वैदेही की आत्मकथा - भाग 145

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 145 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

अयोध्या धाम के दर्शन करके  भाव में आगये थे मेरे श्रीराम !

"परिक्रमा लगाओ विमान से  अयोध्याधाम  की"

विमान  मन्द गति से अयोध्या के ऊपर घूमनें लगा था  .........

जन समूह  हमारे विमान को देखकर अट्टालिकाओं में आगये थे ........

ये रहा हमारा महल !     मैं  प्रसन्नता से  चिल्ला उठी ..........सब  नीचे देख रहे थे ............सब  अपनी अपनी बातें कर रहे थे .........।

रामप्रिया !  कौन सा है  आपका महल ?    त्रिजटा ही मेरे प्रति पूर्ण समर्पित थी .............वो मुझे छोड़कर  कहीं देख ही नही सकती ।

वो देख !  त्रिजटा  !    मैं चहक उठी  थी  उसे बताते हुए  ।

वो  महल  है  मेरी  छोटी बहन  उर्मिला का..................

कभी मुझे सीधे देखना पड़ रहा था .....कभी पीछे मुड़कर ......क्यों की हमारा विमान  अयोध्या की परिक्रमा जो लगा रहा था ।

मैने ध्यान से देखा ..........गवाक्ष में  खड़ी थी उर्मिला .......और  वो  हमारी ओर  ऊपर ही देख रही थी  ।

मैने लक्ष्मण को कहा ............लक्ष्मण भैया !   देखो   उर्मिला  ।

लक्ष्मण मुस्कुराये और   उस तरफ  देखा भी  ।

मैने विमान से उठकर  अपना हाथ भी हिलाया ............वो  तो ख़ुशी के मारे   उछल पड़ी थी .................पर ...........

मेरे नेत्र बह चले थे ...........ओह !  इतनी कृश ?       हड्डियों का ढांचा  बन गयी  है मेरी बहन  उर्मिला  !           वो मुझे देखकर  भागी वहाँ से .........और  छोटी माँ  सुमित्रा को बुला लाई थी ............

विमान  बहुत मन्द गति से उड़ रहा था......मेरे श्रीराम सबको    अयोध्या की महिमा गा कर सुना रहे थे .......और सब  नीचे दृष्टि करके   अयोध्या के दर्शन करते हुए  मेरे नाथ की वाणी को सुन रहे थे ।

मैने दूसरे गवाक्ष में देखा ..............माण्डवी !     ये  बड़ी शान्त  गम्भीर मेरी बहन है ............मेरे भैया भरत की  अर्धांगिनी हैं..........

 सुनानें के लिये मुझे विमान में  त्रिजटा ही उपलब्ध थी  ।

क्या दशा बना ली है  मेरी इन बहनों नें ....................

तभी ........छोटी  ,  सबसे छोटी  बहन श्रुतकीर्ति ..............मुझे देखकर  वहीं से चिल्लाई .............जीजी !      जीजी !     

वो श्रुतकीर्ति अपनें आँसू पोंछती जा रही थी .....और चिल्लाये जा रही थी  ।

तभी मैं गम्भीर हो गयी ........माता कौशल्या   और साथ में  ये कौन ?

हाथ पकड़ कर लेकर आरही थीं .........माता कैकेई  ? 

उनसे चला नही जा रहा था ......वो काँप रही थीं ...........पर  सम्भाले थीं उन्हें  माता कौशल्या  .............

सुमन्त्र जी आये  और सबको  लेकर  रथ में  निकल पड़े थे  ।

ये सब  नन्दीग्राम जा रहे हैं.......मेरे श्रीराम नें  मेरी ओर देखकर कहा  । .

हम लोग वहीँ उतरेंगें ..........क्यों की मेरा भाई भरत वहीँ है .........।

भरत का नाम लेते ही  भावुक हो उठते हैं मेरे श्रीराम  !

विमान को  नन्दीग्राम की ओर  मुड़नें के लिये कहा.......मेरे श्रीराम नें ......पर धीरे धीरे ..................।

आकाश की ओर  मेरी दृष्टि गयी ............देवताओं से आच्छादित था आकाश ...............विमानों की भरमार थी ............गन्धर्वो की टोली एक तरफ  नृत्य और संगीत का  गान और नाच दिखा रहे थे ।

त्रिजटा !  देख  कितनें देवता आकाश में हैं ........मेरे श्रीराम के  अयोध्या लौटनें की ख़ुशी में ...........उनके स्वागत में  ।

क्यों न हों   रामप्रिया !      रावण नें इन्हें कम कष्ट नही दिया था ......और रावण को मारना सरल भी नही था ........श्रीराम नें  इनके  उस  कष्ट और दुःख का निवारण किया है .......उसके लिये  ये दो फूल बरसानें के लिये आगये तो क्या बड़ी बात है  !   त्रिजटा  मुँह बनाकर बोली थी ।

ऋषिगण  भी   आकर   मन्त्रोच्चार कर रहे थे .....इतना ही नही सम्पूर्ण प्रकृति ही   मेरे श्रीराम के अयोध्या लौटनें की  ख़ुशीयाँ  मना रही थी ।

चारों ओर आनन्द का वातावरण था .................

नन्दी ग्राम ................मेरे श्रीराम नें  सबको बताया  ।

मैने अब नीचे की ओर देखा .................लाखों नरनारी  खड़े हैं   स्वागत के लिये ...........लाखों दीये  .......सुगन्धित तैल के दीये  लेकर सब खड़े थे ...........शाहनाई बज रही थी ..........वीणा के तार एक साथ  झंकृत करनें वाले कलाकार  एक तरफ  उच्च मंच पर बैठे थे .................

एक  स्थान था ......जहाँ विविध फूलों की रंगोली बनाई गयी थी ......और   ये इशारा था कि पुष्पक  विमान यहीं उतरेगा  ।

और मैने ये भी देखा  कि .............उसके बाद    कमल फूल के पराग बिछाये गए थे .............गुलाब के फूलों की पंखुड़ियां    बगल से लगाई गयीं थीं .........चारों ओर पिचकारी से   गुलाब जल और इत्र का छिड़काव किया गया था ..........और  अभी भी हो ही रहा था  ।

वैदेही !    देखो !    तुम्हारा भाई   लक्ष्मी निधि  !    

मेरे श्रीराम नें मुझे  बताया  ।

मैने  देखा ........मेरी आँखें भर आईँ ............आर्य !  मेरे पिता जी भी खड़े हैं ......और मेरी मैया सुनयना भी  ।

इतना ही नही ......मेरे जनकपुर से बहुत लोग खड़े थे हमारे स्वागत के लिये.........मेरा भाई लक्ष्मी निधि तो एक टक  विमान को ही देख रहा था ........बेचारा !   कुछ बोलता नही है........पर इसकी आँखें बहुत कुछ बोल देती हैं.......मुझे जनकपुर से विदा करते हुए यही तो    सबसे ज्यादा रोया था .......छ महीना तक इसनें  मेरे वियोग में अन्न जल कुछ नही खाया था.....मेरा भाई  लक्ष्मी निधि  मुझ से बहुत प्रेम करता है  ।

देखो  प्राण !   मेरा भाई  माता सुनयना को बता रहा है ...........मैं यहां बैठी हूँ .....और आप इधर  बैठे हैं ..........वो कितना खुश है ना ।

विमान  अब  धीरे धीरे उतरनें लगा था ..............

महामन्त्री सुमन्त्र की व्यवस्था  अच्छी थी ......भीड़ को  सम्भालनें के लिए  सैनिकों को भी  लगा दिया था........ताकि मेरे श्रीराम को कोई कष्ट न हो.....पर मेरे श्रीराम महामन्त्री जी की   व्यवस्था को हटाकर समस्त अयोध्यावासियों को अपनें हृदय से लगानें वाले थे ...........

शेष चरित्र कल ......

Harisharan

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