आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 146 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
मेरे बड़े देवर भरत ! मैने देखा .........मेरे नाथ के भी नेत्र उन्हीं को खोज रहे थे उस अपार भीड़ में........जगह तिल रखनें की भी नही थी अयोध्या की भूमि में और आकाश में ......सभी जगह लोग थे ........."श्रीरघुनाथ जी की जय जय जय" आकाश गूँज रहा था ....लोगों का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था........हम सब विमान में बैठे अपलक नीचे दृष्टि किये हुए थे ।
भरत भैया ! उनकी दृष्टि ऊपर थी.........वो हाथ जोड़े ऊपर की ओर विमान को ही देख रहे थे.......विमान नीचे उतर रहा था ।
मैने देखा जैसे जैसे विमान नीचे की ओर जा रहा था ......वैसे ही भरत भैया के पद भी डगमगा रहे थे...भावोन्माद में .......उनके नेत्रों से अश्रु निरन्तर प्रवाहित हो रहे थे ।
मैं अब अपनें श्रीराम को देखनें लगी थी......क्या सोच रहे हैं मेरे श्रीराम ? इस बार मैं उनकी भावस्थिति समझ नही पा रही थी ।
ये करुणावरुणालय अपनों पर न्यौछावर हो जानें के लिये उत्सुक तो थे ही .........पर उसके आगे ? शायद आज तो भगवती सरस्वती भी कुछ न जान पाती कि मेरे श्रीराम के मानस में क्या चल रहा है ?
आज अयोध्या का उल्लास चरम पर था ................
"श्रीराघवेंद्र सरकार की जय जय जय" धरा और गगन गूँज रहा था ।
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आगये - आगये मेरे आराध्य !
भाव की उच्चस्थिति में विराजमान भरत चिल्ला उठे थे ।......ओह ! 14 वर्ष कम तो नही होते .......एक एक पल युगों के समान बिताये थे .........भरत भैया नें ।
पर रुक गए भरतभैया........क्यों ? पीछे जा रहे हैं अब ........भीड़ आगे बढ़ रही है ........पर भरतभैया पीछे क्यों जा रहे हैं ?
मेरे मन का यह प्रश्न वाणी से प्रकट हो गया था ।
मेरे श्रीराम नें सजल नयनों से कहा ..............पागल है मेरा भरत .....सोचनें लगा कि - तू अपनें आपको बहुत बड़ा समझता है.......अरे ! ये करुणावरुणालय प्रभु असंख्य आतुर अयोध्यावासियों के लिये आये हैं .......तेरे लिए मात्र थोड़े ही ।
मेरे श्रीराम ऐसे बोल रहे थे .........जैसे भरत भैया के हृदय की आवाज सुन ली हो मेरे प्रभु नें ..............
और क्या ! ये तो अन्तर्यामी हैं.......घट घट की जानते हैं .....फिर अपनें प्रेमियों के हृदय की बात बता रहे हैं तो आश्चर्य क्या ?
तू किस गणना में है भरत ...........याद रख तेरे कारण ही इन दयानिधि नें अपार कष्ट पाया ......14 वर्षों तक ........और इसके बाद भी तू अपनें आपको बड़ा भक्त कहता है ................
वैदेही ! ये विचारते हुये मेरा भाई भरत पीछे जा रहा है ......
ये कहते हुये अश्रुपात होनें लगे थे मेरे श्रीराम के ...............
अपनों का अपराध देखना कहाँ सीखा है मेरे नाथ नें ..........भरत के भावोन्माद का वर्णन स्वयं मेरे श्रीराम कर रहे थे ।
अतः भरत तू अपराधी है........तेरा सबसे बड़ा अपराध तो कैकई पुत्र होना है.......तू अपनी सीमा समझता है ना ? तो बस पीछे हो जा .....आगे देख गुरुदेव खड़े हैं.....विप्र वृन्द खड़े हैं......देवता खड़े हैं........तू कहाँ जा रहा था आगे आगे ! अपनी सीमा में रह भरत !
ये क्या क्या सोचे जा रहा है मेरा भरत, वैदेही ! .........मेरे श्रीराम तड़फ़ उठे थे भरत को लेकर .............. ।
"विमान भरत के पास चले"....सत्यसंकल्प नें तुरन्त संकल्प किया ।
विमान उधर ही उड़नें लगा ............अत्यन्त मन्द गति से ...........पर भरत भैया भीड़ में खो गए ..........मेरे श्रीराम खोजनें लगे थे .......और श्रीराम ही क्यों मैं भी........उन्हीं को खोज रही थी ।
तभी दीखे .........सिर में पादुका उठाये .............आँखों में अश्रु ........जटाजुट धारी भरत भैया !
मैं एकाएक बोल पड़ी ......नाथ ! भरत भैया वो रहे ।
बस इतना सुनना ही था कि सिंहासन से उठे मेरे श्रीराम .....विमान के द्वार पर वेगपूर्वक बढ़े........और भरत भैया का हाथ पकड़ कर खींच लिया विमान के ही अंदर............
"दोनों गले मिले"..........वल्कल कहाँ गिर गए ........दोनों को पता नही .................बस प्रेमाश्रु बहे जा रहे थे .......भरत भैया की जटाओं को भिगो दिया था मेरे श्रीराम के अश्रुओं नें ।
विमान आरोही की इच्छा को समझता है ......तुरन्त पृथ्वी पर उतर गया था ..........।
श्रीराघवेंद्र सरकार की - जय जय जय .............
सब लोग यही जयकारा लगा रहे थे..........पर यहाँ विमान के अंदर दोनों भाई गले मिल रहे थे .......दोनों अपनें आपको भूल गए थे .........मेरे श्रीराम को ये पता नही लग रहा था कि राम कौन है और भरत को ये पता नही लग रहा था कि भरत कौन है ?
विमान में बैठे हम सब लोग उस भाव समुद्र में डूब गए थे ......ओह !
शेष चरित्र कल .....
Harisharan
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