वैदेही की आत्मकथा - भाग 149

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 149 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

स्वयं माताओं नें खड़े होकर  स्नान कराया ............मेरे श्रीराम की जटायें सुलझाईं ............साथ साथ  आग्रह करके  भरत और लक्ष्मण के  भी ..........मुझे तो   मेरी बहनों नें   उबटन लगाकर  इतनें प्रेम से नहलाया  मैं गदगद् हो उठी थी .............फिर   वही छोटी  श्रुतकीर्ति जिद्द करनें लगी  थी ......जीजी !  को मैं सजाऊँगी  ।

अच्छा कीर्ति !    तेरी ही जीजी हैं ये ........हमारी तो कुछ हैं ही नहीं  !

उर्मिला माण्डवी नें  कीर्ति को कहा तो ......पर कीर्ति सुननें वाली थी ?

अपनें महल में ले गयी  और   सुन्दर भव्य आईने के सामनें मुझे बिठा दिया था  .....ये श्रुतकीर्ति का श्रृंगार कक्ष था    ।

आप लोग तपश्विनी हो सब .........बस मैं  और मेरे आर्यपुत्र   हम दोनों ही तो राज सुख भोगते रहे हैं  .....श्रुतकीर्ति नें  भोलेपन से कहा ।

ज्यादा बातें मत बना.....नही तो थप्पड़ खायेगी......उर्मिला स्नेह से बोल रही थी ।......ऐसे मत बोल उर्मि !      हम सबकी लाड़ली है ये कीर्ति  ।

मैने भी सहजता में कहा   ।

जीजी !  ये कीर्ति  पता है कितनी दुष्ट है ................उर्मिला आगे आकर बोली ।.........जीजी !  इनकी बातें तो  बिलकुल मत सुनना ।

और सबसे बड़ी तपस्या तो उर्मिला जीजी नें की है..........श्रुतकीर्ति नें   अपनी बात रखी ।

पर  सच्ची तपस्विनी तो तुम हो  छोटी  !      माण्डवी नें आगे बढ़कर  कीर्ति के सिर में हाथ रखते हुये कहा था ।

मैं तो खाती रहती थी  ............हाँ  जीजी !   मैं तो खूब खाती और हँसती रहती थी ......श्रुतकीर्ति नें कहा   ।

हम जानती है  तू बहुत बड़ी नाटक वाज है ..........सबको दिखानें के लिये हँसती थी ............और जब  रात हो जाती  तब   !

माण्डवी रो पडीं ...............ये  अपनें कक्ष में जाकर  कपाट लगाकर  हिलकियों से रोती थी...........माण्डवी नें कहा  ।

उर्मिला नें  कहा .........जीजी !   इसको कहो ये अपना  कक्ष तो दिखाए .........दिखाउंगी !     पर  अभी क्यों ?   श्रुतकीर्ति नें कहा  ।

चलो !   मैं  कीर्ति के कक्ष में ही बैठूंगी ..............मैं उठी .......मैं देखना चाहती थी ........कीर्ति का कक्ष ............श्रुतकीर्ति का   ।

पर ......अभी क्यों ?    इतनी जल्दी ?   जीजी ! तुम भी इन लोगों की बातों में आगयीं   ?

वो छोटी बोलती रही.....पर   हम सब उसके कक्ष की ओर बढ़ गयी थीं ।

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ये क्या है  !       जैसे ही  श्रुतकीर्ति के कक्ष  का दरवाजा खोला ..........उस महल को देखते ही  मेरे नयन बह चले थे ...........साथ में उर्मिला और माण्डवी -  ये भी रो गयीं ।

जीजी !   कुछ भी तो नही है  !   कीर्ति  बनावटी हँसी हँस रही थी .....।

ये दीवारों में लगे धब्बे  ?        मैं पास में गयी  थी   और दीवारों में  जगह जगह लाल धब्बे थे  मैं  उन्हें  गौर से देख रही थी  और पूछ रही थी ।

तू बताएगी  छोटी !   की हम बतायें !...............सिर झुकाकर रो पड़ी थी बेचारी  श्रुतकीर्ति  ।

मैं बताती हूँ ...........उर्मिला नें बताना शुरू किया  ।

रात जब हो जाती थी  तब   इसके महल से  रोनें की आवाज आती .......पर वो आवाज बहुत  धीमी  होती  ।

एक दिन  मैने माण्डवी जीजी से कहा ................तब हम लोग  महल के रन्ध्र से देखनें लगीं ..................

ये छोटी ,   हिलकियों से रो रही थी ...........  "जीजी   हम सबको छोड़कर क्यों चलीं गयीं तुम !        चौदह वर्ष  कैसे बीतेंगे  ?

और इतना ही नही ........ये रोते हुये  दीवारों में अपना सिर मारती थी ..........हमनें देखा   रक्त निकलता था  इस के मस्तक से ....ये जो लाल लाल  धब्बे देख रही हैं ना  आप  ......ये इस छोटी के मस्तक के रक्त हैं .....उर्मिला की बातें  सुनते ही ......कीर्ति मेरे पास  दौड़ी.......जीजी !        मेरे हृदय से लग गई  और  फूटफूट कर रोनें लगी थी    ।

जीजी !   तुम्हारे बिना ये अयोध्या मसान लगता था ..........जीजी !   मुझे  कभी कभी ऐसा लगता -   कि मैं  मर क्यों न जाऊँ  ! 

पर मैं जब अपनें प्राणनाथ  को देखती ..........तब मुझे  मरनें की सोच छोड़नी पड़ती .............

आर्य श्रीराघवेंद्र  वन में ......उनके साथ  भैया लक्ष्मण भी वन में ......और  भरत भैया  नन्दीग्राम में ...........रह गए मेरे प्राणनाथ !

वो भीतर ही भीतर घुटते थे..........वो अकेले में रोते थे  मैने उन्हें कई बार देखा है........वो किसी को अपनें आँसू दिखाते नही थे  जीजी !  ।

एक बार  वो हिलकियों से रो रहे थे .......अर्धरात्रि की बेला थी .......मैने उन्हें देख लिया ........मैं उनके  सामनें खड़ी हो गयी थी .....।

जीजी !  तब वो   मेरे गले से लगकर रोये ..........बहुत रोये थे .....मुझे कहते रहे  कीर्ति !  मैं क्या करूँ !     मेरे आधार एक मात्र भरत भैया थे ......पर उन्होंने भी  नन्दीग्राम में रहनें का संकल्प ले लिया  ।

श्रुतकीर्ति बहुत रोई .............उसके अंदर जो भी  चौदह वर्षों का गुबार था    वो सब  आँखों से बाहर आगया था ।

सच बताओ अब  छोटी !   तपस्या तेरी बड़ी है कि हमारी ? ......उर्मिला  कुछ देर में बोली .......जब  सहज वातावरण हुआ तब  बोली ।

नही ........जीजी !  नही ....तप  तो माण्डवी और उर्मिला जीजी नें ही की  है .......मैं तो बस  उछलती कूदती रहती  थी  ।

अच्छा !   कीर्ति !    बता   इस कक्ष   को  रंगों से पुतवा ले .....या  तुड़वाकर  दूसरा  सुन्दर कक्ष  बना ले ....?     मैने ही  श्रुतकीर्ति से कहा था .....क्यों की   वहाँ रखी सामग्रियाँ और वो  रक्त के धब्बे  .......मुझे अच्छे नही लग रहे थे  ।

नही  जीजी !     ऐसा मत करना .............कीर्ति बोली  ।

इस कक्ष को मैं     संग्रहालय के रूप में बनाउंगी  ..............

देखो !   उर्मिला जीजी नें भी  कई चित्र बनाये थे सब मुझे दे दिए हैं .......

उनको यहाँ लगाउंगी .............मुझे  दीवार दिखा रही थी कीर्ति ।

और ये  चक्रवर्ती महाराज के पोशाक हैं .........कीर्ति नें मुझे दिखाए  ।

ये तुझे किसनें दिए ?    मैने पूछा  ।

चहकते हुए बोली श्रुतकीर्ति .............मुझे माँ कौशल्या जी नें दिए हैं ।

जीजी !  मैने  संग्रहालय के लिए सामग्रीयाँ  जोड़नी  शुरू कर दी है  ।

इस तरफ महाराज के पोशाक...उनकी तलवारें...उनके भाले ...कवच ।

और इस तरफ !  .......फिर कीर्ति मुझ से मचलनें लगी .......जीजी !  आपको मेरी सहायता करनी पड़ेगी  ।

क्या  ?       क्या चाहिये तुझे मुझ से ..............मैने पूछा ।

आर्य श्रीराघवेंद्र के बल्कल वस्त्र .......और  ये देखो !      मुठ्ठी में कुछ बाल थे कीर्ति के......ये  जटाओं के बाल हैं......आर्य श्रीराघवेन्द्र की जटाओं के बाल .......अभी  स्नान हो रहा था ना .........तब जटाओं को सुलझाते समय कुछ बाल गिर गए थे ......मैं इन्हें भी रखूंगी ।

मैने कहा ......तू पागल है क्या ?     ये सब भी कोई रखता है भला !

मुझे अब हँसी आरही थी  ।

जीजी !  ऐसा भी तो किसी कुल में नही होता !........कि राज्याभिषेक की बेला में  वनवास भेज दिया जाए.......और उन घुँघराले केशों को जटाओं में बदल दिया जाए !.......अश्रु गिर रहे थे कीर्ति के  ।

और हाँ .....माण्डवी जीजी !   भरत भैया के वस्त्र भी मुझे चाहिये .........नन्दीग्राम में रहते समय जो बल्कल वो पहनते थे ।

आपके वस्त्र भी  जीजी !    मुझ से बोली  कीर्ति ।

मैने कहा ....कीर्ति !    मेरे पास  वनवासी वस्त्र कहाँ हैं  ? 

मुझे तो  आगे बढ़नें पर.....महान पतिव्रता अनुसुइया जी नें नवीन वस्त्र और आभूषण पहना दिए थे.........फिर लंका में रही ..........

जीजी !  लंका के वस्त्र  ?       

मैने कहा ....कीर्ति !  लंका से जब मैं  आर्य के पास आरही थी  तब  मेरा राक्षसियों नें श्रृंगार किया    ........................

तो जीजी के पास इस संग्रहालय में रखनें के लिये कुछ नही है  !

कीर्ति ने सबको सुनाते हुये कहा  ।

ये कौन है  जो हमारी बातें सुन रहा है ? .......उर्मिला नें   देखा    कपाट के रन्ध्र से  कोई झाँक रहा था  ।

कौन है  बाहर  ?   माण्डवी  चिल्लाई  ।

कौन हो तुम ?          और यहाँ तक  कैसे आईँ  ? 

उर्मिला नें  दरवाजा खोलते हुये पूछा था ।

मेरा ध्यान  अपनी बहनों की ओर था......।

जीजी !  ये  ?        उर्मिला  नें मुझे दिखाया  ।

ओह !  ये त्रिजटा है .....मेरी सखी  !        मैने आगे बढ़कर त्रिजटा को भीतर बुलाया ..........वो आयी  ।

ये है  मेरी लंका की सखी त्रिजटा........मैने सबसे उसका परिचय कराया......और त्रिजटा !  ये हैं  मेरी  बहनें .......इसका नाम  उर्मिला , उसका माण्डवी ....और ये मेरी  सबसे छोटी प्यारी बहन  श्रुतकीर्ति  ।

रामप्रिया !     तुम्हारे बिना मेरा मन नही लगता अब...........मैं चिड़चिड़ी होनें लग जाती हूँ .......पता नही क्यों  ।

महामन्त्री सुमन्त्र जी  तुरन्त  महल में आये......क्षमा कीजियेगा ....पर  एक बात कहनें आया हूँ......मैं चौंक गयी थी   महामन्त्री जी क्यों आये ?    

ये  ?       त्रिजटा की ओर देखते हुये   महामन्त्री नें  मुझ से  पूछा ।

ये मेरी सखी....लंका की सखी त्रिजटा  ....मैने त्रिजटा का हाथ पकड़ा ।

पर आज के बाद ऐसा मत करना  आप  ?     

त्रिजटा को चेतावनी दे दी थी महामन्त्री नें ...........।

पर क्या किया  ?     मैने त्रिजटा की ओर देखा  ।

एक छोटा बालक था  ......ये  उसको कह रही थी  मैं  तुझे खाऊँगी ......मुझे भूख लग रही है .......और वो बालक डरकर मूर्छित हो गया ।

क्या !         मैं चौंकी ..........मैने त्रिजटा की ओर देखा  ।

वो  भावहीन चेहरे से  बोली ..........रामप्रिया !  मैने कहा ना ......मुझे तुम्हारी  आदत लग गयी है ........तुम  मुझे नही  मिलती हो  तो मैं चिड़चिड़ी हो जाती हूँ .......।

महामन्त्री को मैने भेज दिया था ...........पर मैं त्रिजटा को देखती रही ......ये इसे  क्या हो गया है  ?      फिर  मैने समझा ..........इसे मेरी आदत लग गयी थी   लंका में ..........पर   !     

फिर उस बात को छोड़ दिया मैने ।

अच्छा !  आपके संग्रहालय के लिये मैं रावण की  तलवार दे सकती हूँ ।

त्रिजटा नें  कीर्ति से कहा  ।

श्रुतकीर्ति नें तुरंत कह दिया .......उस दुष्ट  रावण की कोई भी  वस्तु  हम कैसे रख सकते हैं  अपनी अयोध्या में  !  

हाँ  बात सही है   रावण की वस्तु क्यों रखी जाए  रघुकुल के संग्रहालय में..........त्रिजटा  नें  कीर्ति की बात का आदर ही किया  ।

पर मैं त्रिजटा को लेकर सशंकित रहनें लगी थी  ।

मेरा श्रृंगार करती रहीं   मेरी बहनें.........त्रिजटा वहीँ बैठी रही  गुमसुम सी ......हाँ मैने त्रिजटा से   कहा ........केश का जूड़ा त्रिजटा!   तुम अच्छा बनाती हो ......बना दो तो  !     तब  बहुत खुश हुयी थी त्रिजटा .....और  पूरी तन्मयता से मेरा जूड़ा बनाया था   त्रिजटा नें  ।

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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