आज के विचार
( वैदेही की आत्मकथा - भाग 144 )
"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -
मैं वैदेही !
प्रयागराज से पुष्पक विमान चला ..........मेरे श्रीराम नें संकल्प किया .....नन्दीग्राम अयोध्या में विमान उतरेगा ।
मन्द गति से विमान उड़ रहा था ..........मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न था ।
स्मित हास्य मेरे श्रीराम के मुखारविन्द में स्पष्ट दिखाई दे रहा था ........
वो सोच रहे थे ............भैया भरत के बारे में ...........हाँ वो भैया के बारे में ही सोच रहे थे .....................
तभी पीछे से विभीषण जी बोल उठे .........बहन !
त्रिजटा नें एक बार मुड़कर देखा ........वो भी बोल उठी .............भूआ !
मैने जब पीछे मुड़कर देखा तो एक अत्यन्त सुन्दरी .........साँवली ......वस्त्र तपश्विनी के .............कुछ गैरिक रँग लिया हुआ ।
जटायें बड़ी बड़ी थीं ......पर उनका जूड़ा ही बना लिया था और उसमें मालायें बाँध ली थीं ..................उसके नख बड़े बड़े थे ।
सूर्पनखा ! मैं भी जोर से बोली ..............पर मेरे बोलनें पर भी बस एक बार ही पीछे मुड़कर देखा मेरे श्रीराम नें .......फिर आगे की ओर देखते हुए शान्त ही बने रहे ।
वो उड़ रही थी ....वो विमान की गति से साथ साथ उड़ रही थी.........वो मेरे श्रीराम को देखती थी .....और आनन्दित हो रही थी ..........।
विभीषण जी नें उससे बातें की .......विमान के द्वार में आकर .......और उनकी बातों को मुझे त्रिजटा नें बताया.......वो अद्भुत था ।
मेरे श्रीराम हैं ही ऐसे अद्भुत.........कोई भी मुग्ध हो जाए ।
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मैं कुछ दिन रही लंका में ..........रावण का वध होना ही चाहिये था ........उसनें मेरे पति की हत्या जो की .......मैं यही चाहती थी ।
सूर्पनखा बोलती गयी .........................
पर उफ़ ! एक गलती हो गयी .........मुझे राम से प्रेम हो गया ।
मैं सोती भी थी तो मेरे सपनें यही राजिव नयन ........दिखाई देते थे ।
भैया विभीषण ! आपको पता ही है ......मैं बचपन से ही जिद्दी थी ........जिद्द के कारण ही तो मैने विद्युत्जिव्हा से विवाह किया था .....मेरा भाई रावण तो मुझे मना करता रहा ........पर मेरी भी जिद्द थी ।
फिर तुम कहाँ गयीं ? बहन ! तुमनें क्या किया फिर ? तुम तो लंका से चली गयीं थीं ? विभीषण जी नें कई प्रश्न किये थे ।
भैया ! मैं फिर राम को पानें के लिये मचल उठी .........मुझे राम ही चाहिये ..........पर राम को पाना इतना सरल कहाँ है !
मुझे महर्षि परसुराम नें समझाया .............वो भगवान विष्णु के अवतार हैं ..............तो क्या मैं राम को नही पा सकती ?
क्यों नही पा सकतीं .......तप बहुत बड़ी चीज है .......तप करो .......और अगर जिद्द ही है तो अनंतकाल तक करती रहो .....तप का फल भगवान देते ही हैं .............मुझे महर्षि नें समझाया ।
भैया ! मैं चली गयी तप करनें .............पर कुछ ही समय बाद मुझे ऐसा आभास होनें लगा .......कि रावण मारा गया है ........और राम सपत्नीक अयोध्या लौट रहे हैं ......मेरा हृदय कहाँ माननें वाला था .......मैं राम को देखना चाहती थी......बस मैने देख लिया ....आहा ! उसनें आह भरी ।
अब क्या करोगी ? विभीषण जी नें विमान में से ही बैठे बैठे पूछा था ।
अब ! मैं जा रही हूँ फिर तप करनें.......मुझे सीता के स्थान पर बैठना है ........चाहे कितनें भी जन्म लेनें पड़ें ......चाहे कितनें भी युग बीत जाएं .......पर मैं राम को पाऊँगी.......ये मेरी जिद्द है भैया !
ये कहते हुये सूर्पनखा फिर विमान के आगे आई.......मेरे श्रीराम को देखते हुए वो उड़ गयी थी ......हाँ तप करनें .......।
जिद्दी है मेरी भूआ रामप्रिया ! धीरे से बोली थी त्रिजटा ।
मैं हँसी राम के रूप में तो सीता ही रहेगी ...........हाँ आगे के अवतार की ........मैं इतना कहकर चुप हो गयी थी ।
( इसी सूर्पनखा नें तप करके कृष्णावतार में कुब्जा के रूप में कृष्ण को पाया )
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ये देखो ! मेरी अयोध्या ! मेरे श्रीराम एक बालक की उछल पड़े थे ।
फिर सबको दिखानें लगे ............ये हैं मेरी पतितपावनी सरजू .........इनके कोई दर्शन भी करता है तो वह पवित्र हो जाता है ।
मेरे श्रीराम नें हाथ जोड़कर प्रणाम किया तो हम सबनें अयोध्या नगरी को विमान से वन्दन किया था ।
शेष चरित्र कल ........
Harisharan
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