वैदेही की आत्मकथा - भाग 148

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 148 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

भरत !     तुम ऐसे कैसे हो सकते हो ? 

इतनी कठोरता  ?      ये तुम्हारी जननी हैं  भाई  !

मेरे श्रीराम  भरत की ओर देखकर बोले जा रहे थे  ।

तुमनें चौदह वर्षों में एक बार "माँ" नही कहा  ?     

हाँ नही कहा ..........नाथ  !  नही कहा मैने  कैकेई को माँ  !

भरत भैया !  ऐसे बोलेंगें  किसी नें सोचा भी नही था ............

मैने देखा बेचारी कैकेई माँ  सुबुक रही थीं   ।

इनका मेरे प्रति वात्सल्य का उमड़ना,   मेरे लिये  और मेरी अयोध्या के लिये शुभ नही है.........ये बात तो  सबको मान्य ही है ........क्यों की सबके सामनें  परिणाम है   देखो !   कैकेई का वात्सल्य मेरे प्रति उमड़ा  तो चौदह वर्ष के लिये अनाथ ही हो गयी  थी ये अयोध्या ।

भरत  सबके सामनें बोल रहे थे  ।

नही कहा  मैने इन्हें  माँ..........क्यों की नाथ !  पहले कहता था -  माँ ....माँ ...माँ........क्या हुआ ?    इनका वात्सल्य उमड़ा  और अयोध्या को  अनाथ कर गया ............तब नाथ !  मैने सोचा  अब मैं  कभी इनको माँ नही कहूँगा .........क्यों की  फिर  इनका वात्सल्य उमड़ पड़ा तो ? 

हे राम !  मैं क्षमा मांगती हूँ तुमसे ................कैकेई का उन्माद फिर उठा ............वत्स राम !    तुम मुझे माँ कहते हो  मेरे लिये इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है  !    और मैं भी    अरे ! जिसे राम  माँ कहे उसे  कोई  और कहे या न कहे  क्या फ़र्क पड़ना चाहिये   !

अब पुत्र राम !   इस माँ की ये इच्छा भी पूरी कर दो ..............कैकेई नें हाथ जोड़े .............इस माँ कैकेई को क्षमा करते हुए   तुम अयोध्या के सिंहासन में विराजमान हो जाओ ...............

भरत भैया नें जैसे ही ये सुना ................इस बात से प्रसन्नता हुयी भरत भैया को .............उनका मुख मण्डल खिल गया था  ।

माँ !    राम सदैव आपका है ............आपका आदेश मैने कभी अस्वीकार नही किया .......फिर आज कैसे कर सकता हूँ ..........किन्तु  राम ये बात नही मान सकता कि ......आपसे कोई गलती हुयी है  .......अरे माँ ! आपनें तो  राम को विश्व् में यशस्वी बनाया है  .............मेरे श्रीराम  माँ कैकेई से  ये सब कह रहे थे  ।

मैनें देखा .........मेरे पिता जी  श्रीविदेहराज जनक खड़े हैं ..........उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे थे.........उनके वाम भाग में  मेरी माँ सुनयना .........मेरा भाई लक्ष्मी निधि........मैं  उनके पास गयी ........मेरे श्रीराम भी आये.......मुझे अपनें हृदय से लगाकर मेरी मैया बहुत रोईं ........मेरे पिता श्रीजनक जी.........वो तो  मुझे अपलक देख रहे थे......मेरे सिर में हाथ फेरते हुये .......मेरे मस्तक  को सूँघा था..........।

माँ !   ये  हैं   मेरे मित्र  वानरराज सुग्रीव !      माताओं को  अपनें मित्र वानरों का परिचय कराया .........और  इन्हें तो आप जानती ही हैं  ?

"मुझे तो माँ नें  खूब मोदक भी खिलाये हैं"......हनुमान नें  चपलता के साथ कहा ...........।

ये न होता तो  पता नही  मेरा पुत्र भरत आज जीवित भी होता कि नही !

हनुमान नें ही तो  तेरे आनें की सुचना दी  मेरे भरत को .......नही तो  भरत  यज्ञ कुण्ड में अग्नि प्रज्वलित करके बैठा था  ।

माँ कौशल्या की बातें सुनकर   मेरे श्रीराम बोले थे ............माँ !  हनुमान नें  तुम्हारे लक्ष्मण को भी बचाया है .........और इतना ही नही ...........मेरी वैदेही का पता लगानें वाले भी यही थे .........

नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे  हनुमान के बारे में बताते हुये  ........माँ !     हम सम्पूर्ण रघुवंशी   भी  चाहे तो भी  इन कपि हनुमान के ऋण  से  उऋण नही हो सकते  .......मेरे श्रीराम ने कहा  ।

गुरुमहाराज !     ये  हैं   मेरे मित्र लंकेश विभीषण ............आगे बुलाकर गुरुवशिष्ठ जी को  परिचय दिया था ............और  ये जामबंत ........।

मुझे याद आयी   त्रिजटा कहाँ है  ?      मैने इधर उधर देखा ......नही मिली .........मैने धीरे से विभीषण जी से पूछा  तो  वो बोले ........त्रिजटा नाराज हो गयी है  !      पर क्यों ?    मैं  कुछ चौंक गयी थीं ।

वो  है ही ऐसी ...........आप परेशान न हों ........वो चाहती है कि उसको  कोई नजरअंदाज न करे ।.........मैं समझ गयी     थी .........मैने   पीछे देखा  तो दूर खड़ी थी   अकेली .........मैने उसे बुलवाया .........अनमने ढंग से आयी .............मैने त्रिजटा का हाथ पकड़ा और  उसका सबसे परिचय करानें लगी थी   ।

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मेरे श्रीराम  सबसे मिल रहे थे.........सबसे ..........एक छोटे से छोटे नागरिक से भी ...........जिसे हृदय से लगाना है उसे  हृदय से लगा रहे थे .......जिससे हाथ मिलाना है   उससे हाथ मिला रहे थे .....जो सन्मान्य हैं  उनके सामनें झुक रहे  थे  ।

फूलों की वर्षा शुरू हो गयी थी.........जयजयकार  हो रहे थे ।

लोग नाच रहे थे ........लोग गा रहे थे .......शहनाईयाँ  बज रहीं थीं  ......

सुन्दर रथ  आया............आगे बढ़कर  मेरे छोटे देवर शत्रुघ्न कुमार  नें   विनती की .........कि अब  नाथ !  चलिये ......नगर वासी भी स्वागत के लिये  उत्सुक हैं   ।

मुस्कुराते हुये  मेरे श्रीराम  रथ में बैठे..........माताओं के लिये  अलग रथ थे ............गुरुओं के लिये अलग रथ  ।

मेरे श्रीराम   रथ में बैठे   तो वाम भाग में  मैं  बैठी ............पीछे  चँवर लिए भरत शत्रुघ्न लक्ष्मण   ये सब थे .......हनुमान तो चरण पकड़ कर  नीचे ही बैठ गए ..........।

त्रिजटा कहाँ है  ?  मैने फिर देखा   जब रथ चलनें लगा था............

भीड़ में दिखाई दी त्रिजटा.........उसके पिता विभीषण  जी अपनें रथ में  बिठा रहे थे .....पर वो मान नही रही थी  ।

मैने त्रिजटा को  आवाज दी........पहले उसनें अनसुनी कर दी .......फिर जब  लोगों नें उसे कहा ......"सिया महारानी आपको बुला रही हैं"......तब मेरी ओर देखा था उसनें......मैने हँसते हुये  उसे बुलाया ....अब वो खुश लग रही थी.....आई  और मेरे बगल में खड़ी हो गयी.....मैने त्रिजटा के मुख को देखा.........अब ठीक है इसका मूड ।    

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नगर द्वार पर हमारा रथ रुका था............बस फिर क्या था  लोगों नें अक्षत दही केशर  अबीर   फूल  ये सब हमारे ऊपर बरसानें शुरू कर दिये थे ..........महामन्त्री सुमन्त्र जी बहुत नाराज हो रहे थे .....लोगों को समझा भी रहे थे ...........कि ज्यादा कुछ मत फेंको  चोट लगेगी ।

पर   लोग   कहाँ मानने वाले थे ............आज चौदह वर्ष बाद तो   लोग  हँस रहे थे ...........अयोध्या मुस्कुराई ही है  चौदह वर्ष बाद  ।

मार्ग फूलों से पटा पड़ा था .........सुगन्धित  इत्र  छींटा गया था ....।

लोगों की  इतनी भीड़ उमड़ रही थी ........कि सम्भालना मुश्किल पड़ रहा था ...........पर मेरे श्रीराम सबको छु रहे थे.......रथ में बैठे मेरे श्रीराम को छूनें के लिये  सब  दौड़ पड़े थे ..........महामन्त्री सुमन्त्र  सबको हटा रहे थे .......पर मेरे श्रीराम  नें किसी को मना नही किया  ।

ये तो  मन्थरा का महल है ना !        मेरे श्रीराम नें पूछा   ।

जी !   महामन्त्री सुमन्त्र नें कहा  ।

हाथ के इशारे से रथ रुकवाया मेरे श्रीराम नें.......रथ रुका  तो उतरे  श्रीराम....उनके उतरते ही  महामन्त्री नें  तुरन्त व्यवस्था सम्भाली....भीड़ को रोक दिया........आश्चर्य !    और मुझे ही आश्चर्य नही हुआ......अयोध्या में इस दृश्य को जिसनें देखा ......"राम तुम धन्य हो"  यही कहा    सबनें  ।

मन्थरा !   द्वार खोलो  !   मेरे श्रीराम नें जाकर द्वार खटखटाया ।

    कैकेई   रो गयी  इस दृश्य को देखते ही ....माँ कौशल्या नें  उसे  उतरनें के लिये कहा  ।

कैकेई भी मन्थरा के महल के द्वार पर खड़ी हो गयी थी ।

मन्थरा !  द्वार खोलो........देखो ! कौन आया है ?   कैकेई नें अब आवाज लगाई  ।

नही .......मुझे  मारनें के लिये अयोध्या की भीड़ आज उमड़ पड़ी है ....मुझे मार देंगें  ये लोग .........मैने बहुत बड़ा अपराध किया है  ।

अरे पागल !  द्वार खोल  देख !  मैं  आई हूँ.........और  देख तो कौन आया है तेरे द्वार पर.......चिल्लाकर बोली थी कैकेई  ।

धीरे से द्वार खोला मन्थरा नें .............तब  उसनें क्या देखा ........आहा !    नीलमणी   राजिव नयन    श्रीराम  ।

राम !   तुम  !        चरणों में गिर गयी मन्थरा ..........और हिलकियों से रो पड़ी थी .......मैं ही हूँ  तुम्हारे अयोध्या को  बर्बाद करनें वाली ।

चौदह वर्ष के लिये  यहाँ के नर नारियों को दुःख के समुद्र में  डुबो देनें वाली   मैं ही हूँ  राम !    मुझे  दण्ड दो ........मुझे मृत्यु दण्ड दो .......

मेरे श्रीराम के बल्कल पकड़ कर  दहाड़ मार कर रो रही थी मन्थरा ।

बड़े प्रेम से  उस मन्थरा को उठाया था मेरे श्रीराम नें ................

नही .............आपका क्या दोष  ?      अपितु  आप अगर  ऐसा नही करती ना !      तो  पृथ्वी का कष्ट कैसे दूर होता ........बेचारे ऋषि मुनि रावण के आतंक से त्राहि त्राहि कर रहे थे .........उनका क्या होता ?

मन्थरा को   आगे लेकर आये मेरे श्रीराम.......प्रजा उमड़ रही थी .......मन्थरा  को सबके सामनें कहा ........आप निर्दोष हैं......और आपको जो दोष देता है.......वो  दोषी  है.....राम तो यही मानता है  ।

मन्थरा  को सबके सामनें प्रणाम करके  मेरे श्रीराम फिर रथ में बैठ गए थे ............।

मुझे अपनी बहनों से मिलना था ..........मुझे जल्दी से जल्दी बहनो के साथ  उनके महल में जाकर खूब बातें करनी थीं  ।

जीजी !        गवाक्ष से  श्रुतकीर्ति चिल्लाई ...........मैने ऊपर की ओर देखा ......तो वो  छोटी........ हाथ हिला रही थी   ।

शेष चरित्र कल .......

Harisharan

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