वैदेही की आत्मकथा - भाग 143

आज  के  विचार

( वैदेही की आत्मकथा - भाग 143 )

"वैदेही की आत्मकथा" गतांक से आगे -

मैं वैदेही ! 

 हम लोग प्रयाग स्नान करके  लौट आये थे महर्षि भारद्वाज के आश्रम में .......तभी  हनुमान आगये ............और हनुमान नें जो सूचना दी अयोध्या की ........मैं गदगद् हो गयी थी ........मेरे श्रीराम तो  भरत भैया  की बातें सुनकर  अश्रु ही बहाते रहे  ..........।

अपनें पास खींच कर हृदय से  लगा लिया था हनुमान को  मेरे श्रीराम नें ।

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भरत  कैसा है ?   क्या बोला वो ?  हनुमान !  तुमनें कैसे उसे सूचना दी ?

कितनें प्रश्न थे  मेरे श्रीराम के........हनुमान नें   अयोध्या का वर्णन किया .........सारी बातें बताईं वहाँ की......विशेष भरत के बारे में ......हम सबके नेत्र बह रहे थे   जब भरत  की स्थिति सुनाई हनुमान नें  ।

"प्रभो !     मैं  जब नन्दीग्राम पहुँचा   तब मैने अपना रूप बदल लिया था ब्राह्मण भेष में गया था मैं.......

तब   अग्नि प्रज्वलित करके बैठे थे भरत भैया  ...........

मैं  बाहर ही खड़ा हो गया  कुछ देर के लिये  ..............

क्यों  ?      मेरे श्रीराम नें हनुमान से पूछा ।

श्री शत्रुघ्न कुमार आगये थे  अश्व में बैठकर .......और वो  उतरते ही सीधे  भरत भैया  की कुटिया में ही गए थे  ।

भैया !  आज मन प्रसन्न है....है ना  ?   शत्रुघ्न कुमार बोलनें लगे थे ।

पता है   सरजू का जल निर्मल हो गया है .....अत्यन्त निर्मल .........

और  भैया !  रात ही रात में   जो  जलाशय   शुष्क थे .....वो लवालव भर गए हैं .............गौएँ  प्रसन्न हैं ............पक्षी कलरव करते हैं ।

भैया !  आप बोलते क्यों नही !    आप चुप क्यों है  ?  

प्रभो !   मैं सुन रहा था    भरत भैया शान्त गम्भीर होकर बैठे  थे ।

भैया !   आर्य आएंगें ...............आप विश्वास कीजिये ........मेरा दाहिना अंग  आज सुबह से ही फड़क रहा है  ।

पता नही ....मेरे जैसे  कैकेई पुत्र के लिये  श्रीराम आयेंगें या नही !

भरत भैया का स्वर   विषादपूर्ण था  ।

शत्रुघ्न !   आज अगर  मेरे श्रीराम नही आये  तो ये भरत अपनें प्राणों को इसी अग्नि में  जला देगा  ।

प्रभो !  मैं बाहर खड़ा ये सब सुन रहा था .............अब मुझसे रहा नही गया .........मैने कुटिया के भीतर प्रवेश किया .......तो भैया भरत और शत्रुघ्न कुमार नें  मेरा अभिवादन किया ......।

कहिये  ब्राह्मण देवता !   आपको हम क्या दे सकते हैं ?

प्रभो !   मैने हाथ जोड़े भरत भैया के.....और कहा .........अयोध्या में  तो अब मंगल ही मंगल  होनें वाला है......शुभ ही शुभ........।

क्या मंगल ?      मंगल तो तब हो  जब  इस भरत को क्षमा करके  मेरे श्रीराम यहाँ आजायें ............

हाँ   आरहे हैं   श्रीराम  !      

प्रभो !   भरत भैया ने जैसे ही ये सुना .........वो  तुरन्त उठकर खड़े हो गए......क्या कहा  ब्राह्मण देवता !     देखो !  मेरे साथ विनोद मत करना ........मैं  बहुत दुःखी हूँ...........शायद इस संसार का सबसे ज्यादा दुःखी व्यक्ति .........मेरे कारण मेरे  अत्यन्त कोमल भैया श्रीराम को वन में जाना पड़ा.........मैं पापी हूँ ............

ये कहते हुए  मेरे सामनें  हाथ जोड़कर   गिर पड़े थे  भरत भैया ।

मैनें तुरन्त उठाया    ..........और  कहा .........मैं सच कह रहा हूँ ..........वो आरहे हैं ................आप बस तैयारी कीजिये  ।

मेरे मुख से इतना सुनते ही भरत भैया  अति आनन्दित होकर   मूर्छित ही हो गए थे.......फिर जब उठे  तब .........

ब्राह्मण देवता !   मै  आपको क्या दूँ !  आप अनेक गाँव ले लीजिये .....

नही नही .......ये समाचार तो बहुत अमूल्य है...........इसके लिये गाँव मात्र पर्याप्त नही होगा ........ब्राह्मण देवता !  आप  रत्न, मणि , माणिक्य  जितना चाहिये ले लीजिये ..............नही नही .........ये समाचार तो ........फिर आनन्दित होकर  अश्रु बहानें लगे थे  भरत भैया !

ये भरत आपका ऋणी हो गया है........आपनें मेरे श्रीराम के आनें की सूचना जो दे दी.......मेरे  पांव  पकड़ लिये थे  प्रभो ! 

हनुमान बता रहे हैं..........तभी मेरे पास मुस्कुराते हुए शत्रुघ्न कुमार आये .......ब्राह्मण देवता !  आपको पहले भी कहीं देखा है  ?

भरत भैया  भी उठ गए ...........और मेरी और बड़े ध्यान से देखनें लगे थे ............आप  ?     फिर सोचनें लगे  ।

प्रभो !  फिर कुछ देर में  हँसे भरत भैया  .........हनुमान  !      अपनें दोनों बाहों को फैलाकर  मेरी ओर देखा..........धन्य हनुमान !    और  मुझे अपनें बाहु पाश में बाँध लिया.....।

तभी गुरु वशिष्ठ जी पधारे ..............

गुरुदेव !    मेरे प्रभु आरहे  हैं .......मेरे आर्य आरहे हैं .......मेरे इष्ट आरहे हैं .....उन्होंने इस  भरत को क्षमा कर दिया.........ये कहते हुए  गुरुदेव के चरणों में लेट गए थे भरत भैया ।

ये सूचना दी है   इन्होनें.........मेरी और  देखते हुए कहा  भरत भैया नें  ।

ये कौन  ?       गुरुदेव नें पूछा  ।

ये  !     हनुमान !     अब तो  आप अपना रूप हटाइये  ..............

मैने  ब्राह्मण का भेष हटाया ..........और अपनें रूप में आगया था ।

मैने प्रणाम किया गुरुदेव को........गुरुदेव बहुत प्रसन्न हुए ।

हनुमान के द्वारा  अयोध्या की बातें सुनकर   हम सब  अश्रु  बहा रहे थे ।

प्रभो !   मैं  अयोध्या में भी गया ......शत्रुघ्न कुमार  के साथ   रथ में बैठकर  ................

वहाँ मुझे माताएँ मिलीं ..........बहुएँ मिलीं ..............मुझे सब लोगों नें घेर लिया था .........सब पूछ रही थीं ......रावण मारा गया ?    अब कहाँ हैं  राम  ?        कितनें समय पर यहाँ आयेंगें  ?  

मैने  सारी बातें बताईं .....................।

तभी भरत भैया भी   नन्दीग्राम से गुरुदेव के साथ आगये थे  ।

विमान कहाँ उतरेगा  ?    स्थान  देख लो पवन सुत !     फिर उस स्थान को  समतल भी तो बनाना पड़ेगा ना !   भरत भैया  नें कहा ।

नही भैया !      वो विमान पुष्पक है ............वो पर्वत पर भी  रुक सकता है .......नदी पर भी उतर सकता है .........आप उसकी चिन्ता न करें ।

शत्रुघ्न कुमार    को बहुत भाग दौड़ करनी पड़ रही हैं  प्रभो ! 

वो बाहर जाते हैं........सेवकों को आदेश देते हैं ...शहनाई  बजवाओ नगर में......पताके रँग बिरंगे   हर घर में लगने चाहिये......रंगोली भी .......फिर  शत्रुघ्न कुमार भीतर आते.......और मेरी बातें सुनते.........मुझे माँ कौशल्या नें   बहुत वात्सल्य दिया .....मुझे खूब मोदक खानें को दिया  ............

पता है प्रभो !      तभी  उधर से माँ कैकेई आईँ ...............

उनका शरीर  जर्जर हो गया है ..............14 वर्षों तक उन्होंने अन्न नही खाया है .........प्रभो !     माँ कैकेई  ,  आप आरहे हो ये सुनकर अपनें महल से बाहर आयी थीं .............।

मेरा पुत्र और मेरी पुत्र बधु आरही है  !   

माँ कैकेई  से ये भी नही बोला जा रहा था .................

भरत भैया को जब देखा ...........तब वो डर गयी थीं ...........

मैने उनके चरण वन्दना करनें चाहे .........पर  उन्होंने अपनें चरण छूनें नही दिए ........धीरे से बोलीं.........पापिन कैकेई के पैर छूनें से क्या मिलेगा तुझे  ।

हनुमान ये कहते हुये  कुछ देर के लिए चुप हो गए थे ......मेरे श्रीराम नें अपनें आँसू पोंछे थे .............

शेष चरित्र कल ........

Harisharan

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