आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 147 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
पुष्पक विमान नें "भगवती धरा" को छूआ ................
चारों ओर जयजयकार गूँज उठा था .........
पृथ्वी की आवाज मुझे सुनाई दी .........हाँ ........माँ की स्नेहपूर्ण वाणी पुत्री ही तो सुन सकती है..........मेरी माँ हैं ये धरा ।
पुत्री सीता ! आज मैं आनन्दित हूँ ........बहुत आनन्दित ।
मैं चौंक गयी ..........गौ के रूप में विमान के रुकते ही माँ का अधिदैव रूप प्रकट हुआ था ।
मेरे श्रीराम नें भी हाथ जोड़कर प्रणाम किया.........पर गौरूपा मेरी माँ पृथ्वी मुझ से ही बातें कर रही थीं ।
पुत्री सीता ! उस दिन मुझे बड़ा पश्चाताप हुआ था ........अपनें ऊपर ।
कि क्यों गयी थी मैं देवताओं के साथ तुम्हारे धाम.....और मैने ही तो रोकर ये प्रार्थना की थी कि -असुरों से मेरा भार कम करो ! अवतार लो!
उफ़ ! क्या हो जाता मैं चली जाती रसातल..........पर मेरे कारण तुम्हे कितना कष्ट हुआ पुत्री ! मेरे कारण ! मेरी जैसी माँ शायद ही कोई होगी .......तुम्हें रावण के यहाँ कितना कष्ट उठाना पड़ा ना !
मैने गौरूपा माँ धरा को छूआ ..............नही माँ ! आपकी ही पुत्री हूँ ......सहनशीलता आपसे ही प्राप्त किया है मैने ।
इतना कहते हुये मैं माँ धरा के सामनें झुकी ...........तब मेरे माथे को सूँघते हुये पृथ्वी माँ अंतर्ध्यान हो गयी थीं ।
****************************************************
लाखों लोग खड़े हैं ........हाथों में हाथ डाले दो नीलवर्णी ज्योत मेरे श्रीराम और भरत भैया को .....विमान से उतरते लोगों नें देखा .............
सीधे दोनों गुरु वशिष्ठ जी के पास गए .........साष्टांग प्रणाम किया मेरे श्रीराम नें ........फिर लक्ष्मण और भैया भरत नें ।
सजल नयन से गुरुदेव नें मेरे श्रीराम को उठाया था ......और अपनें हृदय से लगा लिया ।
समस्त विप्रों नें वैदिक मन्त्रों के द्वारा आशीर्वाद दिया ।
सामनें माताएँ खड़ी हैं ...............दौड़े मेरे श्रीराम .............माँ !
कौशल्या माँ के चरण छूते हुये मेरे श्रीराम, माँ कैकई के पास पहुँच गए
थे ........और उनके सामनें जाकर साष्टांग लेट गए ।
ऐसे दृश्य देखकर कौन नही भावुक होगा .............सबके नेत्रों से जल बरसनें लगा था ।
उन्मादिनी हो गयी थीं कैकई माँ ...............
कौशल्या जीजी ! मैं जीत गयी ....तुम हार गयी ..............हँसनें लगी थी माँ कैकेई ...............
कैसे तुम जीती बहन ! विनोद करना आज अच्छा लग रहा था ......चतुर्दश वर्षों में पहली बार तो विनोद हो रहा था राजपरिवार में ।
जीजी ! तुमनें मेरे तीन पुत्रों को भले ही अपनें पक्ष में कर लिया हो .......पर राम को नही कर सकीं तुम ......उन्माद में हँसी कैकेई माँ ।
राम को कोई भड़का नही सकता ..देख लो ! कैकेई को सबनें छोड़ दिया पर राम नही छोड़ेगा कैकई को......क्यों की राम ही है पुत्र कैकेई का ।
हाँ हाँ .....बहन ! हम सबको पता है राम तुम्हारा ही है ............माँ कौशल्या नें भी सहजता में बोल दिया ।
हाँ तो मेरी इच्छा अब पूरी होगी....अभी मेरी इच्छा अधूरी रह गयी है ।
कैकई माँ की ये बात ऐसी थी कि सब स्तब्ध रह गए थे ........भरत भैया नें भी क्रोध से देखा था अपनी माँ की ओर ...........।
बस मेरी इतनी ही इच्छा है कि ...........मै राजमाता बनूँ !
और अब ये कैकई राजमाता बनके रहेगी ........मेरा पुत्र राम राजा बनेगा और मुझे राजमाता बनाएगा ...............समझीं जीजी ! कैकेई माँ ये कहते हुये हँसी थीं ।
पर फिर एकाएक रोनें लगीं ............दहाड़ मार मार कर ............
सब लोग देखते रहे थे कि कैकई को अब क्या हुआ ?
मेरे श्रीराम नें आगे बढ़कर कैकेई माँ को सम्भाला .........माँ ! अब क्या हुआ ! अब तो दुःख के बादल छंट गए ना ! अब मत रो माँ !
राम ! ये कैकेई आज तुमसे एक चीज माँग रही है ...........तुम ही दे सकते हो ! दोगे ना राम ! कैकेई माँ नें हाथ जोड़े ।
नही माँ ! अपनें पुत्र के सामनें माँ हाथ नही जोड़ती .......माँगो ! क्या चाहिये माँ ! आपका अधिकार है अधिकार से कहो ! मेरे श्रीराम स्पष्ट बोल रहे थे ।
पुत्र ! इस कैकेई को बस इतना दे दो कि .....'ये मेरा पुत्र भरत मुझे एक बार "माँ" कहे" ।
ये सुनते ही मेरे श्रीराम मुड़े थे भरत की ओर..........उनके नेत्रों से आँसू बह चले थे ......माँ कैकई की ये दशा !
इस भरत नें मुझे चौदह वर्षों से माँ नही कहा........मुझे देखा भी नही है !
कैकई माँ रो रही हैं ।
शेष चरित्र कल ...........
Harisharan
0 Comments