कुमार नें अच्छे से निभाया था ये सब ।
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दिव्य सुवर्ण के आसन में बिठाकर हम दोनों का ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कराया गया ........औषधि युक्त जल से .......सप्त सागर के जल से .....पवित्र नदियों .....गंगा ,यमुना गोमती , गोदावरी , गण्डकी इत्यादि के जल से हमारा स्नान हुआ ............।
उस समय जयजयकार हो रहा था ..............शंख ध्वनि कर रहे थे देववृन्द ................अप्सरायें नृत्य कर रही थीं ..........
पृथ्वी के कलाकार आलाप ले रहे थे ...................
मैं देख रही थी ........बीच बीच में मेरा भाई लक्ष्मी निधि उठता था और सुवर्ण के मोहरें लेकर कलाकारों को लुटा देता था ।
पुण्यस्नान के बाद - देवांगनाओं नें और अयोध्या की वृद्धाओं नें मुझे वस्त्र पहनाये .........आभूषण तो मुझे त्रिजटा नें ही पहनाये थे ........वो कुछ मालायें लाई थी ......जो उसके लंका के राजकोष में अत्यन्त बहुमूल्य थे ...........उसनें वो पहनाये ।
केशसज्जा की रम्भा और उर्वशी अप्सराओं नें मिलकर ...........
फिर भी त्रिजटा को ये सज्जा पसन्द नही आई थी ।
सुगन्धित इत्र लगाया गया था...........और फूलों की माला ।
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मेरे श्रीराम को सुन्दर वस्त्र पहनाये थे विभीषण नें .......
अंगराग लगाया था वानरराज सुग्रीव नें ............
हनुमान तो आनन्दित होकर देह भान भूल बैठे थे ।
मेरे श्रीराम के घुँघराले केशों को सुगन्धित तैल से सजाया गया था.....
आहा ! कितनें सुन्दर लग रहे थे मेरे श्रीराम ...........मोतियों की माला .......मणि माणिक्य की माला ........ये सब मेरे भाई लक्ष्मी निधि नें ही आकर पहनाया ......और सिंहासन में विराजमान किया ।
मुझे भी सखियाँ लेकर आईँ .........और श्रीराम के वाम भाग बैठाया ...........मैं आज बहुत प्रसन्न थी .............मेरे श्रीराम मन्द मन्द मुस्कुरा रहे थे ..............चारों ओर आनन्द ही आनन्द था ।
तभी शंख ध्वनि हुयी ...........गुरुवशिष्ठ जी पधारे उन्होंने आँखें बन्दकर मन्त्रोच्चार किया ...............फिर वो दिव्य रघुवंश का मुकुट गुरु वशिष्ठ जी के हाथों में दिया गया था ..........और गुरु वशिष्ठ जी नें उन मुकुट को ..........मुख्य मुकुट मेरे श्रीराम में मस्तक में और दूसरा मुकुट मेरे मस्तक में धारण कराया ।
चारों ओर लोग बैठे हैं ............भीड़ ज्यादा ही है .........और आज की इस सभा में कौन नही है ..........देवराज इन्द्र से लेकर ....साधारण पृथ्वी का एक राजा भी है ..........ओह ! ये तो विधाता ब्रह्मा हैं .........मेरे श्रीराम नें हाथ जोड़े ......वो हँस में बैठकर अपनी पत्नी सावित्री के साथ पधारे थे ..........गुरु वशिष्ठ जी नें प्रणाम किया ...........उन्हें एक उच्च आसन में बिठाया ....।
ब्रह्मा जी नें सस्वर वेद का पाठ किया ....और आशीर्वाद देनें लगे थे ।
मैं देखती रही .........भवानी पार्वती के साथ भूतभावन भगवान शंकर भी पधारे थे ...........उन्होनें तो नमन करते हुये हमारी स्तुति की ....और फिर हमें आशीर्वाद देते हुये विराजमान हो गए ।
शत्रुघ्न कुमार पीछे आये .......और श्वेत छत्र धारण किया ........ये छत्र विश्वकर्मा नें महाराज रघु के लिये बनाकर दिया था.......उसी छत्र को शत्रुघ्न कुमार - पीछे खड़े होकर पकड़े हुये हैं ।
विभीषण और सुग्रीव नें चँवर लिया ............भरत भैया वीजन ( पँखा) हाथ में लेकर लगा रहे थे ........पर मेरे श्रीराम नें रोक दिया .......और अपनें पास के सिंहासन में .....जो युवराज का सिंहासन है ....उसमें बिठाया........भरत भैया बड़े संकोच के साथ उसमें बैठे थे ।
सारी सभा नें तालियाँ तब बजाई .......जब हनुमान सीधे मेरे और श्रीराम के चरण पकड़ कर वहीं आगे ही बैठ गए .........।
लक्ष्मण पीछे पँखा लेकर खड़े हैं .........और बड़े आनन्दित है ।
तभी - गुरु वशिष्ठ जी फिर आगे आये .........उनके साथ 108 ब्राह्मण थे .......जो सस्वर वेद पाठ कर रहे थे......गुरु वशिष्ठ जी नें मणि माणिक्य से सजी थाल मंगवाई.......वो थाल भी बड़े कलात्मक ढंग से सजी हुयी थी ........उसमें रोली, कुमकुम , अबीर, केशर और अक्षत...।
वैदिक मन्त्रोच्चार हो ही रहा था ...........तभी मेरे श्रीराम के मस्तक में तिलक किया गुरु वशिष्ठ जी नें .........सबनें जयजयकार किया ........फिर राजदण्ड के रूप में गुरुदेव नें मेरे श्रीराम के हाथ में मणिमय रघुकुल की परम्परा से आनें वाला राजदण्ड भी दिया ......ये राजदण्ड मणिमय रत्नों से सजा हुआ था .......जिसे मेरे श्रीराम नें अपनें दक्षिण हाथ में धारण किया ।
आशीर्वाद दिया गुरु वशिष्ठ जी नें .......अक्षत , मेरे और मेरे श्रीराम के मस्तक में वैदिक मन्त्रोच्चार करते हुये छोड़ा था गुरुदेव नें ही ।
बस उसी समय अप्सराओं नें नृत्य करना आरम्भ कर दिया .......गन्धर्वों नें गाना और बजाना शुरू कर दिया था .................
बाकी जो प्रजा थी वो तो जयजयकार में ही मग्न थी ।
बोलो ..........राजा श्रीराम चन्द्र की जय जय जय .........
अयोध्यानाथ श्रीराघवेंद्र सरकार की .....जय जय जय जय .......
त्रिजटा मुझे सिंहासन में बैठा देख भावावेश में आगयी थी .........
वो नाचती रही .........सबके सामनें नाचती रही ...........उसको देखकर कुछ लोग हँस रहे थे ......पर त्रिजटा को इससे मतलब नही था ......वो ऐसा नाची ......कि रम्भा नें नाचना बन्द कर दिया ........अप्सराओं नें नाचना छोड़ दिया ............पर वो नाचती रही ...........और बाद में वो गिरी तो मेरे ही पांवों में .................................
"महारानी सिया सुकुमारी की ......जय जय जय जय "
ये जयजयकारा त्रिजटा ही लगा रही थी ..........और पूरे जोश में लगा रही थी ........।
शेष चरित्र कल ............
Harisharan
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